अखिलेश बनने की सियासी दास्तां

By: Jan 5th, 2017 12:05 am

पीके खुरानापीके खुराना

( पीके खुराना लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं )

यह तो सिद्ध हो चुका है कि मुलायम सिंह यादव की शक्ति का क्षरण हुआ है, लेकिन समाजवाद के इस दंगल में यह भी हुआ है कि जो अखिलेश पहले आज्ञाकारी पुत्र की छवि के मालिक थे, वे अब शहजादा सलीम की भूमिका में आ गए हैं। यह तो स्पष्ट है ही कि पिता-पुत्र में कोई समझौता हो या न हो, इस घटनाक्रम से यह सबक जरूर मिलता है कि हर बूढ़े शेर को यह याद रखना चाहिए कि उनका बेटा भी शेर ही है और वह कभी भी अखिलेश बन सकता है…

नए रोजगार पैदा करने के मामले में ओला और उबेर जैसी टेक्नोलॉजी कंपनियों का योगदान वास्तव में एक नई क्रांति है। ओला अथवा उबेर के पास टैक्सियां नहीं हैं, लेकिन वे बड़ी टैक्सी सर्विस एग्रीगेटर कंपनियां हैं। तकनीक के सहारे इन कंपनियों ने हजारों युवकों को रोजगार दिया है और पढ़े-लिखे बेरोजगार लोगों ने भी इस क्रांति का लाभ उठाया है। बहुत सी कारपोरेट कंपनियां कई ऐसे अभिनव काम करती हैं, जो चमत्कार से कम नहीं होते। इसी तरह कई बार गांवों अथवा कस्बों में रहने वाले लोग कोई ऐसा आविष्कार कर डालते हैं, जो उस क्षेत्र में क्रांति ला देता है। ताज्जुब तब होता है, जब ऐसी खबरें राष्ट्रीय स्तर की खबरें नहीं बन पातीं। तमिलनाडु के निवासी अरुणाचलम मुरुगनंथम पेशे से एक वेल्डर हैं और खिड़कियां तथा ग्रिल बनाते हैं। लेकिन जब उन्होंने देखा कि उनकी पत्नी पैसे की कमी के कारण मासिक धर्म के दिनों में सेनिटरी नैपकिन खरीदने की जगह फटे-पुराने कपड़ों का प्रयोग करती हैं, तो उनका रचनात्मक मस्तिष्क अशांत हो गया और उन्होंने एक ऐसी मशीन का आविष्कार किया, जिससे सस्ते सेनिटरी नैपकिनों का उत्पादन संभव हुआ। आज तमिलनाडु में महिलाओं के बहुत से स्वयंसेवी संगठन उनके द्वारा आविष्कृत मशीन से सस्ते सेनिटरी नैपकिनों का उत्पादन कर रहे हैं। अपने मित्रों में मुरुगा के नाम से प्रसिद्ध मुरुगनंथम ने अपना आविष्कार भी इस विलक्षण ढंग से किया कि व्यक्ति दांतों तले अंगुली दबा ले। इस पूरी प्रक्रिया में न केवल उनकी पत्नी और मां उन्हें छोड़ कर चली गईं, बल्कि गांव वालों ने भी यह मान लिया कि उन पर किसी प्रेत का साया है और उन्हें गांव से निकाल दिया। तो भी लगन के पक्के मुरुगा ने जिद नहीं छोड़ी और अपना काम जारी रखा। अंततः उन्होंने एक ऐसी मशीन बनाने में सफलता पा ली, जिससे सस्ते सेनिटरी नैपकिनों को उत्पादन संभव हो सका। ऐसे आविष्कार भी हमारे मुख्य धारा के मीडिया में बड़ी खबर बन ही जाएं, यह आवश्यक नहीं है।

ज्यादातर अखबारों के पहले पेज की बड़ी खबर या तो प्रधानमंत्री होते हैं या कोई बड़ी दुर्घटना या कोई बड़ी ठगी। यही कारण है कि अखबारों में मोदी या उनसे संबंधित खबरें ही छाई रहती हैं। मोदी ने क्या किया, क्या कहा, किस मंदिर में माथा टेका, उनकी माताश्री कब कतार में लगीं, उनकी परित्यक्ता पत्नी ने क्या कहा आदि तो खबरें, पर ऐसे किसी आविष्कार की खबर अखबारों में अंदर के पृष्ठों में भी धकेल दी जा सकती है, जिस आविष्कार ने हजारों-लाखों लोगों की जिंदगियां बदल दी हों। तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता अपनी बीमारी के दौरान और देहावसान के बाद भी मीडिया में छाई रहीं। अम्मा के नाम से प्रसिद्ध जयललिता को जिस तरह का जनसमर्थन मिला, वह राष्ट्रीय मीडिया के लिए अद्भुत घटना थी और समर्थन के इस ज्वार ने यह सुनिश्चित कर लिया कि उन्हें भी मीडिया में बराबर का स्थान मिले। आठ नवंबर को जब प्रधानमंत्री ने लगभग सर्जिकल स्ट्राइक की-सी शैली में पांच सौ और एक हजार के नोट बंद किए तो अगले पचास दिन नोटबंदी के नाम लग गए। नोटबंदी की सफलता-असफलता के कयास, नोटबंदी के लाभ-हानियां और इस निर्णय की खूबियों-खामियों की चर्चा होती रही। इस दौरान काले धन की भी चर्चा हुई लेकिन काला धन कहां-कहां से बनता है और कैसे सफेद हो जाता है, इसकी चर्चा बड़े उथले ढंग से हुई और बहुत सी बारीक बातें मीडिया की नजर से बची रहीं। अब फिर उत्तर प्रदेश में एक ऐसा तमाशा चल रहा है, जिसने मीडिया का ध्यान आकर्षित किया है। उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी का यह दंगल हास्यास्पद होने पर भी ऐसा है कि प्रदेश की राजनीति पर इसकी छाप पड़ना स्वाभाविक है। मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी की स्थापना की और तीन बार उसे सत्ता की देहरी

तक पहुंचाया। पुराने लोग अब भी उन्हें ही नेता मानते हैं, लेकिन समाजवादी पार्टी के सत्तारूढ़ होने पर जब अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाया गया, तो किसी ने नहीं सोचा था कि अखिलेश यादव अपने पिता को इतनी जल्दी चुनौती देने में सक्षम हो जाएंगे। लेकिन अखिलेश ने न केवल अपने आपको एक युवा चेहरे के रूप में स्थापित किया, बल्कि यह भी जता दिया कि वह प्रदेश की राजनीति में कुछ नया करने की चाह रखते हैं। वे आजम खान, शिवपाल यादव और अपने पिता मुलायम सिंह यादव की छाया से निकल कर कुछ कर दिखाने के लिए तड़पते नजर आए। इससे युवा वर्ग को ही नहीं, बल्कि आम लोगों को भी यह उम्मीद लगी कि समाजवादी पार्टी अब पुराने ढर्रे पर नहीं चलेगी। गाहे-बगाहे उनकी सरकार पर भिन्न-भिन्न आरोप भी लगे, लेकिन अपने विकास के नारे के साथ अखिलेश ने अधिकांश आरोपों को दरकिनार कर पाने में सफलता पाई है। इससे उन्हें लाभ मिला है और युवा वर्ग ही नहीं, पार्टी के ज्यादातर बड़े नेता भी पार्टी का भविष्य उनमें ही देखते हैं। यही कारण है कि पार्टी के अधिकांश विधायक, सांसद, कार्यकर्ता उनके साथ आ जुटे। मुलायम सिंह यादव का पंडाल खाली-खाली रहा तो सदैव दबंग माने जाने वाले मुलायम को सचमुच मुलायम बनकर समझौते की टेबल पर आना पड़ा। यह अखिलेश की बहुत बड़ी जीत है। हालांकि इस सारे नाटक से दल को लाभ की जगह हानि भी हो सकती है, क्योंकि कार्यकर्ताओं में भ्रम की स्थिति भी है। यह तो सिद्ध हो चुका है कि मुलायम सिंह यादव की शक्ति का क्षरण हुआ है, लेकिन समाजवाद के इस दंगल में यह भी हुआ है कि जो अखिलेश पहले आज्ञाकारी पुत्र की छवि के मालिक थे, वे अब शहजादा सलीम की भूमिका में आ गए हैं।

यह तो स्पष्ट है ही कि पिता-पुत्र में कोई समझौता हो या न हो, इस घटनाक्रम से यह सबक जरूर मिलता है कि हर बूढ़े शेर को यह याद रखना चाहिए कि उनका बेटा भी शेर ही है और वह कभी भी अखिलेश बन सकता है। अखिलेश अब खुद ‘नेता जी’ की भूमिका में हैं और मुलायम सिंह की भूमिका प्रतीकात्मक रह गई है। उत्तर प्रदेश में 11 फरवरी से चुनाव होंगे। चुनाव परिणाम यह साबित करेंगे कि समाजवादी पार्टी की बागडोर अखिलेश और मुलायम में से किसके हाथ आती है। यदि चुनाव अखिलेश के पक्ष में गए, तो वे निर्विवादित नेता होंगे ही, लेकिन यदि चुनाव परिणाम उनके मन माफिक न आए, तो भी यही माना जाएगा कि उनकी हार का कारण यह समाजवादी दंगल बना। उत्तर प्रदेश की दूसरी बड़ी पार्टी बसपा भी 104 करोड़ की धनराशि को काले से सफेद करने के प्रयास के चलते खबरों में है। खुद मोदी सरकार ने राजनीतिक दलों को काला धन पकड़ने के सरकारी शिकंजे से मुक्त करके जहां मायावती को लाभान्वित होने का मौका दिया है। मायावती ने इसी कानूनी छेद का लाभ उठाया है, लेकिन प्रकट रूप से वह नोटबंदी का विरोध करती रहेंगी। मुद्दा यह है कि खुद मीडिया भी मुद्दों को दरकिनार करके टीआरपी केंद्रित हो गया है, यही कारण है कि हम आविष्कारों की खबरें पढ़ने के बजाय समाजवादी दंगल जैसी खबरें पढ़ने के लिए विवश हैं। आशा करनी चाहिए कि मीडिया से जुड़े हमारे साथी इस पर मनन करेंगे और टीआरपी मानसिकता की जड़ता से उबर कर फिर से अपनी पुरानी प्रतिष्ठा प्राप्त करेंगे।

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