‘अर्द्धसत्यों’ का आखिरी सच

By: Jan 9th, 2017 12:02 am

वह किसी रचनाकार या शिल्पकार की कल्पना का ‘अर्द्धसत्य’ होगा। वह किसी किरदार, भाव, स्थिति, घटना का भी ‘अर्द्धसत्य’ हो सकता है। उस ‘अर्द्धसत्य’ में भी एक ‘आक्रोश’ दबा-छिपा हो सकता है। वह आदिवासी भीकू की तरह एक बेहद कमजोर आदमी दिख सकता है, लेकिन उसकी आंखें, चेहरे के भाव, उठती-गिरती सांस… ये तमाम बेचैनियों को अभिव्यक्त करते हैं। वह परिस्थितियों की असमानता और सौतेलेपन का शिकार है, लिहाजा उस किरदार की पहचान भी ‘अर्द्धसत्य’ है। यह जिंदगी और उसे जीने वाली शख्सियत भी तो ‘अर्द्धसत्य’ ही है। कितने अर्द्धसत्यों की बात करें, उपमाएं स्थापित करें और रूपक भी बांधते रहें, लेकिन यह अंतिम सत्य है कि हम अर्द्धसत्यों के बीच ही पैदा होते हैं, जीवन जीते हैं और फिर एक निश्चित क्षण पर पत्थर हो जाते हैं। हमारे भीतर की संजीवनी या आत्मा न जाने किस दिशा में ‘महायात्रा’ पर निकल जाती है। फिल्म अभिनेता ओमपुरी ऐसे ही कई अर्द्धसत्यों के साथ हमें छोड़ कर चले गए हैं। अंबाला में रेलवे यार्ड में लंबे वक्त तक रातें गुजारने वाला, ढाबे पर एक गंदी-सी नौकरी करने वाला या दो जून रोटी के लिए कुछ भी करने वाला वह मजबूर-सा दिखने वाला आदमी एक दिन देश-विदेश का चर्चित, दमदार, सशक्त और महानायकीय अदाकार भी बनेगा, यह किसने सोचा था? गर्दिशें वहां तक कल्पना को पहुंचने ही कहां देती हैं? धब्बों वाली बदसूरत का शख्स सिनेमा का एक महानायक बनेगा, कौन कल्पना कर सकता था? साथी अभिनेत्री शबाना आजमी ने तो चेचक के दाग वाले उस चेहरे पर सवाल भी उठा दिए थे। फिर खुद उसी के साथ फिल्में करनी पड़ीं। जब उस शख्स के अभिनय की व्यापकता देखी, तो मुंह खुला रहा और आंखें चौड़ी हो गईं। उस शख्स के अलविदा पर शबाना की आंखें भी गीली थीं। दरअसल यही ‘अर्द्धसत्य’ है, जिसे ओमपुरी अपनी निजी जिंदगी में भी ताउम्र जीते रहे। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, पुणे फिल्म संस्थान और अंततः फिल्मों की दुनिया के बीच एक ऐतिहासिक उपस्थिति सचमुच ही ओमपुरी के लिए ‘अर्द्धसत्य’ सरीखी ही थी। लिहाजा 1982 और 83 में जब उन्होंने ‘आरोहण’ और ‘अर्द्धसत्य’ सरीखी फिल्में दीं और उन्हें दोनों बार ‘सर्वोच्च अभिनेता’ का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया, तो हमें लगा कि यही सत्य है। कमोबेश इस देश को हैरानी नहीं हुई थी और न ही किसी ने उनके दागदार खुरदरे चेहरे की ओर झांका था। मानस में सिर्फ किरदार जिंदा थे और वे हालात, जिनके मद्देनजर एक ईमानदार पुलिसवाले को भ्रष्ट नेता की हत्या करनी पड़ती है। यदि व्यावसायिक सिनेमा में अमिताभ बच्चन एक कामयाब ‘एंग्री यंगमैन’ साबित हुए, तो कला, समानांतर फिल्मों के ‘एंग्री यंगमैन’ के तौर पर ओमपुरी किसी भी तरह कमतर नहीं थे।  बहरहाल, उसके बाद ओमपुरी ने बेरंग, संघर्षशील, सच्चे आदमी के किरदारों से लेकर विदूषक और नकारात्मक किरदार भी निभाए। ‘जाने भी दो यारो’ में आहूजा का किरदार निभाकर उन्हें न केवल दर्शकों को खूब हंसाया, बल्कि निर्देशक कुंदन शाह को भी हैरान कर दिया था। उस दौर में संदेह होने लगा था कि उनके भीतर ‘ब्रह्मा’ सरीखा कोई दैवीय शिल्पकार मौजूद है, जो हर तरह के किरदार गढ़ता रहता है और ओमपुरी उन किरदारों को सिनेमा के पर्दे पर जीवंत करते हैं। उन्होंने 15 भाषाओं में 300 से अधिक फिल्मों को जिया। यही नहीं, अंग्रेजी भाषा में फिसड्डी माने जाने वाले ओमपुरी ने 20 से ज्यादा हालीवुड की अंग्रेजी फिल्में भी कीं। अपनी मौत के लम्हों तक वह फिल्में करते ही रहे, लेकिन निजता के स्तर पर वह लगातार अकेले ही रहे, सन्नाटे जीते रहे, शराब में सुकून ढूंढते रहे। मौत की पूर्व संध्या पर निर्माता खालिद किदवई के साथ एक पार्टी में भी गए, लेकिन बेचैनी ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा, तो घर तक छोड़ने का आग्रह किया। ओमपुरी को शायद अपने ‘आखिरी अर्द्धसत्य’ का एहसास हो गया था, लिहाजा वह अपने 19 साल के बेटे इशान से मिलना चाहते थे, जो अपनी मां और ओम की पूर्व पत्नी नंदिता पुरी के साथ अलग रहता था। विडंबना और दुर्भाग्य ही है कि बाप-बेटे की आखिरी मुलाकात नहीं हो पाई। अब ओमपुरी पंचतत्त्व में लीन हो चुके हैं, अतीत बन चुके हैं, लेकिन इतिहास में वह हमेशा ही एक कालखंड के तौर पर याद किए जाएंगे। समानांतर फिल्मों का दौर याद किया जाएगा, तो वह अपने मित्र एवं समकालीन अभिनेता नसीरूद्दीन शाह, पंकज कपूर, शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, सई परांजपे आदि नामों के साथ याद किए जाएंगे। उनका हर किरदार कालजयी बनकर हमारे मानस पर दस्तक देता रहेगा, लेकिन ईश्वर से एक सवाल है कि जो लोग ओमपुरी की तरह अकेले रह जाते हैं, उनकी मौत इतनी त्रासद क्यों होती है? शायद ईश्वर मेरे मानस में कोई जवाब देंगे, तो आप से जरूर साझा करूंगा।


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