कश्मीर को मिलती अभिनव पहचान

By: Jan 14th, 2017 12:05 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्रीडा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

( डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

कश्मीर घाटी महज जमीन का टुकड़ा नहीं है, वह एक संस्कृति और एक दृष्टि है। वह नागभूमि है। गिलानियों को लगता है कि कश्मीरियों ने इबादत का एक और तरीका इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है, इससे उनकी मूल पहचान ही बदल गई है। कश्मीरी एक नहीं, इबादत के अनेक तरीकों को बिना अपने मूल को छोड़े, एक साथ आत्मसात कर सकते हैं। यही तो कश्मीरियत है। यदि गिलानी सैकड़ों साल बाद भी अपनी मूल पहचान को छोड़ नहीं सके तो वे कैसे आशा करते हैं कि कश्मीरी अपनी मूल पहचान छोड़ देंगे? अभिनवगुप्त उसी का प्रतीक हैं…

बंगलूर में श्रीश्री रविशंकर जी के अंतरराष्ट्रीय आश्रम में छह-सात जनवरी को ठहरने का अवसर प्राप्त हुआ। आश्रम में अभिनवगुप्त सहस्राब्दी समारोहों का समापन कार्यक्रम था। अभिनवगुप्त दार्शनिक, तांत्रिक, काव्यशास्त्र के आचार्य, संगीतज्ञ, कवि, नाट्यशास्त्र के मर्मज्ञ, तर्कशास्त्री, योगी और भक्त थे। उन्होंने अपने संपूर्ण जीवन को शास्त्रों के अध्ययन और शिवभक्ति के लिए समर्पित कर दिया था। कहा जाता है कि उन्होंने सभी विधाओं के श्रेष्ठतम गुरुओं के पास जाकर शिक्षा ग्रहण की थी। उनकी ज्ञान के प्रति समर्पण को देखकर सभी गुरुओं ने सहर्ष शिक्षा देना स्वीकार भी कर लिया था। उनका सबसे बड़ा अवदान यह है कि उन्होंने अपने समय अस्तित्व में रही विभिन्न ज्ञानधाराओं का सुंदर समन्वय किया था। उनकी प्रामाणिकता इतनी थी कि उनके भाष्यों को विद्वानों ने अंतिम मान लिया था। उस समय के उन्होंने भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर भाष्य लिखा, जो साहित्य जगत में प्रसिद्ध है। बुद्ध के तर्कशास्त्र का उन्होंने त्रिक दर्शन की व्याख्या में प्रयोग किया, लेकिन जैसे-जैसे कश्मीर घाटी में इस्लाम के प्रसार के कारण मतांतरण होता गया, वैसे-वैसे कश्मीर के लोग शायद अपने इस बहुआयामी सपूत को भूलते गए। अभिनवगुप्त देश भर में दार्शनिकों और काव्यशास्त्रियों के शास्त्रार्थों में तो जिंदा रहे, लेकिन कश्मीरियों की स्मृति में से लोप होते गए, लेकिन पिछले दस पंद्रह सालों से कश्मीरी युवा पीढ़ी में, जिनके पूर्वज मतांतरित हो गए थे, अपनी मूल संस्कृति को जानने और अपने पूर्वजों को पहचानने की चाह जगी है। उसका एक कारण शायद मुसलमान युवकों में शिक्षा का होता प्रचार-प्रसार भी हो सकता है। युवा पीढ़ी में इसे कश्मीर का सांस्कृतिक पुनर्जागरण कहा जा रहा है। अभिनवगुप्त एक हजार वर्ष पहले भैरव स्तोत्र गाते हुए जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के समीप की एक पहाड़ी पर बनी गुफा में शिवलीन हो गए थे।

श्रीनगर का आम निवासी, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, इसको गुफा प्रवेश नहीं कहता, बल्कि उनकी शब्दावली में वह शिव में लीन हो गए थे। किसी पूंजीपति ने वह पहाड़ी लीज पर लेकर उसे समतल करना शुरू कर दिया। स्वाभाविक है कि पूंजीपतियों द्वारा इस प्रकार के ऐतिहासिक स्थान को नष्ट किए जाने के इस प्रयास के प्रति युवा पीढ़ी में आक्रोश उत्पन्न होता। इसी आक्रोश के चलते मामला राज्य के उच्च न्यायालय में पहुंचा और अभिनवगुप्त की उस गुफा को नष्ट किए जाने के खिलाफ रोक लग गई। स्वाभाविक ही केवल शैव भक्तों में ही नहीं, बल्कि संपूर्ण देशवासियों में प्रसन्नता की लहर दौड़ जाती। हुआ भी ऐसा ही। देश भर में अभिनवगुप्त के शिवलीन होने के एक हजार साल पूरे हो जाने के उपलक्ष्य में स्थान-स्थान पर कार्यक्रम हुए। विचार गोष्ठियां हुईं। दसवीं शताब्दी के अभिनवगुप्त को इक्कीसवीं सदी में याद किया जा रहा है, इससे ही उनके प्रभाव का अनुमान लगाया जा सकता है। गोवा से श्रीनगर तक अभिनव गुप्त यात्रा भी निकाली गई। गोवा से यह यात्रा शुरू करने का भी एक विशेष कारण था। कश्मीरी लोग, जो हिंदू हैं, भी और उनमें से जो इस्लाम में मतांतरित हो गए हैं, वे भी, सारस्वत वंश के माने जाते हैं और कोंकण या गोवा के ब्राह्मण भी सारस्वत ही हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विजय दशमी के अवसर पर हर साल नागपुर में होने वाली सार्वजनिक सभा में संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी पिछले साल अपने संबोधन में अभिनवगुप्त का उल्लेख किया था। अभिनव गुप्त को लेकर किए जा रहे इन समस्त कार्यक्रमों के समन्वय के लिए बनी समिति के अध्यक्ष श्रीश्री रविशंकर ही थे। रविशंकर अभिनवगुप्त यात्रा के मामले में श्रीनगर भी गए थे और वहां खीर भवानी मंदिर में एक बड़ा कार्यक्रम भी हुआ था। इसलिए उचित ही था कि अभिनवगुप्त समारोहों का समापन रविशंकर के आश्रम में ही होता। श्रीश्री रविशंकर ने अपने उद्बोधन में वर्तमान युग में अभिनवगुप्त की प्रासांगिकता की चर्चा की। रविशंकर के इस कार्यक्रम को अस्सी देशों में प्रसारित किया जा रहा था। रविशंकर ने कहा कि कश्मीर में जो उलझनें हैं, उनका समाधान अभिनवगुप्त के रास्ते से भी हो सकता है। मुझे लगता है कि रविशंकर की इस बात में बहुत सार है।

कश्मीरियत की आज बहुत चर्चा होती रहती है, दुर्भाग्य से उस कश्मीरियत की पहचान वे लोग बता रहे हैं, जिनका खुद कश्मीर से कुछ लेना-देना नहीं है। वे खुद गिलान, खुरासान, करमान और हमदान से आए हुए हैं। वे कश्मीरियों पर रौब ही नहीं गांठ रहे, बल्कि उनके मार्गदर्शक होने का भी दंभ पाल रहे हैं। कश्मीरियत की पहचान अभिनवगुप्त के बिना कैसे हो सकती है? वही अभिनवगुप्त जो एक हजार साल पहले भैरव स्तोत्र गाते-गाते शिवलीन हो गए थे। भैरवगुफा के रास्ते पर ही लल्लेश्वरी चल रही थी। नुंदऋषि के बिना कश्मीर को कैसे पहचाना जा सकता है? अभिनवगुप्त, लल्लेश्वरी और नुंदऋषि की पहचान के लिए कश्मीरी दृष्टि चाहिए, गिलानी दृष्टि नहीं। आज कश्मीर का सबसे बड़ा संकट यही है कि कश्मीर की व्याख्या वे लोग कर रहे हैं, जिनका कश्मीर की विरासत से कोई ताल्लुक नहीं है। कश्मीर घाटी महज जमीन का टुकड़ा नहीं है, वह एक संस्कृति और एक दृष्टि है। वह नागभूमि है। गिलानियों को लगता है कि कश्मीरियों ने इबादत का एक और तरीका इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है, इससे उनकी मूल पहचान ही बदल गई है। कश्मीरी एक नहीं, इबादत के अनेक तरीकों को बिना अपने मूल को छोड़े, एक साथ आत्मसात कर सकते हैं। यही तो कश्मीरियत है। यदि गिलानी सैकड़ों साल बाद भी अपनी मूल पहचान को छोड़ नहीं सके तो वे कैसे आशा करते हैं कि कश्मीरी अपनी मूल पहचान छोड़ देंगे? अभिनवगुप्त उसी का प्रतीक हैं। शायद यही कारण था कि कश्मीर घाटी में गिलानियों ने तो अभिनवगुप्त यात्रा का विरोध किया, लेकिन आम कश्मीरी ने जगह-जगह उसका स्वागत किया था। इसी संदर्भ में घाटी में अभिनवगुप्त यात्रा के दौरान एक कश्मीरी मुसलमान युवक ने प्रश्न किया था कि इबादत का तरीका बदलने के लिए अपने पूर्वजों को छोड़ना जरूरी क्यों बताया जा रहा है? यह प्रश्न अपने आप में कश्मीर घाटी में पुनर्जागरण की आहट देता है। गिलानियों के पास इसका कोई उत्तर नहीं है। कश्मीर घाटी में एक बार पुनः एक हजार पहले के अभिनवगुप्त की पदचापें सुनाई देने लगी है। श्रीश्री रविशंकर ने उस आहट को दुनिया भर में पहुंचा दिया। उनके आश्रम में मेरे दो दिन सार्थक हो गए।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com


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