कुछ आशाएं हरी हरी

By: Jan 8th, 2017 12:07 am

UtsavUtsavखेल, फिल्म या फैशन के क्षेत्र में सफल महिलाओं को रोल मॉडल मानने का चलन जैसा चल पड़ा है। इन क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने वाली महिलाओं को बदलाव और आधुनिक सोच का प्रतीक मान लिया जाता है। मीडिया में इन क्षेत्रों के प्रति अधिक आग्रह इसलिए भी अधिक है क्योंकि इनकी कैमरे पर उपलब्धता अधिक रहती है। इन क्षेत्रों में भी सफलता का अपना महत्त्व है लेकिन वास्तविक बदलाव गंभीर माने जाने वाले क्षेत्रों में घट रहा है और जुझारू तेवर, जटिल जगहों पर चुपचाप काम कर रहे हैं। सुनीता नारायण और वंदना शिवा , गंभीर क्षेत्रों में मूक बदलाव का प्रतीक हैं। इनके प्रयासों की वजह से पर्यावरण के क्षेत्र में आशाएं मुरझाई नहीं हैं, वे हरी-भरी हैं…

सुनीता नारायण की गिनती उन महिलाओं में होती है, जो वैज्ञानिक तथ्यों के लिए किसी के खिलाफ भी मोर्चा खोल सकती हैं। पेप्सी और कोका कोला में खतरनाक कीटनाशकों की उपस्थिति की बात कहकर उन्होंने न केवल भारतीय राजनीति बल्कि कारपोरेट जगत में भी भूचाल ला दिया था। इसी तरह बड़ी कंपनियों के शहद में एंटीबायोटिक होने की बात कहकर भी उन्होंने मोर्चा खोला था। सुनीता नारायण का जन्म 1961 में हुआ। सुनीता ने अपना करियर लेखन और भारत की पर्यावरण रिपोर्टों के शोध द्वारा आरंभ किया। उन्होंने कठिन परिश्रम और अध्ययन से पर्यावरण और विकास के मध्य संबंध और सतत विकास के लिए जरूरत के बारे में जनचेतना पैदा करने में शोध कार्य किया। अनुसंधान परियोजना और सार्वजनिक अभियानों की शृंखला में सुनीता ने हमेशा सक्रिय भूमिका निभाई है। सुनीता की महान उपलब्धियों के कारण उन्हें भारत सरकार ने 2005 में ‘पदमश्री’ अवार्ड से सम्मानित किया। 2009 में कोलकाता यूनिवर्सिटी ने विज्ञान की मानद डाक्टर डिग्री से सम्मानित किया और चेन्नई ने वर्ष 2009 ने लिए ‘राज लक्ष्मी’ अवार्ड से भी सम्मानित किया। सुनीता नारायणन भारत स्थित विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र से जुड़ी रही हैं। इस समय वह इस केंद्र की निदेशक हैं। वह पर्यावरण संचार समाज की निदेशक भी हैं। वह ‘डाउन टू अर्थ’ नामक एक अंग्रेजी पाक्षिक पत्रिका भी प्रकाशित करती हैं, जो पर्यावरण पर केंद्रित पत्रिका है। 1990 के शुरुआती दौर में उन्होंने कई वैश्विक पर्यावरण मुद्दों पर गहन शोध और वकालत शुरू की। अपने लेखन के माध्यम से उन्होंने जनजागरण का सृजनात्मक प्रयास किया।

वंदना शिवा

इंटरनेशनल फोरम ऑन ग्लोबलाइजेशन की सदस्य वंदना शिवा ने 1984 में केंद्र सरकार की हरित क्रांति का भी विरोध किया था। वजह यह थी कि उन्हें हरित क्रांति के पीछे रासायनिक खादों के इस्तेमाल की भनक लग गई थी। 1970 में वह ‘चिपको’ आंदोलन से भी जुड़ीं थी। उसके बाद तो पर्यावरण संरक्षण की लड़ाई और वंदना शिवा एक- दूसरे के पर्याय बन गए। वंदना शिवा का जन्म 5 नवंबर, 1952 को देहरादून की घाटी में हुआ। इनके पिता वन संरक्षक और माता प्रकृति प्रेमी थीं। शिवा एक प्रशिक्षित जिम्नास्ट रहीं। भौतिक विज्ञान की स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने ओंटारियो कनाडा से ‘चेंजेज इन दि कांसेप्ट ऑफ पीरियोडिसिटी ऑफ लाइट’ शीर्षक नामक शोध प्रबंध के साथ विज्ञान के दर्शन में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। 1979 में उन्होंने पश्चिमी ओंटोरियो विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। बौद्धिक संपदा अधिकार, जैव विविधता एवं आनुवंशिक इंजीनियरिंग आदि क्षेत्रों में शिवा ने बौद्धिक रूप से योगदान दिया।

हरित विकास की पैरोकार

सुनीता नारायण विकास के मौजूदा मॉडल को ही पर्यावरणीय समस्या का मूल कारण मानती हैं। सुनीता नारायण हरित राजनीति और अक्षय विकास की समर्थक हैं। उनका मानना है कि वातावरण में फैलती अशुद्धता का सबसे बुरा असर तो महिलाओं और बच्चों पर पड़ता है। उनके अनुसार अनियंत्रित तरीके से परंपरागत रोजगार और संसाधनों को नष्ट करके विकास करना चिंता का विषय है। वह उपभोक्तवादी संस्कृति से ऊपर उठने की जरूरत पर बल देती हैं। 90 के शुरुआती दिनों में उन्होंने कई वैश्विक पर्यावरण मुद्दों पर गहन शोध और वकालत करना शुरू कर दिया। वर्ष 1985 से ही वे कई पत्र-पत्रिकाओं में लिख कर जागरूकता फैलाने के काम में लगी रहीं। उन के बेहतरीन कार्यों के प्रतिफल में वर्ष 2005 में उन्हें भारत सरकार द्वारा ‘पदमश्री’ से सम्मानित किया गया। इसी वर्ष उन्हें स्टाकहोम वाटर प्राइज और वर्ष 2004 में मीडिया फाउंडेशन चमेली देवी अवार्ड प्रदान किया गया। वह निरंतर उत्साह से इस क्षेत्र में कार्य कर रही हैं। उनके द्वारा चलाए जा रहे जागरूकता अभियान का दायरा प्रतिवर्ष बढ़ता ही रहा है। वह पर्यावरण से जुड़े मुद्दों के अलावा नक्सलवाद, राजनीतिक भ्रष्टाचार, बाघ व पेड़ संरक्षण और अन्य सामाजिक विषयों पर अपने विचार रखती हैं। देश के ज्यादातर पढ़े जाने वाले अखबारों में उनके स्तंभ प्रकाशित होते हैं। सबसे अहम बात यह है कि पर्यावरण जैसे मुद्दे के लिए भी उन्होंने मीडिया में स्पेस सृजित करने में अद्भतु सफलता पाई है।

राइट लाइवलीहुड पुरस्कार

महिलाओं एवं पर्यावरण को आधुनिक विकास संवाद के केंद्र में रखने के लिए वंदना शिवा को 1993 राइट लाइवलीहुड पुरस्कार से नवाजा गया। इस पुरस्कार को वैकल्पिक नोबेल पुरस्कार भी कहा जाता है। उन्हें 1993 में ही संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) का ‘ग्लोबल 500’ पुरस्कार भी प्रदान किया गया। उन्हें 2007 में ‘सेव दि वर्ल्ड पुरस्कार’ और 2010 में ‘सिडनी शांति पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया जा चुका है। ग्लोबल इकोफेमिनिस्ट मूवमेंट को पहचान देने के लिए भी वह पूरी दुनिया में जानी जाती हैं।

-डा.जयप्रकाश सिंह


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