केंद्र-राज्य संबंधों में बढ़ती खटास

By: Jan 16th, 2017 12:05 am

कुलदीप नैयर कुलदीप नैयर

( कुलदीप नैयर लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं )

स्वतंत्रता के तुरंत बाद ईएमएस नंबूदरीपाद केरल के मुख्यमंत्री चुने गए थे। वह दिल्ली से अलग दृष्टिकोण रखते थे, जहां पर कांग्रेस का शासन था। दिल्ली प्रतिरोधी गिरफ्तारी को आगे बढ़ाना चाहती थी लेकिन नंबूदरीपाद का तर्क था कि यह ब्रिटिश तरीका है और यह देश के लोकतांत्रिक ढांच में फिट नहीं बैठता। उन्होंने इसे लागू किए जाने का विरोध किया। मुख्यमंत्रियों की बैठक में वह इसका विरोध करने वाले एक मात्र मुख्यमंत्री थे…

भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के टकराव के बीच  केंद्र और राज्यों के बीच संबंध का विषय अछूता रह गया। जब पश्चिम बंगाल में भाजपा कार्यालय की सुरक्षा के लिए सीआरपीएफ की तैनाती की गई, तो संदेश एक स्पष्ट था कि केद्र के पास ही निर्णायक शक्ति है और अपनी इच्छाओं  के क्रियान्वन के लिए उसके पास अपना बल है। जब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने यह दावा, यह वक्तव्य दिया कि ‘वह सरकार हैं’ तो वह अप्रत्यक्ष तरीके से यही बता रहीं थी कि कोई भी राज्य अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले विषयों पर सर्वोच्च अधिकार रखता है। भारत में संघीय ढांचा है। संविधान में इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि राज्य के पास काफी हद तक स्वायत्तता है। संविधान में अधिकारों का स्पष्ट बंटवारा किया गया है। केंद्र और राज्यों के बीच खींची लक्ष्मण रेखा को संविधान का सामान्य जानकार भी आसानी से पहचान सकता है। समवर्ती सूची के विषयों पर दोनों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं, लेकिन वहां पर भी यह काम इतने सलीके से किया गया है कि विवाद की गुंजाइश बचती ही नहीं। उच्चतम न्यायालय ने कई निर्णयों के जरिए इस बात को स्थापित किया है कि केंद्र, राज्य के अधिकार क्षेत्र में आने वाले विषयों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।  यह वही पुरानी कहानी है। केंद्र के खिलाफ राज्य का आरोप। यह पहले भी कई राज्यों के मामले में हो चुका है। केरल में जहां ज्यादातर साम्यवादियों ने शासन किया है, दिल्ली का हस्तक्षेप कुछ ज्यादा ही हुआ है। देश में पहली बार राष्ट्रपति शासन इस राज्य में लागू किया गया था। स्वतंत्रता के तुरंत बाद ईएमएस नंबूदरीपाद केरल के मुख्यमंत्री चुने गए थे।

वह दिल्ली से अलग दृष्टिकोण रखते थे, जहां पर कांग्रेस का शासन था। दिल्ली प्रतिरोधी गिरफ्तारी को आगे बढ़ाना चाहती थी, लेकिन नंबूदरीपाद का तर्क था कि यह ब्रिटिश तरीका है और यह देश के लोकतांत्रिक ढांच में फिट नहीं बैठता। उन्होंने इसे लागू किए जाने का विरोध किया। मुख्यमंत्रियों की बैठक में वह इसका विरोध करने वाले एक मात्र मुख्यमंत्री थे। तब पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बीसी रॉय ने उन्हें डांटते हुए कहा था कि ‘तुम हम सभी में से एकमात्र देशभक्त हो। ’ नंबूदरीपाद अपने रुख से टस-से-मस नहीं हुए और कहा कि इस मुद्दे पर मैं आपका साथ नहीं दे सकता। वह चाहते थे कि उनकी असहमति को दर्ज किया जाए। इस प्रकरण पर उनकी पार्टी ने भी उनका पूरा समर्थन किया था। उन्होंने जो कहा था उसे साबित होने में अधिक समय नहीं लगा। जल्द ही केंद्र को रेलवे कर्मचारियों की हड़ताल का सामना करना पड़ा। इस मामले में केरल सरकार ने कर्मचारियों की मांग का समर्थन किया। इससे उत्साहित होकर राज्य में रेलवे कर्मचारियों ने केंद्र की संपत्तियों को आग लगाना शुरू कर दिया। नई दिल्ली ने अपनी परिसंपत्तियों की रक्षा के लिए सीआरपीएफ की तैनाती कर दी। यह एक विषम स्थिति थी, जब राज्य की पुलिस देश की संपत्ति को बचाने के लिए कुछ भी नहीं कर रही थी। जिस संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जा रहा था, वह उसे राज्य की संपत्ति नहीं मान रही थी। सौभाग्य से, इस दौरान आमने-सामने होने की स्थिति पैदा नहीं हुई क्योंकि केंद्र सरकार ने कर्मचारियों की मांगों को स्वीकार कर लिया और हड़ताल स्थगित कर दी गई।

हड़ताल के कारण पैदा हुए खतरों के कारण पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और केंद्रीय जोनल परिषदें अस्तित्व में आईं। तत्कालीन गृहमंत्री ने इसका उद्देश्य बताते हुए कहा था कि यह कदम इसलिए उठाया गया है ताकि राज्य संसद के सामने मुद्दा उठाने से पहले स्वयं ही आपसी मतभेदों का निपटारा कर लें। जब तक केंद्र और राज्यों में कांग्रेस की सरकारें रहीं, यह व्यवस्था काम करती रही। जब अन्य दल सत्ता में आए तो यह व्यवस्था अप्रासंगिक हो गई। यह प्रयोग अंततः1977 में समाप्त हो गया, जब जनता पार्टी केंद्र के सत्ता में आई। इस सरकार के अनुसार अब जोनल परिषदों की जरूरत अब नहीं हैं क्योंकि सरकार में सभी क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व है। इस प्रकरण के अलावा भी केंद्र- राज्य संबंध कभी भी बहुत मधुर नहीं रहे हैं, खासकर भाजपा के शासन में आने के बाद। यह उन राज्यों पर अपने विचारों को थोपना चाहती है, जहां पर इसकी सरकार नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसकी पैदल वाहिनी है। इसका विपक्ष द्वारा विरोध किया जाता है। यह भाजपा अपनी विचारधारा के अनुरूप नीतियों का गठन करना जारी रखती है तो संघीय ढांचे का संतुलन पूरी तरह से लड़खड़ा सकता है। पार्टी के वरिष्ठ लोगों को इस पर ध्यान देना चाहिए और ऐसे कदम उठाने चाहिए ताकि देश की एकता  मजबूत बनी रहे। लेकिन दुर्भाग्यवश, पांच राज्यों- उत्तर प्रदेश, पंजाब,उत्तराखंड,मणिपुर और गोवा के चुनावों को मद्देनजर रखते हुए भाजपा सत्ता में आने के लिए सभी संभव प्रयास कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह सत्ता के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखते हैं। उनके द्वारा दिए जा रहे चुनाव पूर्व के बयानों से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि पार्टी के दिमाग में क्या चल रहा है।

समाजवार्दी पार्टी में चल रही पारिवारिक उठापटक के कारण भाजपा का उद्देश्य एक हद तक पूरा भी हो रहा है। यद्यपि मुलायम सिंह यादव यह बात कह चुके हैं कि वह पार्टी के मुखिया हैं और वह एकता बनाए रखने के लिए सभी संभव कदम उठाएंगे। सारी उठापटक के पीछे शिवपाल यादव नजर आते हैं। ज्यादातर विधायक अखिलेश यादव के साथ खड़े नजर आते हैं और उन्हें हटाने का कोई कारण नहीं दिखता। हो सकता है यह किसी बड़े बदलाव का संकेत हो, लेकिन इसके कारण पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचा है। अखिलेश का आगे बढ़ना तय है क्योंकि लोगों में उनकी छवि साफ-सुधरे नेता की है, जो सरकार को पारदर्शी तरीके से चलाना चाहते हैं। उनके द्वारा चलाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं के कारण भी उनके पक्ष में हवा है। शायद, इसी कारण कांग्रेस भी भाजपा को सत्ता में आने से रोके रखने के लिए सपा के साथ गठजोड़ करना चाहती है। पंजाब का परिदृश्य भी बहुत अलग नहीं है। अकाली-भाजपा गठबंधन फिर से सत्ता में आ सकता है क्योंकि आम आदमी पार्टी अभी तक किसी पंजाबी चेहरे को सामने लाने में विफल रही है। उत्तराखंड में रावत सरकार के अस्थिर करने के भाजपा के प्रयासों और न्यायालय के आदेश के बाद सरकार बहाली के कारण कांग्रेस की संभावनाएं अच्छी हैं। मणिपुर और गोवा में स्थानीय तत्त्व ही निर्णायक की भूमिका में रहेंगे, लेकिन यहां पर भाजपा के उभार की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि अब कांग्रेस एकमात्र विकल्प नहीं रह गई है। चुनावों के नतीजे चाहे जो भी हों, भाजपा को राज्यों की गतिविधियों पर गिद्ध दृष्टि नहीं डालनी चाहिए। पश्चिम बंगाल में खासतौर पर ऐसा करने से बचा जाना चाहिए, जहां पर भाजपा की स्थिति सबसे कमजोर है। भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच जारी रोज की तू-तू-मैं-मैं के कारण स्थिति और भी अधिक गंभीर हो सकती है। इसके कारण लोग प्रश्न पूछने के अधिकार से वंचित हो जाएंगे और यह अधिकार ही लोकतांत्रिक ढांचें का प्राण है।

 ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com


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