गठबंधन के सहारे अखिलेश

By: Jan 19th, 2017 12:05 am

पीके खुराना

( पीके खुराना लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं )

अखिलेश सत्ता में हैं। पार्टी पर उनका वर्चस्व बन गया है। वह परिपक्व राजनीतिज्ञ की छवि में आ चुके हैं और पार्टी ने उन्हें सफलतापूर्वक विकास के प्रतीक के रूप में पेश किया है जो अपराधियों और बाहुबलियों से घृणा करता है और साफ-सुथरी राजनीति करना चाहता है। कांग्रेस और रालोद के साथ समझौते के कारण छोटी पार्टियों में वोट बंटने का खतरा भी कम हुआ है। लेकिन समाजवादी पार्टी के अंदरूनी झगड़े ने पार्टी को जो नुकसान पहुंचाया है, उसी का परिणाम है कि अखिलेश यादव को गठबंधन की राजनीति का सहारा लेना पड़ रहा है…

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के भीतर का दंगल कुछ समय के लिए रुक गया है। अंततः मुलायम सिंह यादव को समझ आ गया है कि अब वह नायक की भूमिका निभाते नहीं रह सकते, उन्हें चरित्र अभिनेता की भूमिका में आना ही पड़ेगा। उन्होंने अपनी पसंद के 38 उम्मीदवारों की सूची अखिलेश को थमा दी है। उधर अखिलेश भी समझते हैं कि यह चुनाव का समय है, यह समय संवेदनशील होता है। एक छोटी सी गलती भी इतनी भारी पड़ सकती है, जो उन्हें सत्ता के सिंहासन से उठाकर विपक्ष में फेंक सकती है। यूं भी उनके पिता मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक जीवन अब समाप्ति की ओर है, इसलिए वह मुलायम सिंह यादव को उपेक्षित न करने का  ‘फर्ज’ भी साथ-साथ निभा रहे हैं। हालांकि शुरू में मुलायम सिंह ने मुस्लिम समुदाय को अखिलेश के खिलाफ भड़काने की कोशिश की थी, लेकिन उन्हें जल्दी ही यह भी समझ आ गया कि अब उनका राजनीतिक जीवन अखिलेश के बिना चलने वाला नहीं है। इसलिए उन्होंने अपनी मुहिम पर तुरंत ब्रेक भी लगा दी। इस सारे घटनाक्रम में अखिलेश न केवल मजबूत होकर उभरे हैं, बल्कि उन्होंने ‘बबुआ मुख्यमंत्री’ की छवि से भी हमेशा के लिए निजात पा ली है। सपा का अजित सिंह की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय लोकदल और कांग्रेस के साथ गठबंधन अब सिर्फ कुछ समय की बात है। यह लगभग तय है कि यह गठबंधन हो ही जाएगा और तब अखिलेश, राहुल गांधी, अजीत सिंह के बेटे जयंत, प्रियंका गांधी और डिंपल यादव आदि युवाओं की एक पूरी टीम एक मंच से नरेंद्र मोदी और मायावती के विरुद्ध प्रचार अभियान में जुटे होंगे। अब यह भी स्पष्ट है कि अखिलेश का बचपन जिन सगे चाचा शिवपाल यादव और उनकी धर्मपत्नी सरला यादव की गोद में बीता और जो स्कूल-कालेज में अखिलेश के गार्जियन रहे, उन्हें अब अखिलेश का विश्वास दोबारा से प्राप्त करने में काफी समय लगेगा। शिवपाल यादव की जगह उनके चचेरे भाई रामगोपाल यादव अखिलेश के ज्यादा नजदीक हैं और यादव परिवार का गणित कुछ ऐसा बैठा कि अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने के समय से ही रामगोपाल तो अखिलेश के साथ रहे, जबकि शिवपाल यादव अखिलेश के पिता और अपने बड़े भाई के मुलायम सिंह यादव के साथ बने रहे।

वह सदैव मुलायम सिंह यादव के लक्ष्मण सरीखे छोटे भाई और सहायक की भूमिका में ही रहे। इससे उन्हें मुलायम का प्रेम और विश्वास मिला। जब तक पार्टी में मुलायम सिंह यादव की तूती बोलती थी, तब तक शिवपाल यादव ज्यादा शक्तिशाली थे, लेकिन बदले हालात में रामगोपाल यादव की बढ़त के अवसर कहीं ज्यादा हैं। जब परिवार बड़ा हो और परिवार के अधिकांश सदस्य प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से राजनीति में हों तो यह बिलकुल प्राकृतिक है कि खुद परिवार ही राजनीति का अखाड़ा बन जाए और यादव परिवार आज इसी स्थिति का शिकार है। समाजवादी पार्टी के साथ कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल के गठबंधन के बाद उत्तर प्रदेश में तीन मुख्य खिलाड़ी रह जाएंगे। भाजपा, सपा व बसपार्टी की इस तिकोनी लड़ाई में हर दल की अपनी रणनीति है। भाजपा ने पिछले लोकसभा चुनावों में 73 सीटें जीतकर एक रिकार्ड बनाया था, उसके सांसद तो हैं ही, भाजपा नेताओं का प्रभाव और संघ का नेटवर्क, सब मिलकर कार्य कर रहे हैं। वह इस युद्ध में सभी अस्त्रों का प्रयोग कर रही है। भाजपा की समस्या यह है कि वह किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की स्थिति में नहीं है। हरियाणा और महाराष्ट्र में केवल नरेंद्र मोदी के नाम पर भाजपा ने चुनाव जीता था। वह रणनीति न दिल्ली में काम आई, न बिहार में। दिल्ली में भाजपा ने चुनाव के बीच किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया, लेकिन उसकी यह गलती भाजपा पर भारी पड़ी और न केवल वह सिर्फ तीन सीटों पर सिमट गई, बल्कि खुद किरण बेदी भी एक अत्यंत सुरक्षित मानी जाने वाली सीट से हार गईं। दिल्ली और बिहार में उसकी हार का एक बड़ा कारण यह भी था कि उसकी प्रतिद्वंद्वी पार्टियों के पास मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में एक सशक्त चेहरा मौजूद था। उत्तर प्रदेश में भी भाजपा की यही समस्या है। समाजवादी पार्टी के पास अखिलेश हैं और बहुजन समाज पार्टी के पास मायावती, जबकि भाजपा इस सुविधा से वंचित है। इसके अलावा नोटबंदी एक ऐसा मुद्दा है, जिसका असर अभी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है।

इसके असर को लेकर समाज बंटा हुआ है। भाजपा ने इस मुद्दे को देशभक्ति, आतंकवाद, काले धन आदि के साथ जोड़कर लोगों की सहानुभूति पाई थी और कतारों में लगने और कष्ट सहने के बावजूद लोग इस कदम की सराहना करते पाए जाते हैं। दूसरी तरफ व्यापारी और उद्यमी ही नहीं, मजदूरों में भी इस कदम को लेकर रोष है, क्योंकि इससे बड़ी संख्या में मजदूरों के रोजगार छिने। भाजपा के स्थानीय नेता नोटबंदी को लेकर बैकफुट पर हैं और वे अपने मतदाताओं को यह समझाने में लगे हैं कि केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार होने पर विकास तेजी से होगा। भाजपा के विपरीत मायावती की कार्यप्रणाली मीडिया से एक औपचारिक दूरी बनाए रखकर रिश्ते निभाने की है। वेह प्रेस कान्फ्रेंस में भी लिखित बयान पढ़ती हैं और कुछ गिने-चुने सवालों का जवाब देती हैं। टीवी पर भी उनकी पार्टी के कुछ गिने-चुने नेता ही नजर आते हैं। यह मजे की बात है कि बसपा देश का तीसरा सबसे बड़ा राजनीतिक दल है। यही नहीं, लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की आंधी में बसपा अपने उम्मीदवारों को जिता नहीं पाई, तो भी उसका वोट प्रतिशत 20 प्रतिशत पर बरकरार रहा। यह एक महत्त्वपूर्ण वोट बैंक है और इसे सहेजे रखने के लिए मायावती व्यक्तिगत संपर्क पर ज्यादा निर्भर हैं। बसपा अपने कार्यकर्ताओं को ‘बहन जी’ के सभी बयान सुनने को कहती है तथा उनके बयानों की छपी हुई प्रतियां कार्यकर्ताओं को उपलब्ध करवाती है।

इसके अलावा पार्टी सोशल मीडिया पर भी सक्रिय है। मायावती की खासियत यह है कि उनके बयान भी चालीस-पैंतालीस मिनट में पढ़े जा सकने लायक लंबे होते हैं और वह अपने बयानों में मीडिया को संबोधित करने के बजाय वस्तुतः अपने मतदाताओं को संबोधित कर रही होती हैं। उनके बयान और भाव-भंगिमा तीखे होते हैं, जिसके कारण उन्हें मीडिया में जगह मिलती रहती है। बसपा अपने कार्यकर्ताओं को जमीनी स्तर पर जोड़े रखने में विश्वास करती है और मायावती इसमें सफल भी रही हैं। इसका लाभ यह है कि बसपा का मतदाता भले ही चुप रहे, पर मतदान के समय वह अपनी राय व्यक्त करने में नहीं चूकता। अखिलेश सत्ता में हैं। पार्टी पर उनका वर्चस्व बन गया है। वह परिपक्व राजनीतिज्ञ की छवि में आ चुके हैं और पार्टी ने उन्हें सफलतापूर्वक विकास के प्रतीक के रूप में पेश किया है जो अपराधियों और बाहुबलियों से घृणा करता है और साफ-सुथरी राजनीति करना चाहता है। कांग्रेस और रालोद के साथ समझौते के कारण छोटी पार्टियों में वोट बंटने का खतरा भी कम हुआ है और मुलायम सिंह यादव के साथ रहने से उनका मुस्लिम वोट बैंक भी बरकरार है। लेकिन समाजवादी पार्टी के अंदरूनी झगड़े ने पार्टी को जो नुकसान पहुंचाया है उसी का परिणाम है कि अखिलेश यादव को गठबंधन की राजनीति का सहारा लेना पड़ रहा है।

ई-मेल :  features@indiatotal.com


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App