चनौर ठाकुर द्वारा मंदिर

By: Jan 7th, 2017 12:20 am

चनौर ठाकुर द्वारा मंदिरचनौर गांव व्यास नदी के किनारे 3 मील की दूरी पर दक्षिण की ओर माता चिंतपूर्णी तथा माता शीतला जी के उत्तर की तरफ 5 और 6 मील की दूरी पर स्थित है। यहां द्वापर युग में पांडवों के बनवाए हुए तीन मंदिर हैं। पहला मंदिर दुर्गा चंडी जी का है, दूसरा मंदिर श्री लक्ष्मी नारायण जी का है, तीसरा मंदिर श्री रुद्र भगवान जी का है। पहले मंदिर में चंडी दुर्गा जी की और तीसरे मंदिर में रुद्र जी की मूर्ति स्थापना पांडवों ने स्वयं की हुई है तथा इन दोनों मंदिरों के मध्य में छोटा मंदिर है, जिसमें अब श्री लक्ष्मी नारायण की मूर्ति विराजमान है। यह मंदिर उस समय खाली था, परंतु पांडवों ने कहा था कि किसी समय में इस मंदिर में भगवान की मूर्ति विराजमान होगी तथा इस गांव का नाम लक्ष्मी नारायण जी की मूर्ति के विराजमान होने के बाद चनौर पड़ेगा। कांगड़ा के राजा घमंड चंद तथा संसार चंद उस समय के उपस्थित राजा थे। दूसरे राजा रियासत डाडासीबा के थे। पांडवों के कथनानुसार इन्हीं राजाओं के समय चनौर से अंदाजन आधे मील के फासले पर चपलाह नामक स्थान पर हल चलाते-चलाते भूमि में से मूर्ति प्रकट हुई। हल फंस गया और हल चलाने वाले किसान ने हल को पीछे खींचकर बड़ी सावधानी से इसको निकाला। इसकी सूचना राजाओं की दे दी गई। डाडासीबा के राजा ने इस मूर्ति को टिपरी का बाग नामक जगह पर विराजमान करना चाहा। जब उसने इस मूर्ति को सुखपाल पर बैठा कर चार पुरुषों से उठवा कर टिपरी बाग में रख दिया और स्थान निश्चित करने के बाद जब फिर सुखपाल को उठाने लगे तो सुखपाल इतना वजनदार हो गया कि 50 आदमी लगा दिए परंतु उठाया नहीं गया। राजा को स्वप्न हुआ कि मूर्ति को स्नान कराओ। पानी के लिए उन्हांेने खड्ड में छोटा सा गड्ढा किया पर पानी नहीं था। अब कुछ दिन के लिए मूर्ति वहीं रही, क्योंकि मूर्ति बज्र हो गई और दोनों राजाओं की बहस हो गई। कांगड़ा के राजा को स्वप्न में भगवान ने कहा कि मुझे उस मंदिर में विराजमान किया जाए, जो पांडवों द्वारा बना हुआ है और मध्य वाला स्थान असली है। मूर्ति फूल की तरह हल्की हो गई और मूर्ति को जिस रास्ते से वापस लाया गया, उसी रास्ते पर अधिक से अधिक पानी निकलता गया। चंडी दुर्गा जी और रुद्र जी के मध्य खाली मंदिर में मूर्ति को विराजमान कर दिया गया। इन तीनों मंदिरों के कारण ही इसका नाम चनौर पड़ा। दुर्गा चंडी से च शब्द लिया गया। नारायण जी से न शब्द लिया गया। रुद्र जी से र शब्द लिया गया। ज्यों-ज्यों पानी जमीन से निकलता गया उस पानी की कूल को मंदिरों तक लाया गया। उस समय इस मंदिर में पूजा काश्मीरी पंडितों द्वारा की जाती थी। हजारों यज्ञ यहां वर्ष में होते हैं। इसी अनुसार मूर्ति स्थापना के बाद रियासत अंब के राजा 125 मन चावल पके तो उसने घमंड चंद से कहा कि इतना कौन खाएगा इतने लोग आए कि आधे भूखे रह गए, जिससे राजा की बहुत निरादरी हुई। जब वह वापस रियासत को गया तो भगवान का कोप उस पर पड़ गया। हर समय उसे लक्ष्मी नारायण की मूर्ति दिखाई देती और उसे मालूम पड़ता कि मेरे दरबार में इतना घमंड,दूसरी बार वह पच्चीस मन चावल लेकर पैदल चलकर आया और नंगे पांव परिक्रमा की। वही 25 मन चावल हजारों लोग खा कर चले गए। इस प्रकार जो श्रद्धा से एक सेर भी लेकर आता है, उसे पूरी तरह वरकत मिलती है। यह बहुत साक्षात प्रत्यक्ष देव स्थान है।     – राकेश धीमान, रोडी़-कोड़ी


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