चुनावी दौर में मीडिया के प्रश्न

By: Jan 27th, 2017 12:05 am

पीके खुरानापीके खुराना

( पीके खुराना लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं )

चुनाव के समय विज्ञापनों का लालच मीडियाकर्मियों के हाथ बांध देता है और इस सारी प्रक्रिया में उनकी भूमिका अप्रासंगिक हो जाती है। ऐसे में हमारे सामने एक ही उपाय है कि मतदाता के रूप में हम जागरूक हों, दूरदर्शी बनें और चुनाव से जनहित के केंद्रीय मुद्दों को गायब न होने दें। सोशल मीडिया हमारा बड़ा हथियार है, लेकिन उसे सिर्फ हंसी-मजाक का साधन बनने से रोकें और गंभीर मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करें। चुनाव के दौर से गुजर रहे राज्यों में ऐसा एक भी समन्वित प्रयास हो तो वह चुनाव की दशा-दिशा बदल सकता है…

राजनीति अजीब है, नेतागण उस्ताद हैं और जनता अनजान है। चुनावों के समय विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा जारी होने वाले चुनाव घोषणा पत्रों और उन्हीं दलों के नेताओं के बयानों का विश्लेषण करें, तो स्पष्ट हो जाता है कि जनसामान्य में भी मुद्दों को समझ कर उन पर बहस करने के बजाय हम किन मुद्दों को बहस का विषय बन जाने देते हैं। किसी हवा में बह जाना हमारी फितरत हो गई है और राजनीतिक दल व उनके नेतागण इसका लाभ उठाते हैं तथा अदल-बदल कर सत्ता में आते रहते हैं और हम बहाना बना देते हैं कि हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। उससे भी बड़ी समस्या यह है कि हमारा बुद्धिजीवी वर्ग आगे बढ़कर जनसामान्य को शिक्षित करने का कोई सार्थक प्रयत्न नहीं करता और न ही हमारे देश का अधिकांश मीडिया मुद्दों के इस भटकाव को मुद्दा बनाता है। मीडिया सिर्फ नेताओं के बयान प्रकाशित-प्रसारित करके ही अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर लेता है। पंजाब और उत्तर प्रदेश के आगामी चुनावों की बात करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा। आइए, इस पर थोड़ा विस्तार से बात करें। पंजाब में नशा, बेरोजगारी, उद्योगों का पलायन, बिजली की उपलब्धता, शासन-प्रशासन में भ्रष्टाचार आदि बड़े मुद्दे होने चाहिए थे, लेकिन इन मुद्दों के हल्के-फुल्के जिक्र के अलावा इन पर न कोई सार्थक बहस होती है और न ही इन समस्याओं के समाधान का कोई एक्शन प्लान पेश किया जाता है। भाजपा के लिए पंजाब महत्त्वपूर्ण नहीं है इसलिए भाजपा का तो कोई फोकस ही नहीं है, कांग्रेस दोबारा सत्ता में आना चाहती है और कैप्टन अमरेंदर सिंह तथा प्रशांत किशोर विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा जनसंपर्क में व्यस्त हैं, लेकिन पंजाब की समस्याओं को दूर करने का वादा करने और मुफ्त फोन बांटने के अलावा उन्होंने यह बताने का प्रयत्न नहीं किया है कि वे पंजाब की मूल समस्याओं का समाधान कैसे करेंगे। इस विश्वसनीयता के बिना उनके वादे तो ऐसे हैं, जिनसे वफा के आसार नहीं हैं।

बादल अकाली दल, जो एक दशक से सत्ता में है, चौड़ी सड़कों को ही विकास का पर्याय बताने में मशगूल है मानो प्रदेश में बढ़ती नशे की खपत, बेरोजगारी, देशी-विदेशी निवेश के चमकीले समागमों के बावजूद दम तोड़ते उद्योग और शासन में व्याप्त भ्रष्टाचार कोई मुद्दा ही न हो। मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल अब बूढ़े हो चुके हैं। प्रदेश की सत्ता और उनकी पार्टी उनके पुत्र सुखबीर बादल के हाथ में हैं और सुखबीर बादल राजनीति के व्यापार में व्यस्त हैं। सुखबीर एक तिकड़मबाज व्यक्ति हैं और वे मीडिया घरानों को विज्ञापन देने, लगभग हर स्तर के मीडियाकर्मियों को उपहार देने तथा मतदाताओं को खरीदने के टोटकों का सहारा लेने के आदी हैं। उनकी रणनीति में अब भी कोई बड़ा अंतर नहीं आया है। ‘आप’ के मुखिया अरविंद केजरीवाल दिल्ली की चिंता छोड़ अन्य राज्यों में पार्टी के विस्तार के लिए प्रयत्नशील हैं। उनका तरीका इन सब से अलग है। उन्हें कुछ भी दिखाने की आवश्यकता नहीं है। उनके लिए तो इतना ही काफी है कि वह दोनों प्रमुख दलों की कमियां गिनाते रहें, प्रदेश की समस्याओं की बात करें और दोनों दलों पर यह आरोप लगाते रहें कि दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। यह सही है कि वह प्रदेश की समस्याओं का अध्ययन करते हैं, उन पर मनन करते हैं और जोरदार ढंग से उनका जिक्र करते हैं। केजरीवाल भी अब अन्य राजनीतिज्ञों की तरह जनता के अलग-अलग वर्गों को लुभाने, मनभावन वादे करने और जाति आधारित राजनीति करने में माहिर हो गए हैं और उनका हर बयान अथवा भाषण अपने वोट बैंक को ध्यान में रखकर बनता है। पंजाब की वर्तमान स्थिति का विश्लेषण करें तो एक मजेदार तथ्य यह उभर कर आता है कि पंजाब के दोनों प्रमुख दल यानी शिरोमणि अकाली दल और कांग्रेस, केजरीवाल की बांसुरी पर नाच रहे हैं। इस मामले में केजरीवाल कहीं अधिक मंझे हुए नजर आते हैं। कांग्रेस पर अकाली दल से मिले होने का आरोप उन्होंने इतनी बार और इतनी शिद्दत से दोहराया कि कैप्टन अमरेंदर सिंह को मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के चुनाव क्षेत्र लंबी से और कांग्रेस के युवा सांसद रवनीति सिंह बिट्टू को उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल के चुनाव क्षेत्र जलालाबाद से चुनाव लड़ने की नौबत न आती। कांग्रेस का यह कदम उसे मजबूती देने के बजाय हंसी का पात्र अधिक बना रहा है। कैप्टन अमरेंदर सिंह तो पटियाला से चुनाव लड़ ही रहे हैं। उनकी सोच है कि यदि वह लंबी से चुनाव न भी जीते, तो भी विधायक तो बन ही जाएं, ताकि उनके दल के सत्ता में आने की स्थिति में वह मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी से वंचित न हो जाएं। लेकिन बेचारे रवनीत सिंह बिट्टू की स्थिति बड़ी अजीब है।

अकाली दल के विरुद्ध एंटी-इनकंबैंसी की लहर के कारण वह 2014 में उस समय चुनाव जीत गए थे, जब शेष देश में नरेंद्र मोदी की जय-जयकार हो रही थी। अब यदि वह विधानसभा का चुनाव हार जाएं तो सांसद बने रहने की नैतिकता पर सवाल उठेंगे। कांग्रेस न केवल अरविंद केजरीवाल के झांसे में आ गई है, बल्कि उसने अपने दो प्रमुख नेताओं की इज्जत यूं ही दांव पर लगा दी है। उत्तर प्रदेश में भी समाजवादी पार्टी का दंगल किसी हास्य फिल्म से कम नहीं था और इस चक्कर में बहुत से ज्वलंत मुद्दे भी गौण हो गए। यह अत्यंत खेद का विषय है कि हमारे देश की राजनीति में रणनीति तो शामिल है, लेकिन नीति पूरी तरह से गायब है। समस्या यह है कि चुनाव प्रचार के दौरान जब नेतागण जनसंपर्क में व्यस्त होते हैं तो हम मतदाता भी उनसे सवाल पूछने के बजाय अपने ‘काम’ निकलवाने के चक्कर में होते हैं। मतदाताओं के निहित स्वार्थ और अज्ञान ही हमारी समस्याओं का मूल है। हमारा मीडिया भी ऐसी घटनाओं और मुद्दों को उछालने में मशगूल हो जाता है जो प्रासंगिक हों या न हों, पर जो जनता का ध्यान आकर्षित कर सकते हों। चुनाव के समय विज्ञापनों का लालच मीडियाकर्मियों के हाथ बांध देता है और इस सारी प्रक्रिया में उनकी भूमिका अप्रासंगिक हो जाती है। ऐसे में हमारे सामने एक ही उपाय है कि मतदाता के रूप में हम जागरूक हों, दूरदर्शी बनें और चुनाव से जनहित के केंद्रीय मुद्दों को गायब न होने दें। सोशल मीडिया हमारा बड़ा हथियार है, लेकिन उसे सिर्फ हंसी-मजाक का साधन बनने से रोकें और गंभीर मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करें। चुनाव के दौर से गुजर रहे राज्यों में ऐसा एक भी समन्वित प्रयास हो तो वह चुनाव की दशा-दिशा बदल सकता है। अंततः हमें यही करना होगा, इसी में हमारी भलाई है, इसी में देश की भलाई है।

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