नैतिक धरातल से कटती राजनीति

By: Jan 18th, 2017 12:05 am

( डा. लाखा राम लेखक, चंडीगढ़ में लेखापरीक्षक के पद पर कार्यरत हैं )

वर्तमान में नेतृत्व के लिए मानक चारित्रिक व्यवस्था का निर्धारण नहीं है और निर्धारित मानकों में भी तमाम छिद्र हैं। राजनीति में अपराधियों का प्रवेश रोकने के कारगर उपाय नहीं हो सके हैं। कहने को तो राजनीतिक दलों के कुछ सिद्धांत हैं, परंतु व्यावहारिक धरातल पर उनकी हकीकत में पर्याप्त अंतर है। येन-केन प्रकारेण सत्ता हथियाना आदर्श तथा लक्ष्य हो गया है। दलीय सिद्धांत सामूहिक न होकर विशिष्ट व्यक्तियों के कथोपकथन इच्छा की परिक्रमा करने वाला रह गया है…

लोकतंत्र में जनाकांक्षा की प्रधानता होती है, सैद्धांतिक रूप से जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से नीति-नियम का निर्धारण तथा इस व्यवस्था के अंतर्गत नियुक्त कर्मियों द्वारा व्यवस्था का प्रबंधन किया जाता है। जनता समष्टि की अभिव्यक्ति है, लेकिन आज वह जाति, वर्ग, क्षेत्र, संप्रदाय में बंटी हुई दिखाई पड़ती है। इससे जनता और नेताओं में सापेक्ष वृहत्तर हित के चिंतन का अभाव हो रहा है तथा संकीर्णता की भावना बलवती होती जा रही है। स्वतंत्रता के पूर्व देश में संकीर्णता को छोड़कर स्वतंत्रता के व्यापक लक्ष्य के प्रति सभी का समर्पण था। अपनी तमाम विकृतियों के पश्चात भी भारतीय लोकतंत्र की विश्व के सफलतम देशों में गिनती की जाती है, क्योंकि जब भारत में लोकतंत्र स्थापित किया था तो तात्कालिक परिस्थितियां बहुत ही विषम थीं। आज भारतीय लोकतंत्र दिशाहीन प्रतीत हो रहा है। लोकतंत्र का तात्पर्य, जनता का, जनता के लिए तथा जनता द्वारा शासन माना जाता है, लेकिन आज यह धनिकों, बाहुबलियों एवं अपराधियों के चंगुल में फंस चुका है और जनता की स्थिति दास या सेवक सी हो गई है। राजनीतिक दल भी दिशाहीन, विचारधारा रहित प्रतीत हो रहे हैं। आज राजनीतिक दल आमजन को भेड़-बकरियों की तरह हांकने की कोशिश करते हैं, इसके लिए कहीं धर्म, तो कहीं जाति-बिरादरी का, कहीं प्रलोभन, तो कहीं डंडे से भय पैदा किया जा रहा है।

वर्तमान में नेतृत्व के लिए मानक चारित्रिक व्यवस्था का निर्धारण नहीं है तथा निर्धारित मानकों में भी तमाम छिद्र हैं। राजनीति में अपराधियों का प्रवेश रोकने के कारगर उपाय नहीं हो सके हैं। कहने को तो राजनीतिक दलों के कुछ सिद्धांत हैं, परंतु व्यावहारिक धरातल पर उनकी हकीकत में पर्याप्त अंतर है। येन-केन प्रकारेण सत्ता हथियाना आदर्श तथा लक्ष्य हो गया है। दलीय सिद्धांत सामूहिक न होकर विशिष्ट व्यक्तियों के कथोपकथन इच्छा की परिक्रमा करने वाला रह गया है। ऐसी स्थिति में शास्त्रवर्णित गुणों से युक्त नेतृत्व के हाथों में सत्ता की बागडोर सौंपने के लिए मानक नियम निर्धारण तथा उसे कार्यान्वित कराने की आवश्यकता है। भारतीय लोकतंत्र की कल्पना करते हुए महात्मा गांधी, सरदार पटेल आदि राजनेताओं ने कभी नहीं चाहा था कि देश का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथों में चला जाए जो कि सच्चरित्रता, सदाचार, संयम, नैतिकता आदि गुणों के खिलाफ जीवन शैली रखते हों। जब अपराधी प्रवृत्ति के लोग संसद में जाएंगे तो लोकतंत्र और राजनीति निश्चित रूप से प्रभावित होगी। संसद लोकतंत्र का मंदिर है। हम सभी भारतीयों की आस्था और भरोसे का प्रतीक है, लेकिन जबसे गठबंधन की राजनीति शुरू हुई है, तभी से संसदीय प्रक्रिया प्रभावित होनी शुरू हुई और अपराधी प्रवृत्ति के लोगों का महत्त्व और बढ़ता गया। चुनाव क्षेत्र में अपनी आपराधिक प्रवृत्ति व धनबल के आधार पर संसद व विधानमंडल में पहुंचकर जनप्रतिनिधि संसदीय गरिमा को बेच रहे हैं। आज संसद के संचालन में यही घटक गतिरोध ला रहे हैं।

आज राजनीति में जाना एक तरह से व्यावसायीकरण हो गया है। ये सदस्य संसद और विधानमंडल में जाने के पश्चात समाज और देशहित को दरकिनार करके औद्योगिक घरानों का हित साध रहे हैं। साथ ही साथ सत्ता प्राप्त करने की लालसा के लिए झुंड राजनीति करने से भी गुरेज नहीं कर रहे हैं, बल्कि राष्ट्रीय हित की जगह क्षेत्रीयता, जातियता, सांप्रदायिकता तथा अन्य ऐसे तत्त्वों को उठा रहे हैं, जो संसदीय प्रक्रिया में अवरोध पैदा कर रहे हैं। यहां तक कि संसद सदस्यों में आत्मा चेतना की कमी है। अवमूल्यन के इस दौर में किसी भी पार्टी का कोई भी नेता किसी भी दूसरी पार्टी के नेता के विरुद्ध किसी भी स्तर तक जाकर भाषा का प्रयोग कर रहा है। साथ ही अधिकांश सांसद अपनी स्थानीय विकास निधि को भी उचित प्रकार एवं सही समय पर खर्च नहीं करते हैं, जो दर्शाता है कि उनकी अपने क्षेत्र के विकास में कोई दिलचस्पी नहीं है। आजादी के बाद की राजनीति में भौतिक संसाधनों की प्राप्ति के लिए असीमित लोभ के वशीभूत अधिकाधिक धनसंग्रह की प्रवृत्ति का नग्ननृत्य सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहा है। अनैतिक मूल्यों की निंदा अथवा उसे हतोत्साहित करने की प्रवृत्ति नगण्य हो गई है। क्षेत्रीय दलों की जातिवादी राजनीति का जहर अब राष्ट्रीय दलों में भी फैला दिख रहा है। जातिवाद समाजिक सच्चाई है, लेकिन हमारे नेताओं ने उसका राजनीतिक दुरुपयोग करते-करते उसे विघटनवाद के कगार तक पहुंचा दिया है।

आम तौर पर सत्र सत्ता पक्ष एवं विपक्ष के विवाद की भेंट चढ़ जाता है। पिछली यूपीए सरकार में भ्रष्टाचार के कई बड़े मामले, जैसे 2-जी स्पेक्ट्रम स्कैम, कोयला घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला आदि के खुलासे होने के कारण संसद के सत्र बाधित रहे। वर्तमान मोदी सरकार के अढ़ाई वर्ष के कार्यकाल में कोई स्कैम सामने न आने के बावजूद विपक्ष अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वाह न करते हुए संसद की कार्यवाही में बेवजह अवरोध उत्पन्न करते दिखाई दे रहा है। इसकी वजह से कई महत्त्वपूर्ण बिल पारित नहीं हो पा रहे हैं। आज महात्मा गांधी का कथन, ‘संसदीय शासन व्यवस्था में संसद की स्थिति वेश्या और बांझ की है’ चरितार्थ हो रहा है। संसदीय लोकतंत्र की साख को बचाना होगा। अरस्तू ने ठीक कहा था, ‘एक आदर्श राज्य की स्थापना उस राज्य के नागरिकों के चरित्र से हो सकती है।’ आज जरूरी है कि आम जनता की भागीदारी बढ़े और नेताओं का चुनाव ईमानदारी से देशहित के लिए हो। राजनीतिक दलों को भी अपने टिकट बंटवारे से लेकर चुनाव प्रबंधन और प्रचार में ईमानदारी बरतनी चाहिए। अच्छे उम्मीदवारों को टिकट दें, अपनी आंतरिक कार्यप्रणाली में आनुवंशिक आधार न देखें, बल्कि लोकतांत्रिक ढंग से ही चुनाव करें, जिससे संसदीय गरिमा को बचाया जा सके।

वस्तुतः भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के समक्ष कई तरह की नवीन प्रवृत्तियां उभर कर सामने आई हैं। इनमें प्रमुख हैं- क्षेत्रवाद, भाषावाद, संप्रदायवाद, जातिवाद, पर्यावरण संकट, भुखमरी, बेरोजगारी, गरीबी, गठबंधन राजनीति, नौकरशाहों का दलों की तरफ आकर्षण, न्यूनतम साझा कार्यक्रम। गठबंधन की राजनीति परिस्थितियों के गर्भ से उत्पन्न होती है। राजनीतिक गठबंधन बेशक सत्ता सुख सुलभ कराते हैं, लेकिन इसमें शामिल घटक दलों की बार-बार की दोस्ती, धोखाधड़ी एवं सौदेबाजी ही गठबंधन राजनीति की कड़वी सच्चाई बन गई है। यह राष्ट्रीय और राजनीतिक दायित्वों के प्रति गैर जिम्मेदार और गैर जवाबदेह होता है। राष्ट्र हित में बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था की बनती संस्कृति को रोकना होगा और उसकी भूमिका को भी सीमित करना होगा, जिससे केंद्र शक्तिशाली स्थिति में रह सके और क्षेत्रीय पार्टियां अपनी संकीर्ण मांगों के लिए कभी इसे झुका न सकें। महिला आरक्षण विधेयक भी भारतीय राजनीति का ज्वलंत विषय बन गया है। महिलाएं अपने इस अधिकार की प्राप्ति हेतु एकजुट होकर संघर्ष करें, तभी उनके सशक्तिकरण का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।

भारतीय लोकतंत्र को सुदृढ़ एवं सफल बनाने में संसद, न्यायिक प्रक्रिया, सतर्क मीडिया, जागरूक बुद्धिजीवी वर्ग, चुनाव आयोग और संगठित कार्यकारी वर्ग की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। भारतीय राजनीति की दशा पर विचार किया जाए तो राजनीति का अपराधीकरण एवं अपराध का राजनीतिकरण, उत्तरदायित्व का अभाव, धनशक्ति और भुजबल का प्रभुत्व, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद एवं लिंगभेद का कुप्रभाव जैसी त्रुटियां सामने प्रमुख रूप से आती हैं। इनका उपचार गांधीवादी मूल्यों के द्वारा किया जा सकता है।

ई-मेल :  lakharam82@gmail.com


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