बर्फ होता शिमला

By: Jan 15th, 2017 12:05 am

बर्फबारी ने उन तमाम दावों की पोल खोलकर रख दी, जिनमें प्रभावितों को समय पर राहत देने के दावे थे। आलम ऐसा था कि सड़कें बंद हो गईं।  स्वास्थ्य विभाग की व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई। रोगी वाहनों तक की सुविधा लोगों को नहीं मिल सकी। अस्पताल में मरीज बिजली अव्यवस्था के कारण ठिठुरने को मजबूर हुए….

25 सालों के बाद हुए भारी हिमपात ने प्रदेश सरकार के उस आपदा प्रबंधन की धज्जियां उड़ा दीं, जिसके तहत बड़ी से बड़ी आपदा को चुनौती देने का दम भरा गया था। हिमाचल सरकार ही नहीं, नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी भी शिमला में दो बार मॉक ड्रिल कर चुकी है। हैरानी की बात यह है कि हिमाचल बार-बार आने वाली आपदाओं से भी सबक नहीं ले सका है।  वर्ष 2000 में पाराछू झील ने इतना कहर बरपाया था कि मौत ने खुला तांडव किया। एक अरब से भी ज्यादा की संपत्ति  बह गई। रामपुर के नोगली व ब्रो जैसे गांव बुरी तरह तबाह हो चुके थे। सतलुज ने अपने किनारे तबाही की वह दास्तां लिखी, जो आज तक जिंदा है। मगर न तो सरकारों ने न प्रबंधकों ने कोई सबक लिया। यही वजह रही कि 25 वर्ष के बाद हुई बर्फबारी ने तमाम प्रबंधों व मौजूदा व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी।   इस दौरान शिमला व अन्य क्षेत्रों में न बिजली की सहूलियत थी न ही पेयजल की। बर्फबारी के एक हफ्ते बाद भी व्यवस्था पटरी पर नहीं लाई जा सकी। ऊपरी शिमला के चौपाल, रोहड़ू, ठियोग व अन्य क्षेत्र शेष विश्व से कटे रहे। यह उस पर्यटक राज्य का हाल हुआ ,जहां बर्फबारी का मंजर देखने के लिए लाखों सैलानी शिमला व अन्य पर्यटक क्षेत्रों में पहुंचे थे। इसी दौरान 835 से भी ज्यादा बसें प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में फंसी रहीं,  535 से भी ज्यादा सड़कें बंद रहीं तो आईपीएच की 545 से भी ज्यादा स्कीमें प्रभावित हुईं।

एचआरटीसी ने नहीं लिया आइडिया

हिमाचल प्रदेश पथ परिवहन निगम ने अभी तक ऐसी कोई तकनीक या सुविधाओं से लैस बसों के बारे में विचार नहीं किया, जो बर्फबारी में भी लोगों के लिए सहायक बन सके। वैसे मौजूदा तकनीक के तहत ऐसे क्षेत्रों में स्नो स्कूटर या फिर स्थानीय लोग स्लेज गाड़ी का ही प्रयोग करते हैं।  विदेशों में जीपनुमा वाहन चलाने का प्रचलन है, मगर इस बारे में निगम ने कभी नहीं सोचा है।

भूमिगत विद्युत प्रणाली सुधार सकती है दिक्कतें

ताजा बर्फबारी ने फिर से यह सोचने को मजबूर किया है कि शिमला जैसे शहरों के साथ-साथ जनजातीय क्षेत्रों में अंडरग्राउंड विद्युत व्यवस्था क्यों नहीं तैयार कर दी जाती। हालांकि यह खर्चीली है, मगर हर साल करोड़ों का जो खर्च रेस्टोरेशन कार्यों पर किया जाता है, उससे भी बचा जा सकेगा। ऐसा नहीं है कि ऐसी सिफारिशें पूर्व सरकारों के पास न गई हों, मगर उन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया। शिमला प्रदेश की राजधानी है। यहां जो घटता है वह राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित होता है। जनजातीय क्षेत्रों में ही हर साल 20 करोड़ से भी ज्यादा बालन, कच्चा कोयला, मिट्टी का तेल सप्लाई किया जाता है। जानकारों के मुताबिक यदि ऐसे क्षेत्रों में अंडर ग्राउंड व्यवस्था को लेकर नए सिरे से तैयारी की जाए, तो बड़ी से बड़ी आपदा विद्युत आपूर्ति को बाधित नहीं कर पाएगी। हालांकि कुछ समय पहले शिमला में सिंगल केबल के जरिए बिजली की तारों के मकड़जाल को कम करने का प्रयास किया गया था, मगर इसके लिए वित्तीय सहायता पर्याप्त न मिल पाने के कारण यह प्रोजेक्ट ठप कर दिया गया।  शिमला के लोअर बाजार में इसे पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर चलाया गया था। यही नहीं 33 किलोवाट लाइनों को बिछाने से पहले क्या सर्वे सटीक होते हैं, इस पर भी अब सवाल उठने लगे हैं। क्योंकि ये उन क्षेत्रों में बिछी हैं, जहां या तो अत्यधिक पेड़ हैं या वे इलाके संवेदनशील माने जाते हैं। जानकारों का यह भी कहना है कि संवेदनशील इलाकों में वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों की तरफ भी ध्यान देने की आवश्यकता है । सौर ऊर्जा इसकी एक मिसाल हो सकती है।

1300 पद खाली

शिमला के लिए काफी पुराना स्नो मैनुअल बना है। जानकारों के मुताबिक बर्फबारी  से पहले इसमें इस बात का जिक्र है कि संवेदनशील इलाकों में जो पेड़ खतरनाक है, उन्हें या तो काटा जाए या उनकी काट-छांट की जाए। इसी के तहत प्री-मेंटेनेंस काम भी होता है। मगर हैरानी की बात है कि बोर्ड इस बाबत वन विभाग पर तोहमत लगाता है और वन विभाग चुप्पी साधे बैठता है।   इसके अलावा बिजली बोर्ड में 1300 पद खाली हैं, जिन्हें भरने के लिए अब सरकार ने मंजूरी दी है।

सभी महकमें समन्वय बिठाकर कार्य करते रहें, बर्फबारी व बरसात से पहले सामूहिक तौर पर कार्य करें, तो दिक्कतें नहीं आएंगी। आपदा प्रबंधन के लिए छोटे से छोटे स्तर की यूनिट के लिए भी गंभीरता आवश्यक है

आरके सूद विशेषज्ञ, आपदा प्रबंध

शिमला व जनजातीय क्षेत्रों में अंडर ग्राउंड विद्युत व्यवस्था स्थापित की जा सकती है, मगर यह काफी खर्चीली होगी। शिमला अव्यवस्थित तरीके से फैल चुका है। जगह-जगह अतिक्रमण है। ऐसे में अब इस व्यवस्था को लागू करना काफी मुश्किल होगा। सही यही रहेगा कि सभी महकमें समन्वय बिठाकर कार्य करें

अरुण कुमार शर्मा पूर्व सदस्य बिजली बोर्ड

स्नो मैनुअल का पूरा ध्यान रखा जाता है। बोर्ड में बर्फबारी से पहले ही पर्याप्त संख्या में कर्मचारियों व आवश्यक लोगों को काम पर लगाया गया। व्यवस्था मजबूत बनाने के लिए सरकार हर संभव कदम उठा रही है 

पीसी नेगी एमडी,राज्य विद्युत बोर्ड

पीडब्ल्यूडी के छूटे पसीने

हिमाचल में भारी बर्फबारी ने अबकी बार लोक निर्माण विभाग की तैयारियों को पोल खोल कर रख दी। भारी बर्फबारी से शिमला जिला में सड़कें बंद हो गईं और इनसे निपटने के  लिए विभाग के प्रयास अपर्याप्त दिखे। हालात ये थे कि राजधानी में भी कई दिनों तक यातायात बहाल नहीं हो पाया। जमी बर्फ पर डालने के लिए  रेत और बजरी तक विभाग के पास नहीं थी। प्रदेश में छह जनवरी को भारी बर्फबारी  हुई और एक साथ  हिमाचल में 535 सड़कें बंद हो गईं। इसके बाद भी बर्फबारी हुई और बंद सड़कों का आंकड़ा 607 तक पहुंच गया।  बर्फ गिरने के बाद चार दिन तक यातायात एक तरह से ठप रहा।  जिला प्रशासन  और लोक निर्माण विभाग में आपसी तालमेल की भी भारी कमी दिखी। बर्फबारी से निपटने के लिए स्नो मैनुअल, जो कि अंग्रेजों के वक्त का बनाया गया है उसका भी फालो नहीं किया गया।  एक तो विभाग ने पहले ही तैयारियां पूरी नहीं की और वहीं बाद में भी उसकी लेटलतीफी साफ दिखी। शिमला शहर के कार्ट रोड पर ही कई दिनों तक बर्फ टिकी  रही क्योंकि इसके लिए विभाग ने पर्याप्त मशीनें ही नहीं लगाई थी। वहीं बाद में सड़कें तो खोली दी गईं,लेकिन वे बर्फ जमने से फिसलन वाली हो गईं।  कायदे से सर्दियां शुरू होने से पहले सड़कों के किनारे रेत और बजरी डाली जानी थी, ताकि बर्फ जमने पर इसे सड़कों पर डाला जा सके और यातायात सुचारू किया जा सके, लेकिन शहर में किसी भी सड़क पर रेत के ढेर नहीं थे वहीं जब एकाएक बर्फ गिरी तो लोक निर्माण विभाग के अधिकारियों की सांसे फूल गईं।

मशीनरी की कमी

लोक निर्माण विभाग के पास बर्फबारी से निपटने के लिए पर्याप्त स्नो कटर और डोजर नहीं हैं । बर्फ हटाने के लिए कुल 211 जेसीबी लगाई थी, जिसमें से 124 किराए पर ली गई थी। विभाग ने बर्फ हटाने के लिए 30 डोजर, 10 स्नो कटर और 13 अन्य मशीनें लगाईं ।

ढर्रे पर चल रही पेयजल व्यवस्था

अंडर ग्राउंड वाटर सप्लाई सिस्टम नहीं 

राजधानी शिमला में पेयजल की व्यवस्था ढर्रे पर चल रही है। हर साल यहां पर  गंदे पानी से बीमारियां फैलती हैं, हर साल यहां बर्फबारी के बाद लाइनें टूटती और जाम हो जाती हैं परंतु बाबा आदम के जमाने से चले आ रहे सिस्टम को बदलने के लिए आज तक किसी ने नहीं सोचा। शिमला से आगे पेयजल की आपूर्ति का ढांचा वही वर्षों पुराना है, जिसे बदलना बेहद जरूरी है। बर्फबारी के दौरान यहां पर पानी की आपूर्ति नहीं हो पाती है क्योंकि लाइनें टूट जाती हैं और जाम हो जाती हैं। यदि यह पूरी व्यवस्था अंडर ग्राउंड हो तो शायद राजधानी के लोग बर्फबारी के बावजूद पानी के लिए तरसते न रहें। अभी तक ऐसा कोई नया सिस्टम अपनाने के लिए आईपीएच विभाग ने कोई कार्य योजना नहीं बनाई है, लेकिन शायद आने वाले समय में यहां की कठिनाइयों को देखते हुए विभाग इस पर कसरत करे।   यहां पर सालों पहले से बिछी पाइप लाइन से ही काम चलाया जा रहा है। यहां पर पेयजल आपूर्ति के लिए एक बड़ी बाधा तब उत्पन्न हो जाती है, जब बिजली नहीं होती। गिरि और गुम्मा, जो कि शहर के मुख्य स्रोत हैं, की बिजली सप्लाई साल में कई दफा बाधित होती है, जिससे पानी की पंपिंग नहीं हो पाती है। पहले तो सरकार को इस व्यवस्था को सुदृढ़ करके वहां जेनरेटर आदि की बेहतर व्यवस्था करनी होगी, जिसके बाद ही यहां पेयजल की निरंतर आपूर्ति हो सकती है।

सीवरेज एंड वाटर सर्किल से पहल

शहर में बेहतरीन व सुचारू पेयजल व्यवस्था को कायम करने के लिए सरकार ने हाल ही में ग्रेटर शिमला सीवरेज एंड वाटर सर्किल का गठन किया है। इसमें अलग से अधिकारी व कर्मचारी लगाए गए हैं, जो कि आने वाले समय के लिए योजनाएं बनाएंगे। कोल डैम परियोजना के सिरे चढ़ने के बाद उम्मीद है कि शहर में वाटर सिस्टम में बदलाव के लिए कोई प्रोजेक्ट बनाया जा सके। फिलहाल  काम पुराने ढर्रे पर ही चल रहा है।

नहीं बनी विलेज डिजास्टर मैनेजमेंट कमेटी

हिमाचल में आपदा प्रबंधन के सुर ब्यास त्रासदी के बाद जगे थे।  आपदा प्रबंधन से जुड़े विशेषज्ञों ने उस विलेज डिजास्टर मैनेजमेंट कमेटी को गठित करने का फैसला लिया था, जिसकी परिकल्पना उन्होंने ही कुछ वर्ष पहले की थी। मगर किन्हीं कारणों से यह सिरे नहीं चढ़ पाई थी।  पिछले वर्ष किन्नौर के पूह से इस विलेज मॉडल की शुरुआत की गई। जिला स्तर पर उपायुक्त की अध्यक्षता में गठित जिला आपदा प्रबंधन कमेटियों के अंतर्गत यह कार्य करेगी।इस तरह की कमेटियों को गठित करने की यह मुहिम किन्नौर के पूह से शुरू तो की गई थी,मगर अन्य जिलों में यह साकार रूप नहीं ले सकी।

कहां गया विभागीय समन्वय

अभी तक की जाती रही मॉक ड्रिल्स के दौरान जो निचोड़ निकला था, उसमें अंतर विभागीय समन्वय नहीं था। आला अधिकारियों ने इसे जल्द दूर करने के दावे किए थे। मगर सीजन की पहली बड़ी बर्फबारी ने पूरे दावों  को नेस्तनाबूद कर दिया।

138 से ज्यादा पेड़ धराशायी

अकेले शिमला शहर में ही 138 से भी ज्यादा पेड़ या तो गिरे हैं या टूट चुके हैं। जानकारों के मुताबिक स्नो मैनुअल के तहत यदि संवेदनशील क्षेत्रों में खड़े पेड़ों की काट-छांट की जाती तो इतनी बड़ी संख्या में पेड़ों को गिरने से बचाया भी जा सकता था।

कैसे पहुंचते मरीज

25 साल बाद हुई भारी बर्फबारी के कारण सड़क व्यवस्था पूरी तरह से अवरुद्ध रही। ऊपरी शिमला व किन्नौर शेष राज्य से कटे रहे। संपर्क सड़कें तक बदहाली का शिकार बनीं। सोचिए उन मरीजों का व उनके परिजनों का, जो गंभीर बीमारी के बावजूद अस्पतालों तक नहीं पहुंच पाते क्योंकि 108 एंबुलेंस का बड़ा फ्लीट और सामान्य रोगी वाहन तक सड़कों पर नहीं चल सके।

गनीमत, बड़ा भूकंप नहीं…

हिमालयीय क्षेत्र को भूकंप का स्ट्रींग बोर्ड कहा जाता है। गनीमत यह रही कि हिमाचल में ऐसी कोई बड़ी भू-गर्भीय हलचल पेश नहीं आई। वरना पोल कुछ इसी तरह खुलते जैसे बर्फबारी ने खोलकर रख दिए हैं।

शिमला के कृष्ण चंद का कहना है कि शिमला कंकरीट के जंगल में तबदील हो गया है।  शहर में सड़कों का जाल बिछ गया है। अंग्रेजों के समय शिमला में सड़कें गिनती की थी। उस समय कर्मचारियों द्वारा ही बर्फ हटाई जाती थीं। आज उक्त कार्य कर्मचारी व मशीनों के माध्यम से किया जाता है। इसके बावजूद जनता को मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं, जिसके लिए सरकार व प्रशासन की नाकामियां जिम्मेदार हैं। समय रहते तैयारियां की जाएं,तो परेशानी नहीं होगी।

संतोष ठाकुर का कहना है कि प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए मशीनरी का प्रयोग किया जाता है। इसके बावजूद  जनता को  दिक्कतें झेलनी पड़ती हैं। इसके लिए सरकार व प्रशासन जिम्मेदार है।  सरकार व प्रशासन तब जागता है, जब प्राकृतिक आपदा अपना कहर बरपा चुकी होती है। पहले तैयारी हो तो परेशानी से बचा जा सकता है।

सुभाष वर्मा का कहना है कि आज के समय में प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए मशीनरी प्रयोग हो रही है। अंग्रेजों के जमाने में मैनुअल कार्य होता था। मगर इसके बावजूद हर वर्ष प्राकृतिक आपदा कहर बरपाती है। जिसके लिए प्रशासन जिम्मेदार है। अगर सरकार व प्रशासन आपदा से पहले ही तैयारी कर लें तो समय रहते अव्यवस्था पर काबू पाया जा सकता है

प्रताप चंद का कहना है कि अंग्रेजों के जमाने में सारा कार्य मैनुअल होता था। हालांकि उस समय शहर में आबादी कम थी। मगर अंग्रेज पहले से ही तैयारी शुरू कर देते थे। शहर के साथ लगते पेड़ों की बर्फबारी से पहले ही लोपिग की जाती थी। मगर अब प्रशासन उस समय जागता है, जब प्राकृतिक आपदा कहर बरपा चुकी होती है।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App