विकास और हिंदी का युग्म

By: Jan 23rd, 2017 12:05 am

भारत की सभ्यता और संस्कृति सामंजस्य पर आधारित रही है। इस भावना के मूल में हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में सुरक्षित और सर्वमान्य होना चाहिए। जब दुनिया के विकसित देश जापान, रूस, चीन, फ्रांस आदि आर्थिक सामाजिक उन्नति के सोपान अपनी राष्ट्रभाषा के सहयोग से गढ़ सकते हैं, तब भारत भी अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी के माध्यम से आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्तरों पर विश्व में कीर्तिमान गढ़ सकता हैं…

सभी भारतीय भाषाएं मिलकर भारतीय संस्कृति परंपरा को बनाए रखने में पूर्णता प्रदान करती हैं। हिंदी एक ऐसी भाषा है, जो शताब्दियों से उत्तरी भारत के जनसाधारण की भाषा रही है। प्रकारांतर से दक्षिणी भारत में भी किसी न किसी रूप में उसका अस्तित्व रहा है। इससे वह समस्त भारतीय जनमानस को अभिव्यक्त करने का एक सशक्त और व्यापक साधन रही है। विश्व की भाषाओं में भी इसका तीसरा स्थान है। संसार भर में सर्वाधिक व्यक्तियों द्वारा चीनी भाषा बोली जाती है उसके बाद अंग्रेजी और फिर हिंदी आती है। हिंदी हमारी संस्कृति का प्राण तत्त्व है। यह हमारी सभी भाषाओं के बीच एक अदृश्य सेतु का काम करती है। यह अन्य भारतीय भाषाओं की तरह किसी प्रांत विशेष की भाषा नहीं है अपितु यह भारत के अधिकांश प्रांतों की भाषा है। भारत से बाहर फिजी द्वीप समूह, मारीशस, त्रिनिदाद, नेपाल, पाकिस्तान तथा बांग्लादेश में भी लोग इसे समझते और बोलते हैं।

19 वीं शताब्दी में जब ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ  राष्ट्रीय आंदोलन उठ खड़ा हुआ, तब भारतीय नेताओं ने एक ऐसी सार्वदेशिक भाषा की आवश्यकता महसूस की जिससे जन सामान्य तक इस आंदोलन को पहुंचाया जा सके और वह हिंदी थी। हिंदी भारत की सांस्कृतिक विरासत से जुड़ी हुई भाषा है। हजारों वर्षों से हिंदी भाषा के विकास में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश आदि के अतरिक्त अंग्रेजी, अरबी ,पुर्तगाली ,फारसी आदि विदेशी भाषाओं के शब्दों का भी योगदान रहा है। भारत का अधिकांश जनसमुदाय वर्ग इसे लिख व समझ सकता है। हिंदी भाषा लगभग 1100 वर्षों से अधिक देश के विशाल एवं विस्तृत क्षेत्रों में लिखी और बोली जाती रही है। सरलता, सहजता और वैज्ञानिकता की दृष्टि से हिंदी को विश्व की श्रेष्ठतम भाषाओं में से एक माना जाता है। कट्टरपंथी भाषायी आंदोलनों के बावजूद भारत में हिंदी का खूब प्रचार प्रसार हुआ है। राजाराम मोहनराय ने आधुनिक शिक्षा व्यवस्था के समर्थक होते हुए भी देश की एकता के लिए हिंदी के पठन-पाठन को आवश्यक माना तथा 1826 में बंगदूत नामक समाचार पत्र हिंदी में निकाला। आर्य समाज के संस्थापक ऋषि दयानंद सरस्वती गुजराती थे, लेकिन अपने भाषण हिंदी में दिए और अपना प्रसिद्ध ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में प्रकाशित कराया।  विदेशी विद्वानों ने भी इसकी सेवा की। अहिंदी भाषी प्रांतों के साहित्यकारों, विचारकों, लेखकों ने भी अनेक हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से राष्ट्रभाषा हिंदी का संवर्द्धन किया।

 हिंदी अपने भौगोलिक विस्तार तथा एशिया की प्रमुख तीन-चार भाषाओं में से एक होने के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तो आ चुकी है, किंतु पूरी तरह स्थापित हो नहीं पाई है, क्योकि भारत के ही हिंदी भाषा-भाषी लोग अंग्रेजी का मोह नहीं त्याग पा रहे हैं। विदेशों में मारीशस के लोगों ने भी अपनी आजादी की लड़ाई हिंदी भाषा के सहारे लड़ी और अपनी अस्मिता की स्थापना के लिए हिंदी भाषा के माध्यम से प्रयास किया। मारीशस में ही नहीं फिजी में भी ऐसा ही हुआ है। हिंदी इस समय जापान, कोरिया, चीन, सोवियत संघ, इंग्लैंड, रोमानिया, इटली, जर्मनी,फ्रांस, कनाडा, अमरीका, मैक्सिको आदि अनेक देशों में पढ़ी तथा पढ़ाई जा रही है तथा इनमें से कई देशों में हिंदी भाषा और साहित्य पर शोध कार्य भी हो रहे हैं।

अनुच्छेद 345 की पृष्ठभूमि में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली(संघ शासित) राज्यों की राजभाषा हिंदी घोषित कर दी गयी। गुजरात विधान मंडल ने हिंदी और गुजराती को राजभाषा घोषित किया। यहां के कर्मचारियों के लिए हिंदी सीखना अनिवार्य किया गया। अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम तथा मेघालय प्रदेश में अभी तक किसी भाषा को राजभाषा का दर्जा प्राप्त नहीं है। परंतु सरकारी काम-काज में अंग्रेजी भाषा का प्रयोग हो रहा है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान के उच्च न्यायालयों में हिंदी में भी निर्णय दिए जाने और सभी प्रकार के शासकीय प्रलेख दाखिल किए जाने की पूर्व स्वतंत्रता उपलब्ध है, भारत सरकार यह चाहती है कि हिंदीतर अर्थात अहिंदी भाषा राज्यों में प्रशानिक स्तर पर हिंदी का अधिकाधिक प्रयोग हो, परंतु इन राज्यों की सरकारों द्वारा यथेष्ट सहयोग नहीं मिल पा रहा है इसलिए अनेक योजनाएं निष्फल हो गई हैं। अर्थात उनकी सफलता की जितनी उम्मीद की जानी थी, उतनी सफल नहीं हो पाई हैं। विडंबना यह कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राजनेताओं की जो नई पीढ़ी तैयार हुई उसमें देश प्रेम, भारतीय जातीयता की निष्ठा,सांस्कृतिक अनुराग एवं अपनी परंपराओं और अतीत के वैभव पर गर्व करने का भाव नहीं विकसित हुआ। फिर भी अहिंदी भाषी राज्यों में हिंदी  का प्रसार प्रशासनिक और दैनिक व्यवहार के क्षेत्र में उत्तरोत्तर बढ़ रहा है, भले ही उसकी गति कच्छप है।

आज आजादी के 69 वर्षों बाद भी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के प्रस्ताव पर भारतीय संसद में हमारे नेता अपने एक क्षेत्रीय भाषायी कोने में सिमट जाते हैं, एक स्वर में समर्थन नहीं करते। परिणामस्वरूप हमारे देश का कोई एक नाम व एक राष्ट्रभाषा नहीं है, जिससे देश मे एक सूत्रता स्थापित करने का प्रयत्न असफल रहता है। भारत की सभ्यता और संस्कृति सामंजस्य पर आधारित रही है। इस भावना के मूल में हिंदी का राष्ट्रभाषा के रूप में सुरक्षित और सर्वमान्य होना चाहिए। जब दुनिया के विकसित देश जापान, रूस, चीन, फ्रांस आदि आर्थिक सामाजिक उन्नति के सोपान अपनी राष्ट्रभाषा के सहयोग से गढ़ सकते हैं, तब भारत भी अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी के माध्यम से आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्तरों पर विश्व में कीर्तिमान गढ़ सकता हैं।

— बुद्ध प्रकाश  द्वारा इंजी.महेन्द्र कुमार, प्लाट न.-8, पिंकसिटी सेक्टर-6,जानकीपुरम विस्तार, लखनऊ


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App