विनोद-परिहास के आदिम प्रसंग

By: Jan 30th, 2017 12:05 am

‘कुमारसंभव’ में कालिदास ने अपने आराध्य शिव को ही हास्य का आलंबन बनाया है। ब्रह्मचारी बटु शिव को पति रूप में पाने के लिए तपस्या करने वाली पार्वती का मजाक उड़ाते हुए कहता है-हे पार्वती! जरा सोचो तो कि गजराज पर बैठने योग्य तुम जब भोले बाबा के साथ बूढ़े बैल की सवारी करोगी तो समझदार लोग तुम्हारी इस नासमझी पर अपनी हंसी कैसे रोक पाएंगे…

‘विनोद’ हास्य का शिष्ट, संयत और संस्कृत रूप है। जिससे विनोद किया जाता है, वह भी प्रसन्न हो जाता है। इसमें हंसने-हंसाने का हल्का फुल्का भाव होता है, सहजता और स्पष्टता होती है। इसके विपरीत ‘परिहास’ में हंसी उड़ाने या सामने वाले की किसी कमजोर नस को पकड़कर व्यंग्य करने का उद्देश्य होता है। इसमें गूढ़ता होती है और इसका लक्ष्य (निशाना) बनाए जाने वाला व्यक्ति खुश नहीं होता, उल्टे अपनी चोरी या कमजोरी पकड़ लिए जाने के कारण खीझ उठता है या व्यंग्य (आक्षेप) अधिक बेधक हुआ तो तिलमिला जाता है। अतः उसके हंसने का प्रश्न ही नहीं उठता। हां, दूसरे भले ही उस पर हंसते रहें। इस तरह वह हास्य-रस का आलंबन बन जाता है। दूसरों का मजाक उड़ाना ‘उपहास’ भी कहलाता है। ‘पंचमुख’ और दिगंबर शिव-विषयक श्लोकों में भक्त के मन का विनोद-भाव है, जिसे काव्य की भाषा में ‘ब्याज स्तुति’ (जो सुनने में तो निंदा जैसी लगती है, किंतु होती है स्तुति) कहा जाता है।

महाकवि कालिदास विनोद के अप्रतिम कवि हैं। अपने काव्य में, उन्हें जहां-जहां अवसर मिला है, उन्होंने अपनी विनोदप्रियता का परिचय दिया है। ‘कुमारसंभव’ में कालिदास ने अपने आराध्य शिव को ही हास्य का आलंबन बनाया है। ब्रह्मचारी बटु शिव को पति रूप में पाने के लिए तपस्या करने वाली पार्वती का मजाक उड़ाते हुए कहता है-हे पार्वती! जरा सोचो तो कि गजराज पर बैठने योग्य तुम जब भोले बाबा के साथ बूढ़े बैल की सवारी करोगी तो समझदार लोग तुम्हारी इस नासमझी पर अपनी हंसी कैसे रोक पाएंगे-

इयं चतेऽन्या पुरतो विडंबना यदूढया वारणराज हार्यया।।

विलोक्य वृद्धोक्षमधिष्ठितं त्वया महाजनो स्मेरमुखो भविष्यति।।

भोली पार्वती, वर में तीन बातें देखी जाती हैं-रूप, कुल और धन। तुम्हारे शंकर के पास इनमें से एकाध चीज हो तो बताओ। तीन भयानक नेत्रों वाला रूप है उसका, जिसके मां-बाप का भी पता न हो, उसके कुल (खानदान) के विषय में भला क्या कहा जाए? और धनी तो वह इतना है कि बेचारा अपना तन तक ढंकने के लिए कपड़े भी नहीं जुटा पाता-

वपुर्विरूपाक्षमलक्ष्य जन्मता दिगम्बरत्वेन निवेदितं वसु।

वरेषु यद् बालमृगाक्षि मृग्यते तदस्ति किं! वयस्तमपि त्रिलोचने?

बाबा तुलसी ने ‘मानस’ में भोलेनाथ को मनोरंजक वर के रूप में प्रस्तुत किया है-जटा मुकुट अहिमौर संवारा,कुंडल कंकन पहिरे व्याला,  तन विभूति पट केहरि छाला।

ससि ललाट सुंदर सिर गंगा,

नयन तीन उपवीत भुजंगा

गरल कंठ उन नरसिर माला, असिव वेष सिव धाम कृपाला। कर त्रिसूल अरू डमरू विराजा, चले बसहं चढि़ बाजहिं बाजा

ऐसे अद्भुत वर को देखकर देव-पत्नियों का मुस्कराना स्वभाविक ही था-

देखि सिवहिं सुर तिय मुसुकाहीं,

वर लायक दुलहिन जग नाहीं।

अब विष्णु जी की विनोदभरी प्रतिक्रिया देखिए-

विषनु कहा अस विहसि तब बोलि सकल दिसि राज

विलग-विलग होइ चलहु बस, निज निज सहित समाज।

वर अनुहारि बरात न भाई। हंसी करैहहु परपुर जाई।

विषनु वचन सुनि सुर मुसुकाने, निज-निज सेन सहित बिलगाने। विष्णु के परिहास में महेश के मन को भी गुदगुदा दिया-मन ही मन महेस मुसुकाहीं! और उन्होंने अपने विभिन्न रूपधारी गणों को इकट्ठा कर लिया, जस दूलह तस बनी बरात! और रास्ते पर तमाशे और हंसी-ठट्ठे होते रहे-कौतुक विविध होहिं मग जाता।

कविवर पद्माकर ने तो नंगा (शिव) के विवाह को ‘हास का दंगा’ बना डाला है-

हंसि-हंसि भौजें देखि दूलह दिगंबर को,पाहुनी जो आवैं हिमाचल के उछाह में ।

 कहै पद्माकर सु,काहू सौं कहै को कहा,जोई जहां देखे हंसोई तहां राह में।।

मगन भयेऊ हंसै नगर महेश ठाढ़े

और हंसे पेऊ हंसि कै उमाह में।

सीस पर गंगा हंसै, भुजनि भुजंगा हंसै,हासू हू को दंगा भयो नंगा के विवाह में।

तुलसी की ‘विनय पत्रिका’ में सृष्टि रचयिता ब्रह्मा द्वारा भगवती पार्वती के समक्ष अवढरदानी भोलेनाथ के विरुद्ध पेश किया गया यह शिकायती पत्र ही हास्य-व्यंग्य का अनूठा नमूना है, जिसमें उनकी लिखी भाग्य लिपि को उलटने-पलटने वाले शिव से तंग आकर वे अपने पद से त्यागपत्र देकर भीख मांगकर गुजारा करने के लिए तैयार हो जाते हैं-

बावरो रावरो नाह भवानी!

दानी बड़ो दिन देत दए बिनु वेद बड़ाई भानी।

विश्वमोहिनी की सुंदरता पर रीझे नारद ने उससे विवाह करने के लिए हरि (विष्णु) से उनका रूप मांगा था। हरि ने शब्द-श्लेष का लाभ उठाते हुए उन्हें दिया तो ‘हरि’ का ही रूप, किंतु अपना नहीं, बंदर का-‘मर्कट बदन भयंकर देही’ बेचारी विश्वमोहिनी ऐसे रूपवान वर का भला क्या करती-

जेहि दिसि बैठे नारद फूली,

सो दिसि तेहि न बिलोकी भूली।

-डा.दादूराम शर्मा  महाराज बाग भैरोगंज, शिवनी, मध्यप्रदेश


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