शाइनिंग हिमाचल के पार्टनर

By: Jan 18th, 2017 12:01 am

हिमाचल के अनेक पक्ष बर्फ से भी ज्यादा उज्ज्वल हैं, लेकिन क्या इन उपलब्धियों के सहयोगी कभी चिन्हित हुए। क्या सरकारों ने कभी शाइनिंग हिमाचल की गरिमा में पार्टनर को पहचानने की कोशिश की। तरक्की के ढोल-नगाड़ों के बीच एक ऐसा हिमाचल है, जो खामोशी से अपने राज्य के प्रति मेहनत करता हुआ इसके भविष्य को चमका रहा है। बेशक हिमाचल आज जिस स्थिति में है, उसकी सबसे बड़ी वजह सुशासन की लंबी परिपाटी है और राजनीतिक नेतृत्व की साख भी जुड़ी है, फिर भी कुछ कतारें ऐसी हमेशा रही हैं, जहां नागरिक योगदान तथा निजी क्षेत्र का सहयोग रहा है। अगर देश के उच्च, सैन्य सेवाओं के श्रेष्ठ, चिकित्सा के दक्ष और शिक्षा के महत्त्वपूर्ण पदों तक हिमाचली पहुंचे, तो यह माहौल की उन्नत राहों के अलावा निजी परिश्रम की दिशा भी रही। प्रदेश को सरकारी आधार पर विकसित करने की एक जरूरत हमेशा रहेगी, लेकिन भविष्य के संकल्प में हिमाचली कंधे अब निजी उपलब्धियों के जोश से भी उभरे हैं। ऐसे में यह पूरी तरह सही नहीं होगा कि हिमाचल के सपने केवल सरकारी संस्थानों या इनकी बेहतरी तक ही सीमित रहें। जिस दिन सरकारी कक्ष में निजी क्षेत्र को सम्मान मिलेगा, हिमाचल का क्षितिज और नजदीक होगा। सर्वप्रथम एक ऐसे राजनीतिक मतैक्य की आवश्यकता है, ताकि हिमाचली फिजाओं में हिमाचली नीयत पर शक की गुंजाइश कम करने के लिए नीतिगत फैसलों की अहमियत स्थायी तौर पर बढ़े। कम से कम यह तो समझा जाए कि राज्य की अधोसंरचना में निजी तरीके कितना और कहां तक सहयोग कर सकते हैं। किसी राजनीतिक दल के कार्यकर्ता से कहीं अधिक अगर गांव के दुकानदार, दस्तकार या व्यवसायी का सम्मान होगा तो निजी क्षेत्र का योगदान सामुदायिक जिम्मेदारी को भी सशक्त करेगा। अगर हिमाचल चंद सालों में उपभोक्ता मामलों में अपनी श्रेष्ठता दिखा रहा है, तो बाजार के निजी प्रयासों की बुलंदी का असर देखना होगा। हिमाचली बाजारों तक पहुंचे ब्रांड और ऑटो सेक्टर के घूमते पहियों की मंजिल बना यह प्रदेश, निजी क्षेत्र की शक्ति और उपभोक्ताओं की क्षमता का बड़ा होता नजारा देख रहा है। इसी बीच पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के उद्घोष भी हुए, लेकिन निवेश के आगे प्रदेश की बाड़बंदी अभी सलामत है। इसीलिए हम आज तक बीबीएन में प्रदेश की आर्थिक राजधानी का स्वरूप कायम नहीं कर सके। चंडीगढ़ के साथ होने का फायदा जिस कद्र पंचकूला या मोहाली ने उठाया, क्या उससे आगे निकलने का सामर्थ्य हमें औद्योगिक पैकेज ने नहीं दिया। क्या हिमाचल को चंडीगढ़ मेट्रो परियोजना या मोहाली अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे में पार्टनर बनकर बीबीएन की सूरत में एक उदीयमान प्रदेश का नक्शा नहीं बनाना चाहिए था। क्या हिमाचल ने आज तक प्रतियोगी तटस्थता के अनुरूप खुद को निजी निवेश का संरक्षक साबित किया या प्रदेश के भीतर आर्थिक प्रगति के लिए निजी सहयोग को वांछित दर्जा दिया। हैरानी यह कि अगर सरकारी बस के आगे निजी बस भागती नजर आती है, तो सारे मार्ग अवरुद्ध करने की कवायद में संबंधित मंत्री भी रातों को पहरेदारी करते हैं। निजी शिक्षण संस्थान तरक्की करते हैं, तो स्कूल शिक्षा बोर्ड के नियम सख्त होते जाते हैं या निजी विश्वविद्यालयों की बेडि़यां बढ़ा दी जाती हैं। कुछ इसी तरह निजी अस्पतालों में स्वास्थ्य लाभ के बेहतरीन प्रदर्शन के सामने विभागीय दलीलें माहौल को बीमार करने पर उतर आती हैं। प्रदेश यकीन से बता सकता है कि मामूली रोग का इलाज करने में सरकारी अस्पताल क्यों असफल या शैक्षिक सफलता के सारे मानक क्यों कोई निजी स्कूल छीन रहा है। अगर हमीरपुर में हिम अकादमी ने उन्नत शिक्षा के जरिए छात्रों को करियर बनाने का मार्ग वर्षों पहले प्रशस्त न किया होता, तो शिक्षा हब का मौजूदा अवतार न होता। इसी अंदाज में निर्माण उद्योग तथा सेवा क्षेत्र में रात-दिन मेहनत कर रहे निजी क्षेत्र की बदौलत हिमाचल को प्रगतिशील माना जा रहा है, वरना कई दशकों की घोषणाओं के बावजूद हिमुडा तो एक भी उपग्रह नगर नहीं बसा सका। विडंबना यह भी कि निजी निवेश से शुरू हुई परियोजना यूं ही रुकी रहती है और हिमाचल बदनाम हो जाता है। शिमला-जाखू रोप वे परियोजना किसी निवेशक के साथ-साथ राज्य की भी तो मिलकीयत है, लेकिन शुरुआती बाधाओं के कांटे न जाने कब खत्म होंगे। ऐसे अनेक रोड़े उत्साही निजी निवेशकों का पलायन कर देते हैं, लेकिन सत्ता के मंच इसे भी अपनी करामात से देखते हैं और इसे हिमाचली अस्तित्व से जोड़कर वर्षों से देखा जा रहा है। हमें स्वीकार करना होगा कि एक लघु दुकानदार भी अपने साथ-साथ अन्य कई परिवारों की रोजी-रोटी चला कर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने में योगदान करता है।


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