शिमला-ऊपरी क्षेत्रों में भूमिगत बिजली व्यवस्था की जरूरत

By: Jan 11th, 2017 12:03 am

newsशिमला – ताजा बर्फबारी ने फिर से यह सोचने को मजबूर किया है कि शिमला जैसे शहरों के साथ-साथ जनजातीय क्षेत्रों में अंडरग्राउंड विद्युत व्यवस्था क्यों नहीं तैयार कर दी जाती। हालांकि यह खर्चीली है, मगर हर साल करोड़ों का जो खर्च रेस्टोरेशन कार्यों पर किया जाता है, उससे भी बचा जा सकेगा। ऐसा नहीं है कि ऐसी सिफारिशें पूर्व सरकारों के पास न गई हों, मगर उन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया। शिमला प्रदेश की राजधानी है। यहां जो घटता है, वह राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित होता है। जनजातीय क्षेत्रों में ही हर साल 20 करोड़ से भी ज्यादा बालन, कच्चा कोयला, मिट्टी का तेल सप्लाई किया जाता है। जानकारों के मुताबिक यदि ऐसे क्षेत्रों में अंडरग्राउंड व्यवस्था को लेकर नए सिरे से तैयारी की जाए तो बड़ी से बड़ी आपदा विद्युत आपूर्ति को बाधित नहीं कर पाएगी। हालांकि कुछ समय पहले शिमला में सिंगल केबल के जरिए बिजली की तारों के मक्कड़जाल को कम करने का प्रयास किया गया था, मगर इसके लिए वित्तीय सहायता पर्याप्त न मिल पाने के कारण यह प्रोजेक्ट ठप कर दिया गया। शिमला के लोअर बाजार में इसे पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर चलाया गया था। यही नहीं, 33 किलोवाट लाइनों को बिछाने से पहले क्या सर्वे स्टीक होते हैं, इस पर भी अब सवाल उठने लगे हैं, क्योंकि ये उन क्षेत्रों में बिछी हैं, जहां या तो अत्यधिक पेड़ हैं या वे इलाके संवेदनशील माने जाते हैं। जानकारों का यह भी कहना है कि आपदा की दृष्टि से अति संवेदनशील इलाकों में वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों की तरफ भी ध्यान देने की आवश्यकता है, ताकि लोग व यहां आने वाले पर्यटक निराश न हों। सौर ऊर्जा इसकी एक मिसाल हो सकती है।

कहां गया स्नो मैनुअल

शिमला के लिए काफी पुराना स्नो मैनुअल है। जानकारों के मुताबिक बर्फबारी से पहले इसमें इस बात का जिक्र है कि संवेदनशील इलाकों में जो पेड़ खतरनाक हैं, उन्हें या तो काटा जाए या उनकी कांट-छांट की जाए। इसी के तहत प्री-मेंटेनेंस का काम भी होता है, मगर हैरानी की बात है कि बोर्ड इस बाबत वन विभाग पर तोहमत लगाता है और वन विभाग चुप्पी साधे बैठता है। लापिंग तब हो रही है, जब कुदरत ने गजब ढहा दिया है।


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