सांप्रदायिक धु्रवीकरण की चिंता

By: Jan 21st, 2017 12:01 am

राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) नेता एवं अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को ट्वीट कर जानना चाहा था कि आखिर गठबंधन का क्या तय किया गया? अखिलेश ने जवाब तो नहीं दिया, लेकिन अपनी रणनीति के मुताबिक, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद से गठबंधन को इनकार कर दिया। स्पष्ट तौर पर स्थिति ऐसी लगती है कि अब उत्तर प्रदेश में सपा-कांग्रेस का ही गठबंधन होगा, महागठबंधन के कोई आसार नहीं हैं। दरअसल मुख्यमंत्री अखिलेश का फीडबैक था कि यदि रालोद से गठबंधन किया गया, तो मुसलमानों में तीखी प्रतिक्रिया हो सकती है। मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक दंगे इसकी वजह हैं, जब जाटों और मुसलमानों में हिंसक टकराव हुए थे। रालोद के साथ गठबंधन से जाट वोट बैंक भाजपा के पक्ष में भी जाएगा और मुसलमानों का धु्रवीकरण बसपा के पक्ष में हो सकता है। तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुख्य चुनावी मुकाबला भाजपा और बसपा के बीच हो सकता है। चूंकि मतदान की शुरुआत ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश से हो रही है, लिहाजा जो धु्रवीकरण इस जमीन से शुरू होगा, वह पूरे राज्य में फैल सकता है। नतीजतन भाजपा को सबसे ज्यादा फायदा होगा। धु्रवीकरण जाटों तक ही सीमित नहीं रहेगा, उसकी परिधि में सवर्ण और हिंदू भी लामबंद होंगे। खासकर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के लिए यह घोर चिंताजनक स्थिति है, क्योंकि वह उन विकास-कार्यों के आधार पर चुनाव अभियान आगे बढ़ाना चाहते हैं, जो साफ तौर पर उत्तर प्रदेश में दिख रहे हैं और जनता भी उन्हें नए विकास-पुरुष के तौर पर स्वीकार करने को तैयार लगती है। सपा की एक और रणनीति समझ में आती है कि कांग्रेस अपने कोटे की कुछ सीटें रालोद के साथ साझा कर ले और सपा परोक्ष रूप से कांग्रेस-रालोद प्रत्याशी को समर्थन दे देगी। लेकिन रालोद 40 सीटें मांग रही है। उसकी दलील है कि पिछली विधानसभा में उसके नौ विधायक थे, जबकि 11 सीटों पर पार्टी दूसरे स्थान पर रही थी। रालोद के पूरे उत्तर प्रदेश में कुछ खास प्रभाव-क्षेत्र हैं, जो चौधरी चरण सिंह के दौर के हैं। क्या कांग्रेस अपने कोटे में से 40 सीटें रालोद को दे सकती है? क्या सपा 125 के करीब सीटें कांग्रेस को देगी? सपा ने 300 से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान तक कर दिया है। क्या सपा जैसी क्षेत्रीय पार्टी देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को, गठबंधन के चक्कर में, बिलकुल ही बौना बना देने पर आमादा है? क्या कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ऐसी स्थितियों को स्वीकार करने को तैयार होंगे? दरअसल उत्तर प्रदेश के चुनाव एक राज्य के नहीं, देश की संपूर्ण राजनीति को प्रभावित करने वाले  चुनाव हैं, लिहाजा उसकी प्रत्येक करवट, बदलते समीकरणों, मोदी के खिलाफ विपक्ष की लामबंदी आदि का आकलन बेहद जरूरी है। अखिलेश भी गठबंधन का प्रयोग इसलिए कर रहे हैं, ताकि 2019 का पूर्वाभ्यास किया जा सके। यह सामने आ सके कि कोई महागठबंधन प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के खिलाफ कारगर साबित होता है या नहीं। लेकिन अकेले प्रधानमंत्री मोदी को निशाना बनाने के बावजूद विपक्षी दलों का कोई सार्थक गठबंधन अभी तक आकार ग्रहण नहीं कर सका है। अखिलेश को अजित सिंह की विश्वसनीयता पर शक है कि चुनाव के बाद वह अलग होकर भाजपा की ओर जा सकते हैं। ऐसा वह पहले भी कर चुके हैं। हालांकि सपा की 25 वीं सालगिरह के मौके पर अजित सिंह ने सार्वजनिक मंच से इच्छा जताई थी कि रालोद भी किसी गठबंधन का हिस्सा बनना चाहता है, लेकिन अब जो हकीकत सामने आई है, वह उसके बिलकुल ही उलट है। इसके अलावा, जनता दल-यू, तृणमूल कांग्रेस, राजद आदि का उत्तर प्रदेश में कोई अस्तित्व नहीं है। महागठबंधन उसे कहा जा सकता है, जब प्रधानमंत्री मोदी की राजनीति के खिलाफ सपा और बसपा का कोई गठबंधन बने और शेष बौने दल भी साथ जोड़ लिए जाएं। उसके चुनावी नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं, लेकिन फिलहाल तो इसके कोई आसार नहीं हैं।


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