हफ्ते का खास दिन

By: Jan 29th, 2017 12:05 am

जयशंकर प्रसाद

जन्मदिवस 30 जनवरी, 1890

जिस समय खड़ी बोली और आधुनिक हिंदी साहित्य किशोरावस्था में पदार्पण कर रहे थे, उस समय जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् 30 जनवरी,1890 को वाराणसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। कवि के पितामह शिव रत्न साहु वाराणसी के अत्यंत प्रतिष्ठित नागरिक थे और एक विशेष प्रकार की सुरती (तम्बाकू) बनाने के कारण ‘सुंघनी साहु’ के नाम से विख्यात थे। उनकी दानशीलता सर्वविदित थी और उनके यहां विद्वानों व कलाकारों का समादर होता था। जयशंकर प्रसाद के पिता देवीप्रसाद साहु ने भी अपने पूर्वजों की परंपरा का पालन किया। इस परिवार की गणना वाराणसी के अतिशय समृद्ध घरानों में थी और धन-वैभव का कोई अभाव न था। प्रसाद का कुटुंब शिव का उपासक था। माता-पिता ने उनके जन्म के लिए अपने इष्टदेव से बड़ी प्रार्थना की थी। वैद्यनाथ धाम के झारखंड से लेकर उज्जयिनी के महाकाल की आराधना के फलस्वरूप पुत्र जन्म स्वीकार कर लेने के कारण शैशव में जयशंकर प्रसाद को ‘झारखंडी’ कहकर पुकारा जाता था। वैद्यनाथ धाम में ही जयशंकर प्रसाद का नामकरण संस्कार हुआ। जयशंकर प्रसाद की शिक्षा घर पर ही आरंभ हुई। संस्कृत, हिंदी, फारसी, उर्दू के लिए शिक्षक नियुक्त थे। इनमें समय सिद्ध प्रमुख थे। प्राचीन संस्कृत ग्रंथों के लिए दीनबंधु ब्रह्मचारी शिक्षक थे। कुछ समय के बाद स्थानीय क्वीन्स कालेज में प्रसाद का नाम लिख दिया गया, पर यहां पर वह आठवीं कक्षा तक ही पढ़ सके। प्रसाद एक अध्यवसायी व्यक्ति थे और नियमित रूप से अध्ययन करते थे। प्रसाद की बारह वर्ष की अवस्था थी, तभी उनके पिता का देहांत हो गया। इसी के बाद परिवार में गृह क्लेश आरंभ हुआ और पैतृक व्यवसाय को इतनी क्षति पहुंची कि वही सुंघनी साहु का परिवार, जो वैभव में लोटता था, ऋण के भार से दब गया।

पिता की मृत्यु के दो-तीन वर्षों के भीतर ही प्रसाद की माता का भी देहांत हो गया और सबसे दुर्भाग्य का दिन वह आया, जब उनके ज्येष्ठ भ्राता शंभूरतन चल बसे तथा सत्रह वर्ष की अवस्था में ही प्रसाद को एक भारी उत्तरदायित्व संभालना पड़ा। प्रसाद का अधिकांश जीवन वाराणसी में ही बीता था। उन्होंने अपने जीवन में केवल तीन-चार बार यात्राएं की थी, जिनकी छाया उनकी कतिपय रचनाओं में प्राप्त हो जाती हैं। प्रसाद को काव्यसृष्टि की आरंभिक प्रेरणा घर पर होने वाली समस्या पूर्तियों से प्राप्त हुईं जो विद्वानों की मंडली में उस समय प्रचलित थी।

बहुमुखी प्रतिभा

प्रसाद जी का जीवन कुल 48 वर्ष का रहा है। इसी में उनकी रचना प्रक्रिया इसी विभिन्न साहित्यिक विधाओं में प्रतिफलित हुई कि कभी-कभी आश्चर्य होता है। कविता, उपन्यास, नाटक और निबंध सभी में उनकी गति समान है। किंतु अपनी हर विद्या में उनका कवि सर्वत्र मुखरित है। वस्तुतः एक कवि की गहरी कल्पनाशीलता ने ही साहित्य को अन्य विधाओं में उन्हें विशिष्ट और व्यक्तिगत प्रयोग करने के लिए अनुप्रेरित किया।  उनकी कहानियों का अपना पृथक और सर्वथा मौलिक शिल्प है, उनके चरित्र-चित्रण का, भाषा-सौष्ठव का, वाक्य गठन का एक सर्वथा निजी प्रतिष्ठान है। उनके नाटकों में भी इसी प्रकार के अभिनव और लाघ्य प्रयोग मिलते हैं।  अभिनेयता को दृष्टि में रखकर उनकी बहुत आलोचना की गई, तो उन्होंने एक बार कहा भी था कि रंगमंच नाटक के अनुकूल होना चाहिए न कि नाटक रंगमंच के अनुकूल। उनका यह कथन ही नाटक रचना के आंतरिक विधान को अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध कर देता है। कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास सभी क्षेत्रों में प्रसाद जी एक नवीन ‘स्कूल’ और नवीन जीवन-दर्शन की स्थापना करने में सफल हुए हैं। वह ‘छायावाद’ के संस्थापकों और उन्नायकों में से एक हैं। वैसे सर्वप्रथम कविता के क्षेत्र में इस नव-अनुभूति के वाहक वही रहे हैं और प्रथम विरोध भी उन्हीं को सहना पड़ा है। भाषा शैली और शब्द-विन्यास के निर्माण के लिए जितना संघर्ष प्रसाद जी को करना पड़ा है, उतना दूसरों को नहीं। जयशंकर प्रसाद जी का देहांत 15 नवंबर, सन् 1937 ई.  में हो गया। प्रसाद जी भारत के उन्नत अतीत का जीवित वातावरण प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त थे। उनकी कितनी ही कहानियां ऐसी हैं जिनमें आदि से अंत तक भारतीय संस्कृति एवं आदर्शों की रक्षा का सफल प्रयास किया गया है। और ‘आंसू’ ने उनके हृदय की उस पीड़ा को शब्द दिए जो उनके जीवन में अचानक मेहमान बनकर आई और हिंदी भाषा को समृद्ध कर गई। सकती हैं।

 


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