हिमाचली पाठ्यक्रम में हुनर

By: Jan 13th, 2017 12:03 am

रोजगार की हिमाचली मृगतृष्णा हर साल शिक्षा के औचित्य को चौराहे पर खड़ा करती है, लेकिन हमारी मेधा के दरवाजे औपचारिक पाठ्यक्रम में ही रोशनी खोजने की मशक्कत करते हैं। विडंबना यह कि रोजगार के राष्ट्रीय परिदृश्य से अलग हिमाचली मानसिकता के पिंजरे में संभावनाएं भी कैद होकर रह गई हैं। यह प्रमाणित निष्कर्ष है कि केवल बीस फीसदी स्नातक ही नौकरी हासिल कर पाते हैं, जबकि वोकेशनल कौशल से नब्बे प्रतिशत रोजगार संभव है। सरकारी-गैर सरकारी के बीच हिमाचली मानसिकता अगर सरकारी नौकरी के खेत पर लट्टू है, तो इस भ्रम से बाहर निकलने का वक्त आ चुका है। ऐसे में दृष्टि बदलने की पहली सीढ़ी स्कूल से शुरू करनी होगी। पाठ्यक्रम में हुनर परोसने की पाठशाला अगर स्कूल की पहली क्लास से न लगी, तो कौशल विकास की अन्य सीढि़यां ढह जाएंगी। बेशक सियासी विवाद में रोजगार या रोजगार भत्ते की फांस में सरकार को कोस लें, लेकिन बच्चों में सीखने की क्षमता प्रारंभिक शिक्षा से वास्ता रखती है। सामाजिक और संवेदनात्मक व्यक्तित्व विकास की पहली किताब अगर स्कूल की नैतिक जिम्मेदारी बने, तो जीवन के प्रति नजरिया भी सशक्त होगा। देखना तो यह भी होगा कि पढ़ने के दौरान हम बच्चों के मानसिक विकास के लिए किस नायक को प्रस्तुत कर रहे हैं। दुर्भाग्यवश हिमाचली शिक्षा ने छात्र समुदाय को अपने परिवेश और माटी से अलग खड़ा करने के अनेकों बहाने दिए, लेकिन इसके कारण कौशल शून्यता बढ़ गई। पूरे हिमाचल में कौशल के आधार पर उपलब्ध अवसर या तो बाहर से आए लोगों को रोजगार दे रहे हैं या प्रदेश के युवाओं का निठल्लापन भी रुतबा तलाश करने लग पड़ा। एक ओर देश स्किल कैपिटल बनने की उम्मीद कर रहा है और इधर हम हैं कि चंद वोकेशनल पाठ पढ़ा कर स्कूली शिक्षा के मजमून को पूरा मान रहे हैं। कम से कम आठवीं से ही कौशल विकास के विकल्प स्पष्ट करने होंगे और इसके लिए पाठ्यक्रम में अभिनव प्रयोग की जरूरत है। रिटेल, हैंडीक्राफ्ट से हैल्थ केयर जैसे विषय ही नहीं, बल्कि रोजगार के हर हुनर के करीब शिक्षा को खड़े होना पड़ेगा। स्कूल से हुनर की तलाश अपने आप में अगर लक्ष्य प्रतीत होगी, तो प्राथमिकताएं भी बदलेंगी। इसके लिए कुछ विशेष मानदंड पर अवकाश की अवधि में प्रशिक्षण तथा अल्प रोजगार के जरिए जीवन के कदमों पर छात्रों को चलाया जाए, तो हर साल नए प्रयोग व प्रयोगशालाएं दिखाई देंगी। उदाहरण के लिए नगर निकायों व सरकार के कई विभागों के साथ मिलकर सर्वेक्षणों की एक ऐसी परिपाटी विकसित हो, जहां अवकाश के दिनों में छात्र वर्ग शिक्षा की व्यावहारिकता परख सके। इसी तरह आठवीं से बारहवीं के छात्रों के पाठ्यक्रम का एक विषय भ्रमण पर केंद्रित हो। आठवीं तक राज्य के भीतर और जमा दो तक देश में विविध विषयों को समझने के आधार पर भ्रमण की अनिवार्यता रहे, तो विज्ञान, तकनीक के अलावा संस्कृति तथा इतिहास जैसे विषय भी रोजगार संभावना के पैरोकार बनेंगे। हिमाचल में हालांकि कौशल विकास विश्वविद्यालय की बात हो रही है, लेकिन इससे पहले कौशल विकास पार्कों की स्थापना पर सोचना होगा। ऐसा एक पार्क अगर बीबीएन में स्थापित हो, तो अवकाश के दौरान छात्रों को जानकारियों में रोजगार के कई पहलू भी दिखाई देंगे। हिमाचली शिक्षा को हुनर से जोड़ने की कवायद ही वास्तव में इस सदी की अनिवार्यता है। रोजगार योग्यता की एक अलग क्षमता है, जिसका विकास स्कूली शिक्षा से संपन्न होगा। हिमाचली बच्चों में विषयों की जानकारी, संवाद कौशल से भाषायी विकास तक समृद्ध करनी होगी, जबकि वाणिज्यिक जागरूकता और काम के प्रति प्रवृत्ति को सुदृढ़ करने की गुंजाइश है। छात्रों में स्वयं प्रेरणा, सृजनात्मकता, काम सीखने की भूख, कठिन परीक्षा को तैयार होने की क्षमता तथा तकनीकी ज्ञान में अग्रणी रहने की प्रतिस्पर्धा का माहौल स्कूल के व्यावहारिक लक्ष्यों के साथ जोड़ना ही होगा।


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