हिमाचली लोक जीवन में कुलज माता

By: Jan 30th, 2017 12:01 am

विवाह उत्सव में एक नहीं बार-बार इनकी पूजा करनी पड़ती है। कुलज की स्थापना कृषक-श्रमिक परिवारों में विभिन्न रूपों में होती है। कहीं पिंडियों के रूप में तो कहीं देहरी अथवा मढ़ी के रूप में तो कहीं दाड़ू की टहनी के रूप में इनकी उपस्थिति होती है। जिस दिन बारात चढ़ती है, उस दिन दूल्हे के कानों को कुलज के प्रतीक के सम्मुख बैठाकर छेदा जाता है। विवाह में जो भी पकवान बनते हैं, उन्हें सबसे पहले कुलज एवं अन्य सभी  लोक देवताओं को भोग लगाने के उपरांत ही लोगों को खिलाया जाता है…

शिवालिक जनपद में श्रमिक-कृषक  वर्ग के प्रत्येक परिवार में कुल देवी का विशेष महत्त्व है। हर परिवार की अपनी अलग-अलग कुलदेवी (कुलज) होती हैं, जिनकी पूजा-अर्चना, जन्म एवं विवाह उत्सवों पर विशेष रूप से करनी पड़ती है। ऐसा माना जाता है कि शुभ कारजों के समय यदि इनकी पूजा-अर्चना न की जाए तो यह देवी रुष्ट होकर उस परिवार को दंड भी देती हैं। यह भी माना जाता है कि जो परिवार ऐसे शुभ समय अपनी कुल देवी की पूजा-अर्चना करना भूल जाता है उस परिवार में गूंगे, बहरे, अपंग एवं मंदबुद्धि बच्चे उत्पन्न होते हैं। परिवार में जब विवाह होते हैं, तो जठेरी ही सबसे पहले उनकी पूजा करती है। विवाह उत्सव में एक नहीं बार-बार इनकी पूजा करनी पड़ती है। कुलज की स्थापना कृषक-श्रमिक परिवारों में विभिन्न रूपों में होती है।

कहीं पिंडियों के रूप में तो कहीं देहरी अथवा मढ़ी के रूप में तो कहीं दाड़ू की टहनी के रूप में इनकी उपस्थिति होती है। जिस दिन बारात चढ़ती है, उस दिन दूल्हे के कानों को कुलज के प्रतीक के सम्मुख बैठाकर छेदा जाता है। विवाह में जो भी पकवान बनते हैं, उन्हें सबसे पहले कुलज एवं अन्य सभी लोक देवताओं को भोग लगाने के उपरांत ही लोगों को खिलाया जाता है।

कुलज, किसी भी कुल की विशेष लोक मान्य देवी होती हैं। इनकी अलग-अलग कुलों में लोक कथाएं/गाथाएं भी मिलती हैं। रुल्हा दी कुल्ह, सूही माता चंबयाली रानी आदि लोक कथाएं/गाथाएं इन्हीं कुल देवियों से संबंधित हैं। सूही माता चंबयाली रानी राज परिवार चंबा की कुल देवी तो हैं ही परंतु वहां बसने वाले दूसरे परिवार भी उसे कुल देवी मानते हैं तथा शुभ कारजों में पूजा-अर्चना करते हैं।

इसी प्रकार रुल्हा दी कुल्ह की नायिका भी जिसे जिंदा कूहल (नहर) के सिरे पर चिनवा दिया गया था। बाद में वह भी कुल देवी बन गईं तथा शुभ उत्सवों के समय उसकी भी पूजा-अर्चना होने लगी।

शुभ कारजों के अवसर पर कुल देवी को टिक्कडि़यां और कड़ाह चढ़ाकर प्रसन्न किया जाता है। श्रमिक-कृषक वर्ग में ऐसा कोई भी परिवार नहीं मिलेगा जिनकी कुलज न हो। कुलज से संबंधित एक लोक कथा एक कृषक श्रमिक परिवार से प्राप्त हुई है, जो इस प्रकार से है-

सूजी उपजाति के नाम का एक कृषक बागबान परिवार था। उनके घर एक कन्या ने जन्म लिया। कन्या  चंद्र कलाओं की भांति बढ़ने लगी। जब वह युवा अवस्था में पहुंच गई तो माता-पिता को उसके विवाह की चिंता सताने लगी। मां-बाप ने उसके रिश्ते के प्रयास शुरू कर दिए। अंततः सल्लैहूरियों (कृषक-बागबान जाति में एक उपजाति का नाम) के एक लड़के के साथ कुंडली जोड़ दी जाती है। यह बात काफी समय पहले राजाओं के जमाने की है, जिस लड़के के साथ रिश्ता तय हुआ था, वह दूसरे राज्य में नौकरी करता था।

 घर वालों ने एक दिन शुभ मुहूर्त में उनके विवाह की तिथि निश्चित कर दी। समय गुजरता गया और एक दिन विवाह की तिथि भी आ गई। परंतु लड़का नहीं पहुंचा। तिथि निकल भी गई मगर वह फिर भी नहीं आया। लड़की वालों को इस बात की शर्म हो गई। अतः उन्होंने उसी वर्ष लड़की का रिश्ता दूसरी जगह अन्य लड़के से जोड़ दिया। विवाह की तिथि निश्चत हो गई। तिथि निकट आने लगी और विवाह की तैयारियां जोर पकड़ने लगीं। लेते-देते विवाह की तिथि भी आ गई। दोनों ओर विवाह शुरू हो गया। शाम को बारात भी आ पहुंची। उसी दिन लड़की का पहला मंगेतर भी छुट्टी से आ गया। उसका घर विवाह वालों के घर से कोई एक कोस दूर होगा। जब उसने ढोल और शहनाइयों की आवाज सुनी तो अपनी बहन से पूछ बैठा ‘बोबो! यह किसका विवाह हो रहा है?’

बहन तो अपने भाई पर पहले ही नाराज थी, अतः उसने उलाहना देते हुए कहा ‘बड्डेया सबूतां दियां मंगां ब्योहा दियां।’ अर्थात बड़े शूरवीर की मंगेतर की शादी हो रही है। बहन की बात उसके दिल में तीर की भांति चुभ गई। वह उस समय जहर का घूंट पीकर रह गया, बोला कुछ नहीं। दूसरे दिन उसकी बहन विवाह के घर चली तो भाई ने उससे पूछा …‘बोबो! कहां जा रही हो?’ ‘मैं विवाह वालों के घर विवाह में सम्मिलत होने के  लिए जा रही हूं।’ भाई की बात का बहन ने उत्तर दिया। ‘बोबो! आप मुझे अपने कपड़े देना, मैं भी अपनी मंगेतर की शादी देखूंगा।’ बहन ने उसे अपने कपड़ों का एक जोड़ा दे दिया और उसने अंदर जाकर उन्हें पहन लिया तथा अपनी बहन से आंख बचाकर कटार कपड़ों में छुपा ली और बहन के साथ विवाह देखने चल पड़ा।

लग्न-बेदी सब हो चुका था। केवल सिर गुंदाई होना बाकी रह गई थी। कुछ महिलाएं उसकी तैयारी कर रहीं थीं। इतने में वह भी अपनी बहन के साथ एक लंबा सा घूंघट निकालकर महिलाओं के मध्य में जा बैठा। जब सिर गुंदाई समाप्त हो गई तो दूल्हा अपने स्थान से उठा। उसे देखकर वह भी महिला के भेस में उठकर खड़ा हो गया।  झट से कटार निकाली और दूल्हे का गला देंर दिया तथा स्वयं बौहड़ (ऊपरी मंजिल) को चला गया और खिड़की से छलांग लगाई तथा भाग गया खुशी के स्थान पर एक क्षण में ही मातम छा गया। वह वहां से दूर जाकर खड़ा हो गया और जोर-जोर से चिल्ला चिल्लाकर कहने लगा…‘किसी को मत पकड़ना, जिसकी मंगेतर थी, वही कत्ल कर गया।’

इतना कहकर वह झट से घर पहुंचा, कपड़े बदले तथा घोड़े पर सवार होकर भाग गया। उधर, विवाह वालों का घर लहू से लथपथ हो गया। सभी आपस में कनोसनी (आंखों में बातें करना) करने लगे। अंत में लड़की उठी और पिता से कहने लगी, …‘पिता जी! जो होना था, वह हो गया। शायद मेरे भाग्य में यही लिखा था। अब आप ऐसा करें, यहीं इसी कमरे में चिता तैयार करवाएं तथा इनका (दुल्हे का)’ अंतिम संस्कार कर दें। अब मैं भी जी कर क्या करूंगी। अतः इन्हीं के साथ सती हो जाऊंगी।

उन दिनों सती प्रथा का विशेष प्रचलन था। उसने जिस प्रकार कहा, पिता ने उसी प्रकार वहीं चिता तैयार करवा दी और कटे हुए दूल्हे को उस पर रख दिया। अब लड़की ने कहा कि पिता जी! यहां कमरे में जितनी भी वस्तुएं पड़ी हैं, उन्हें उसी प्रकार रहने दीजिए। एक छेद छत में तथा एक ऊपर लद्दे (ऊपरी मंजिल की छत) में करवा दें और उसके बाद चिता को आग लगा दें। कई रिश्तेदारों ने अपनी वस्तुएं कमरे से निकालकर बाहर दूर जाकर रख दीं। चिता को आग लगा दी गई। जब आग पूरे यौवन पर पहुंची तो लड़की ने सबको नमस्कार किया अैर कहा  ‘जो सूजियों के कुल का होगा, वह भूलकर भी सल्लैरियों के परिवार के साथ रिश्ता नहीं जोड़ेगा। यदि कोई ऐसा करेगा तो वह जीवन भर दुखी ही रहेगा। जो मेरे कुल से संबंधित होगा वह कभी भी शादी-ब्याह के समय देहरा नहीं बनाएगा।’

इतना कहकर लड़की चिता में कूद गई। देखते ही देखते आग की लपटों ने उसे अपने आगोश में समेट लिया। वह सती हो गई। जिन संबंधियों का सामान अंदर था, उसे तनिक भी आंच नहीं आई परंतु जिन्होंने अपना सामान निकाल लिया था तथा जहां रखा था वहां अचानक आग लगी और क्षणों में ही जलकर राख हो गया।

कुछ समय बाद उसके पिता ने उसी स्थान पर उसकी देहरी (छोटा सा मंदिर) बना दी। समय बीतता गया। उसकी पूजा-अर्चना होने लगी। वह इस कृषक परिवार की कुलज बन गई। आज भी उसकी देहरी जम्मू में किले के भीतर विद्यमान है। जब-जब सूजियों के ज्येष्ठ बेटे की शादी होती है तो उस परिवार को वहां जाकर पूजा-अर्चना करनी पड़ती है। यदि कोई कृषक सूजी वंश का परिवार ऐसा नहीं करता है तो उसके जीवन में अनेक प्रकार के विघ्न और दुख भी आ जाते हैं, जिनसे वह सदा दुःखी ही रहता है।

समय के साथ-साथ उस एक परिवार के कई परिवार बन गए तथा इधर-उधर कई स्थानों पर जाकर बस गए, परंतु इन सभी सूजी कृषक परिवारों की कुल देवी यही हैं। उसके कथनानुसार जब भी कोई ब्याह-शादी होती है तो यह देहरा नहीं बनाते और आज भी सूजियों के रिश्ते सल्लैरियों के साथ नहीं होते हैं। प्रत्येक श्रमिक-कृषक वर्ग में सबकी अपनी-अपनी कुल देवी होती है। उन सबके साथ इसी प्रकार की कोई न कोई कथा अवश्य जुड़ी होती है।

-हरिकृष्ण मुरारी  रैत, शाहपुर, कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App