हिमाचल में रचनात्मकता की महक

By: Jan 2nd, 2017 12:05 am

साहित्यिक लेखा-जोखा 2016

आज पहाड़ों का सीना छलनी हो रहा है तो इस थीम पर आधारित कविताएं वाहवाही लूट रही हैं । 70-80 के दशक में हिमाचल के दूरदराज के क्षेत्रों के जीवन पर लिखी कहानियां देश भर में धूम मचाए हुए थीं । अब मोबाइल और इंटरनेट की कहानियां आएंगी या फिर नोटबंदी के अनुभव देखने को मिलेंगे…

हिमाचल प्रदेश प्राकृतिक वैभव से संपन्न प्रदेश है, जहां रचनात्मकता की अपार संभावनाएं रही हैं। स्वतंत्रता के पूर्व चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल,योगेश्वर शर्मा गुलेरी,जगतराम शास्त्री, खेमराज गुप्त प्रभृति लेखकों ने हिंदी साहित्य में अपना अप्रतिम सहयोग दिया। स्वातंत्र्योत्तर काल में भी सैकड़ों रचनाकारों ने हिंदी साहित्य के भंडार को समृद्ध किया, परंतु यह विडंबना ही है कि बहुत श्रेष्ठ साहित्य रचने के बावजूद कोई विशेष पहचान नहीं बन पाई। यह छोटा प्रदेश है, एक कारण तो यह भी है। दूसरे इस की राज-काज की भाषा हिंदी है, जबकि वास्तव में यह एक अहिंदी भाषी प्रदेश है। साहित्यिक दृटि से अधर में लटका हुआ प्रदेश।

जो उत्साह लेखकों में सातवें-आठवें दशक में था, वैसा उफान अब दिखाई नहीं देता। फिर भी, सन् 2016 में सृजन की खेती आश्वस्त करती है। कवि कथाकार एवं रंगकर्मी कैलाश आहलूवालिया का कहानी संग्रह ‘शेष-अशेष’, शेर सिंह का कहानी संग्रह ‘आस का पंछी’, गुरमीत बेदी का ‘सुखे पत्तों का राग’,मृदुला श्रीवास्तव का ‘काश! पंडोरी न होती’,राजेंद्र राजन का ‘फूलों को सब पता है’ आदि। कैलाश आहलूवालिया की कहानियों में सहजता एवं नाट्यकर्मी की कुशलता बांधती है। शेर सिंह की कहानियां व्यापक अनुभवों को उजागर करती हैं ।

गुरमीत बेदी स्थितियों के बुनकर हैं, तो मृदुला श्रीवास्तव की कहानियों का फलक औपन्यासिक है और उनकी कहानियां विषयवस्तु की दृष्टि से लीक से हट कर हैं । राजन का ध्यान सामाजिक समस्याओं पर अधिक रहता है और कहीं- कहीं लगता है कि लेखक बुनावट के प्रति चौकस जान पड़ता है। सुदर्शन वशिष्ठ की संपूर्ण कहानियां भी लेखक के विश्ष्टि मिजाज के अनुसार वैविध्यपूर्ण हंै । ज्ञानचंद बैंस का लघु कथा संग्रह ‘ब्रीणी’ भी उल्लेखनीय है ।

कविता के क्षेत्र में देखें तो सरोज परमार का ‘मैं नदी हो जाना चाहती हूं’,चंद्ररेखा डढवाल का ‘जरूरत भर सुविधा’, नवनीत शर्मा का ‘कहां ढूंढंू’, सुमन शेखर का ‘खुला दरवाजा’, शेर सिंह का ‘मन देश है तन परदेश’, जाहिद अबरोल का ‘दरिया दरिया साहिल साहिल’, सुरेश भारद्वाज का ‘इक अम्मां थी’ , कमलेश सूद का ‘हवाओं के रुख मोड़ दो’ आदि उल्लेखनीय काव्य संग्रह हैं। स्वनामध्न्य प्रो. परमानंद शर्मा जी का बेहद पठनीय कविताओं का संग्रह ‘इंद्र का सिंहासन तथा अन्य कवितांए’ लेखक की अदम्य सृजनात्मकता का परिचायक है।

रोशन लाल शर्मा के संपादन में 29 कवियों की रचनाओं को समाहित किए हुए ‘कहलूरा री कलम ‘ शीर्षक का संग्रह अपनी विशिष्ठ उपस्थिति दर्ज करवाता है। इसमें रवि सांख्यान, सुशील पुंडीर,रूप शर्मा, डा. एलआर शर्मा, कर्नल जसवंत सिंह चंदेल आदि की कविताएं संकलित हैं। नासिर यूसुफजई की पुस्तक ‘इश्क इबादत है’ एक अलग आस्वाद ले कर आती है। इसमें लेखक ने गत दस वर्षों में लिखे ‘माहिए’ प्रस्तुत किए हैं। यह सुखद बात है कि हिमाचल के लेखक हाईकू, माहिए आदि नई- नई विधाओं में भी लिख रहे हैं। डा. कुंवर दिनेश के हाइकू काफी चर्चा में रहे हैं। इसी तरह शिखरों का स्पर्श काव्य संग्रह में हिमाचल के 25 कवियों की उत्कृष्ट कविताएं संकलित हैं। इनमें कश्मीर सिंह राणा जैसे नए कवियों के सथा- साथ सरोज परमार जैसी वरिष्ठ कवियत्री भी शामिल हैं। पवन चौहान, जगदीश जमथली, जतिंद्र शर्मा, हंसराज भारती, डा सूरत ठाकुर की पुस्तकें भी अपने-अपने क्षेत्र में आई हैं। ‘माई-बाप’ शीर्षक से एक व्यंग्य नाटक भी ध्यान खींचता है, जिस में राजनेताओं के व्यवहार पर तीखा कटाक्ष है। शांता कुमार के साहित्यिक अवदान पर डा. हेमराज कौशिक की पुस्तक भी प्रकाशित हुई है।  कुछ और भी छिटपुट पुस्तकें छपी होंगी, लेकिन ये सब गत वर्षों की तुलना में बहुत कम हैं।

हिमाचल कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी का योगदान पर्याप्त महत्त्वपूर्ण रहा है और लगता है यह पुनः पटरी पर आ रही है। लेखक के रूप में मेरी मान्यता है कि हिमाचल के लेखकों के हितों की रक्षा एवं उन्हें प्रोत्साहित करने में इस की अहम भूमिका हो सकती है परंतु कभी व्यवस्थागत कारणों से और कभी आर्थिक तंगी के कारण, तो कभी स्टाफ की कमी के कारण यह पिछड़ती रही है। उदाहरण के लिए पुस्तक सम्मान योजना में अवांछित अंतराल, थोक खरीद में विलंब या कुछ अन्य अड़चनें। केंद्रीय साहित्य अकादमी की हिमाचल में कम रुचि, कारण कुछ भी हो सकता है, से भी हिमाचल के लेखक घाटे में रहे हैं । इसी प्रकार नेशनल बुक ट्रस्ट, केंद्रीय हिंदी निदेशालय की योजनाओं का कम लाभ मिलना भी सृजनकर्मियों के लिए उदासीनता का कारण रहा है । यह भी ठीक है कि लेखकों को सरकारी तंत्र पर ज्यादा आश्रित नहीं रहना चाहिए परंतु जब सामाजिक परिवेश ही इस प्रकार का हो जाए, तो लेखक जाए तो जाए कहां ।

ऐसी स्थिति में अकादमी बहुत कुछ कर सकती है यथा हिमाचल के लेखकों का साहित्यकार कोश, हिमाचल के दिवंगत हिंदी लेखकों का इतिहास, चंद्रधर शर्मा गुलेरी पुरस्कार से सम्मानित एवं अकादमी से पुरस्कार प्राप्त लेखकों पर मोनोगाफ्र लिखवाए व प्रकाशित करे, पुस्तकों पर रायल्टी के प्रावधान जैसी अनेक योजनाएं बनाई जा सकती हैं,   जिनसे लेखकों का हित होगा। अकादमी पत्र पत्रिकाओं को प्रकाशन के लिए अनुदान देने का निर्णय कर चुकी है, इससे साहित्य को एवं नए लेखकों को प्रोत्साहन मिलेगा। यह योजना पहले भी थी, परंतु आर्थिक तंगी के कारण वर्षों बंद रही ।

अपना-अपना शौक हो सकता है, लेकिन फेसबुक में ही खोए रहना भी कुछ लेखकों को कलम की दुनिया से परे ले जा रहा है, पर मैं समझता हूं कि  कागज और प्रकाशन की दुनिया बरकरार रहेगी और फटाफट फेसबुक पर तुकबंदियां डाल कर अमर होने की प्रवृत्ति में कमी आएगी। लेखन में अपार संभावनाएं हैं। परिवेश बदल रहा है और समाज की जीवन दृष्टि भी । कोई समय था जब फणीश्वर नाथ रणु की भांति आंचलिक कहानियां लिखी जाती थीं और पहाड़ के रीति-रिवाज बाहर की दुनिया को लुभाते  थे ।

आज पहाड़ों का सीना छलनी हो रहा है तो इस थीम पर आधारित कविताएं वाहवाही लूट रही हैं । 70-80 के दशक में हिमाचल के दूरदराज के क्षेत्रों के जीवन पर लिखी कहानियां देश भर में धूम मचाए हुए थीं । अब मोबाइल और इंटरनेट की कहानियां आएंगी या फिर नोटबंदी के अनुभव देखने को मिलेंगे। कुछ न कुछ तो नए वर्ष में नए विषय अवश्य मिलेंगे। जीवन की जटिलताओं को पाठक के सामने रखने का ही नाम साहित्य है। यही प्रेमचंद ने किया और यही यशपाल ने किया। बस चिंता है तो इस बात की कि कहीं हिमाचल का लेखक भाषाओं के मकड़जाल में फंस कर भटक न जाए ।

— डा सुशीलकुमार फुल्ल, पुष्पांजलि,राजपुर-पालमपुर-176061


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