2016 : बाधाओं व बदलाव की गाथा

By: Jan 13th, 2017 12:05 am

प्रो. एनके सिंह

( लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं )

जिस संयम के साथ देश की जनता ने पचास दिनों का इंतजार किया, वह अपने आप में एक अनूठी मिसाल थी। यह सामाजिक आचरण में आने वाला एक बड़ा बदलाव था। नोटबंदी के बाद सर्वोच्च न्यायालय तक देश में अराजकता पैदा होने या दंगे भड़कने की शंका जता चुका था। लेकिन जब हमारे प्रतिनिधि राज्यसभा और लोकसभा में मुट्ठियां भींचकर इसका विरोध कर रहे थे, उसी दौरान देश की जनता ने शांति व संयम के साथ लंबी-लंबी कतारों में लगकर भी अपने हिस्से की नकदी बैंकों व एटीएम से निकाली…

बीता वर्ष कई विघ्न-बाधाओं के साथ गुजर गया और इन्हीं के साथ देश को बड़े बदलाव की ओर ले जाने वाले युग का भी आरंभ हुआ। प्रकृति के नियमों के मुताबिक किसी भी बड़े बदलाव का विभिन्न बाधाओं से टकराव होना अवश्यंभावी है, जैसे कि प्रगति व विकास के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सामान्य गति में स्फूर्ति भरना जरूरी होता है। महात्मा गांधी को भी एक बड़े बाधक के तौर पर जाना जाता है, लेकिन उनके लक्ष्य बिलकुल स्पष्ट थे। वह इस राह पर बढ़ते हुए अंग्रेजों को भारत से खदेड़कर देश को स्वतंत्र करवाने के लिए संघर्षरत थे। वह लंगोटी पहनकर एक बकरियों को चराने ले जाने वाले बुजुर्ग किसान की तरह हाथ में लाठी लेकर बिना किसी विचलन के इस सफर में आगे बढ़ते रहे। उन्हें इस रूप में देखने वालों के लिए यह अपने आप में एक अचंभे की तरह था कि ब्रिटेन से बैरिस्टर बनकर लौटे व्यक्ति का आचार-व्यवहार किसी फकीर सरीखा ही था। इस तरह से उन्होंने कई लोगों को अचंभित किया, लेकिन वह तो बदलाव के अगुआ और भारतीयता के ऐसे प्रतीक थे, जिनसे विदेशी घृणा करते थे। उस बदलाव के लिए भी अंततः कई बलिदान देने पड़े और यहां तक कि स्वतंत्रता के साथ-साथ ही विभाजन की त्रासदी को भी झेलना पड़ा, जिसमें दिल दहला देने वाला नरसंहार हुआ।

इस प्रकार भारत ने आजादी और स्वराज हासिल कर लिया। इसके साथ ही उन्होंने खादी का समर्थन करके एक सामाजिक बदलाव की मुहिम छेड़ी और समाज के दबे-कुचले व उपेक्षित दलितों को हरिजन का सम्मान देकर उन्हें भगवान के बंदों के रूप में सम्मानित किया। गांधी जी की इस विशिष्टता और प्रतिभा के कारण जनता ने उन्हें दिल से चाहा और तमाम तरह के समर्पणों और परेशानियों को झेलने के बावजूद वह उनके पक्ष में खड़ी दिखी। गांधी जी के बाद के भी ऐसे नेताओं की एक लंबी फेहरिस्त है, जो देश को प्रगति मार्ग पर आगे बढ़ाने के लिए समाजवादी युक्तियों को अपनाते रहे। बीता वर्ष भी एक ऐसे ही सामाजिक बदलाव के अगुआ नरेंद्र मोदी के उदय का साक्षी बना। मोदी भले ही महात्मा गांधी की प्रतिमूर्ति नहीं हो सकते और न ही उनके मूल्यों का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं, लेकिन समाज में बदलाव लाने के उत्साह में मोदी किसी भी तरह से गांधी जी से कम नहीं। गांधी जी के बाद और मोदी के पहले भी स्वच्छता की बातें सुनने को मिलती रहीं, लेकिन ये कोरे उपदेशों से बढ़कर कुछ भी नहीं थीं। मोदी ने इसे जन आंदोलन बनाया। शंकित फितरत वाली जमात आज भी इसी बात का रोना रो रही है कि आज भी हर कहीं कूड़े-कचरे के ढेर लगे हुए हैं, लेकिन वह शायद इस बात को भूल रही है या जानबूझ कर नहीं समझना चाहती कि इस अभियान ने देश को स्वच्छ बनाने हेतु पूरे देश में एक नई ऊर्जा का संचार किया है और बेहतर जीवन व स्वास्थ्य के लिए वातावरण को स्वच्छ बनाने के अब हर दिशा में निरंतर प्रयास हो रहे हैं।

ठीक इसी तरह से मोदी द्वारा शुरू किए गए अन्य अभियान, जैसे कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ ने भी देश को नारी समाज की महत्ता से रू-ब-रू करवाते हुए कन्याओं से भी बालकों के सम्मान व्यवहार का मार्ग प्रशस्त किया है। नोटबंदी या विमुद्रीकरण महज एक आर्थिक प्रक्रिया नहीं थी, जिसने पूरे देश को हिला कर रख दिया और पूरे विश्व ने जिसकी कंपन महसूस की, बल्कि इसने हमारे सोचने के अंदाज को ही बदलकर रख दिया है। इससे पहले तक बड़ी बेचारगी के साथ कालाधन और भ्रष्टाचार सरीखी कुप्रवृत्तियों को हम झेलने को मजबूर दिखते थे। नोटबंदी से पहले तक मैं अकसर जनता के बीच इस तरह की टिप्पणियां सुनता रहता था कि इस बुराई की जड़ों पर प्रहार करना नामुमकिन है। यह मान्यता भी धीरे-धीरे एक तरह से स्वीकार्यता हासिल कर चुकी थी कि सरकार या यहां तक कि न्यायपालिका में आपको अपना काम करवाने के लिए पैसे देने ही पड़ेंगे। देश की अर्थव्यवस्था में यह दैत्य इस कद्र अपनी पकड़ बना चुका था कि इसके खिलाफ उठ खड़ा होने की किसी में हिम्मत नहीं थी।  मनमोहन सिंह के कार्यकाल में हमने इस हकीकत को काफी नजदीक से महसूस किया कि तकरीबन हर महीने कोई न कोई बड़ा घोटाला हो ही जाता था और तंत्र में गहरे तक घर कर चुके भ्रष्टाचार के सताए संसार में कालेधन की समस्या लगातार विकराल होती जा रहा थी। उन दिनों यह चुटकुला काफी लोकप्रिय हो चुका था कि अगर किसी महीने भ्रष्टाचार का कोई नया मामला सामने नहीं आता था, तो राजनीतिक विशेषज्ञ उकता से जाते थे।

उसके बाद कालेधन और भ्रष्टाचार को खत्म करने के वादे के साथ नरेंद्र मोदी सत्ता में आए। आज करीब अढ़ाई साल के कार्यकाल के बाद लगभग हर कोई इस बात को मानने लगा है कि शीर्ष स्तर को स्वच्छ रखने के साथ-साथ उन्होंने अपनी गतिविधियों को भी पारदर्शी बनाए रखा है। यहां तक कि अब तो उद्योगपतियों ने भी मानना शुरू कर दिया है कि शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार खत्म हुआ है। इसके बावजूद यह राजनीति और राज्यों के कई विभागों में आज भी बेरोकटोक जारी है।  इस चरित्रहीन दृष्टिकोण के साथ किए जाने वाले गोरखधंधे पर देश में दो बड़े घटनाक्रमों के जरिए जबरदस्त प्रहार किया गया है। पहला था एक देश में एक कर वाला जीएसटी और दूसरा था विमुद्रीकरण के जरिए 1000 और 500 के पुराने नोटों को रद्द करना। जब देश में बड़े नोटों के रूप में प्रचलित करीब 86 फीसदी करंसी महज कागज के टुकड़े बनकर रह गई, तो जनता में गंभीर उठापटक तो शुरू हुई ही, राजनीतिक वर्ग भी सकते में आ गया। जिस तरह से यह फैसला लिया गया, तो सबसे पहली प्रतिक्रिया हैरानी के रूप में सामने आई और दूसरी यह कि इस फैसले में या तो सहयोग किया जाए या विरोध। हालांकि सियासी दलों ने भी शुरू-शुरू में इस फैसले का स्वागत किया, लेकिन जल्दी उन्हें समझ में आ गया कि इस तरह से मोदी ने उन्हें अप्रासंगिक बनाने की तैयारी कर ली है। यहीं से हमारे सियासतदां ने हर कीमत पर नोटंबदी का विरोध करने का निश्चय कर लिया।

जिस संयम के साथ देश की जनता ने पचास दिनों का इंतजार किया, वह अपने आप में एक अनूठी मिसाल थी। यह सामाजिक आचरण में आने वाला एक बड़ा बदलाव था। नोटबंदी के बाद सर्वोच्च न्यायालय तक देश में अराजकता पैदा होने या दंगे भड़कने की शंका जता चुका था। लेकिन जब हमारे प्रतिनिधि राज्यसभा और लोकसभा में मुट्ठियां भींचकर इसका विरोध कर रहे थे, उसी दौरान देश की जनता ने शांति व संयम के साथ लंबी-लंबी कतारों में लगकर भी अपने हिस्से की नकदी बैंकों व एटीएम से निकाली। इस निर्णय के वास्तविक लाभ को जानने के लिए अब अंतिम गणना का इंतजार किया जा रहा है। इन झटकों के कारण जनता के दृष्टिकोण में भी व्यापक बदलाव आया। अब जनता को विश्वास है कि इसके सकारात्मक परिणाम जरूर सामने आएंगे। इससे भी बढ़कर आगामी चुनावों के मद्देनजर नोटबंदी अपना अनुकूल प्रभाव दिखा चुकी है। अगर मतदान व्यवहार में भी बदलाव आता है, तो आगामी पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से भी इस बदले दृष्टिकोण का प्रमाण मिलेगा। मोदी द्वारा प्रोत्साहित की जा रही डिजिटल अर्थव्यवस्था के कारण गांव-देहात के छोटे-मोटे कारोबारी और पान वाले भी लेन-देन के नए-नए विकल्पों को अपनाने लगे हैं। इससे पहले तो उन्होंने नकदी के बिना मुद्रा का कभी विचार भी नहीं किया था। इस फैसले के जरिए हम केवल आर्थिक बदलाव के ही नहीं, बल्कि भारतीयों के व्यवहार और दृष्टिकोण में बदलाव के भी साक्षी बने हैं।

बस स्टैंड

पहला यात्री-कैशलैस होने की सफलता किसमें है?

दूसरा यात्री-इसकी सफलता इसी में है कि एटीएम कैशलैस नहीं, बल्कि कैशफुल हों।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com


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