घने नीम तरु तले

By: Feb 20th, 2017 12:05 am

ललित निबंधों में प्रकृति सर्वाधिक जीवंत रूप में उपस्थित होती है। इनमें प्रकृति के अंग-उपांग इतनी सजीवता के साथ स्थान पाते हैं कि लगता है वे हमारे अस्तित्व का अहम हिस्सा हैं। सच यह भी है कि पहाड़ी क्षेत्र में प्रकृति अपने शीर्षस्थ रूप में प्रकट होती है और इसी कारण ये क्षेत्र ललित निबंधों के लिए मुफीद परिवेश भी उपलब्ध कराते हैं। प्रकृति के लालित्य से हमारा संवाद एक बार फिर  कायम हो, इसी को ध्यान में रखते हुए पंडित विद्यानिवास मिश्र का एक प्रसिद्ध ललित निबंध प्रस्तुत है …. 

वैशाख के महीने में चर जगत में ही नहीं अचर जगत में भी केवल कुछ ही लोग आनंदोत्सव मना पाते हैं, क्योंकि धूप तेज होते-होते महुआ अपना समस्त रस टपका के पात-पात रह जाता है, कोयल की कूक के मंद पड़ते ही आम अपनी मंजरी डालता है और वसंत के स्वागत में उगने वाले फूल अपना रस मधुछत्तों को समर्पित कर मुरझा जाते हैं, पर चिललचिलाती धूप और हहकारती लू में नीम झीने फूलों में झूम उठती है। वैसे मैं नीम से  युगों-युगों से परिचित हूं, जब बचपन में बाबा के जगाने पर जगता तो सबसे पहला दर्शन होता तो इस नीम का और पहला रसास्वाद विवश होकर जो करना पड़ता तो इसी नीम की टहनी का। पर मेरा इससे समझौता नहीं हो पाया, आयुर्वेद की सारी शिक्षाएं और प्राकृतिक चिकित्सा के समस्त व्याख्यान असफल रहे हैं। बबूल की दातुन मुझे भली लगती है, पर नीम की तिताई अभी तक सहन नहीं हो सकी, शायद मेरे जले स्वभाव का दोष हो।  न जाने कितनी बार आंखें करुआ आई हैं, जीभ लोढ़ा हो गई है, कान झनझना उठे हैं और मन तिता गया है, पर तब भी इस नीम से भी अधिक तीती दुनिया से मैं तीता न हो सका, यह जले स्वभाव का दोष नहीं तो क्या है, नीम तो सुनता हूं लगता भर तीता है, पर अपने परिणाम में मधुर होता है, पर इसके प्रतिरूप मानव जगत का तिक्तता तो आदि से अंत तक एकरस है। वैसे दुख की स्मृति कभी-कभी बहुत प्यारी होती है, पर तिक्त अनुभवों की स्मृति तो पहले से चौगुनी असह्य होती है और इसीलिए वह तभी उभरती भी है जब कोई वैसा ही अनुभव सामने आता है। कड़वे अनुभवों की एकमात्र उपलब्धि है खोना, सब कुछ अच्छी चीज खो देना, यहां तक कि जो अच्छी चीज विलग न हो, उसे भी अलग कर देना यह कड़वापन का अंतिम परिणाम है।

पर यह मेरी अपनी बात है, नीम की पत्ती को भांग की जगह इस्तेमाल करने वाले लोग भी धरती तल पर विराजमान होंगे, और हैं; नीम के तेल से सिरदर्द दूर कराने वाले धैर्यशाली मु्झे दिखे हैं और नीम को ही ‘असन वसन डासन’ मान कर चलने वाले प्राकृतिक चिकित्सा के आचार्य भी ढूंढने पर मिल सकते हैं, और ऐसे लोगों से विषैले नाग भी पनाह मांगते हैं। मैं भी उनकी वंदना करता हूं और साथ ही उनसे रश्क भी। एक बार मुझे याद है कि इमली की छाह में कुछ सहपाठियों के साथ गप्प हंक रही थी, इतने में एक तोंदवाले अध्यापक ने आकर प्रवचन शुरू किया था – ‘सुनो! तुम लोग जो इस विषैली इमली के नीचे छंहा रहे हो, यह ठीक नहीं, एक आदमी ने विलायत में यह प्रयोग किया, लगातार छह महीने पहले वह इमली के पेड़ के नीचे विश्राम करते, इमली खाते, इमली का पना पीते और इमली की लकड़ी से रसोई पकाते यात्रा करते रहे और उन्हें भयंकर राजयक्ष्मा हो गया, तब उन्होंने छह महीने नीम के साथ यही प्रयोग किया और वे नीरोग हो गए। सो इस कहानी से यह शिक्षा ग्रहण करो कि इमली कितनी हानिकारक होती है।’ उस दिन तो हम लोग सहमकर खिसक गए थे परंतु बाद को जीवन में इसी इमली से मुझे अधिक लगाव हुआ। मेरे जनपदी गीत की एक कड़ी है ‘बलमु रसिया आवैं धीरे-धीरे, इमिलि पतिया डोलै धीरे-धीरे’ और इस कड़ी पर मैं कुरबान रहा हूं। मेरे बाबा कहा करते, प्रातः इमली का दर्शन बड़ा अशुभ होता है और जिस घर के आगे इमली का पेड़ लग जाए, वह निर्वंश हो जाता है। शुभ-अशुभ, वंश-निर्वंश तो मैं नहीं जानता, इतना जातना हूं कि इमली की अनमोल पत्तियों की स्मृति अब भी मुंह में पानी भर देती है और अधपकी बलुही इमली की फली मिल जाए तो मै अब भी गुलाब-जामुन को तलाक दे सकता हूं, उसके हरिताभ किसलयों में पहले प्यार की अतृप्ति मिलती है। और उसकी अधपकी-अधखट्टी फरुही में (फली) मानवी स्नेह का सच्चा सत्कार।

अब सोचिए, नीम में क्या मिलता है, गंध असह्य, स्वाद असह्य, यहां तक कुसुमित नीम का रूप भी असह्य, चारों ओर सफेद बुंदियां छिटकी हुई, पत्तियां इतनी दूर-दूर कटी-कटी कि पेड़़ की जड़ विचारी ओट के लिए तरसती रहती है। इसलिए आम में फल न आए, महुए में कूंचे न लगें, गुलाब में कली न आए और मधुमास सुना चला जाए, पर नीम बराबर फूलेगी, मनों फूलेगी, बराबर फरेगी और इतना फरेगी कि अकुला देगी, इतना बेशर्म की कट जाने पर भी इसकी लकड़ी में घुन न फटकेगा, यदि कहीं नीम की शहतीर लग गई हो तो वर्षा होते ही जो आकुल दुर्गंध व्यापती है। पर हाय रे नियति का विधान कि घर-घर बिना जतन-सेवा के नीम धरती की छाती का स्नेह छीनकर खड़ी मिलेगी। मुझे इतनी विरक्ति इससे आज क्यों है, बताऊं, इसलिए नहीं कि मैं मधुराई में डूबा रहना चाहता हूं, बल्कि ठीक उल्टे खिरनी सरीखे मधुर ही मधुर फलों से मुझे और भी अरुचि होती है, इसलिए भी नहीं कि मैं स्वास्थ्य को महत्त्व नहीं देता, हां शरीर को मैं साध्य न मानने के लिए विवश हूं क्योंकि शरीर भी भोग के लिए है; इसलिए भी नहीं कि मुझे लुनाई की लालसा है क्योंकि उस क्षेत्र में मैं जानता हूं कि कुछ कमी खप भी सकती है, पर तनिक भी अधिकता हो जाए तो सब कुछ जहर हो जाता है, इसलिए भी नहीं कि पान और आंवले के कसैलेपन से मुझे एकांत प्रीति है, सामान्य प्रीति तो मुझे पान से जरूर है, पर केवल अन्य रसों की आसक्ति मिटाने के लिए, और अंत में इसलिए भी नहीं, कि मैं कच्ची अमिया और बलुही इमली में ही रस की तृप्ति पाने की बात कभी-कभी किया करता हूं, बल्कि इसलिए कि अन्य रसों का आस्वादन करके भी मैं अपने को अविलग समय-समय पर रख सकता हूं, पर नीम के स्वाद को चख कर उससे अविलग बने रहने की कल्पना भी दुस्सह होती है। मेरा तो विश्वास है कि संसार स्वयं एक विशाल नीम का पेड़ है, अंतर इतना ही है कि उसमें एक-दो फल लगने की आशा रहती है, जहां आदमी रग-रग में भीनी तिक्तता से त्राण पा सकता है पर नीम में वह भी नहीं। अब जरा सपाट ढंग से बात करूं। मैं बहुत ही एकाकी व्यक्ति हूं। मैं जितना ही जनसमुदाय के साथ मिलता-जुलता हूं, उतना ही और अपने को विजन एकांत में पाता रहता हूं। कारण यह है कि जीवन के सभी रसों में रमने की चाह है, पर कहीं भी विलमने की धीरता नहीं है और साथ ही किसी से बिछुड़ने की निठुरता भी नहीं है। चाहता हूं, किसी से प्रीति न करूं पर प्रीति हो जाती है तो उसे छोड़ने की बात भी सोच नहीं पाता। ‘उड़ी न सकत उडि़बे अकुलाते’ वाली स्थिति सदा बनी रहती हे। एक चिरंतन आकुलता ही मेरे जीवन का पर्याय बन गई है। इसलिए जब-जब कोई तीखी बात कहीं हो जाती है। तो मन में सहज ही विरसता फैलने लगती है पर ज्योंही उसमें कुछ तितास आने लगती है, त्योंही  दुःखों को हंसकर झेलने वाले मेरे किसी पूर्व साथी ने जो सिद्धांत स्थापित किया था, उसे याद करने लगता हूं – थोड़ा कमाए, उससे वह थोड़ा ही कम खर्च करें, थोड़े से मित्र रखें पर बिना किसी प्रतिदान की शर्त के, थोड़े से लोगों में रमे-घूमे और थोड़े से लोगों को भी तजने की क्षमता हो, पर बिना मन में तितास लिए हुए; क्या इससे अधिक भी चाहने की मानव जीवन में आवश्यकता है? वह व्यक्ति मेरा जीवन-गुरु नहीं, मेरे पथ का पूर्वयात्री राबर्ट लईस्टीवेंसन है,? जिसने मुझे अक्षर डगर दिखाई है। और तब सोचता हूं कि मुझे रोग में घुलना बदा ही हो, पर नीम का काढ़ा मुझे नसीब न हो। नीम से मेरा मतलब उसके समस्त भाई-बंधुओं से है। मैं  जानता हूं किसी फ्रेंच उक्ति के अनुसार जीवन की जो दो धाराएं हैं उनमें मेल कराने वाला यह कषाय भाव ही है, जो भारती का चरम रस है, वे धाराएं हैं –

जीवन लघु है, लघु प्रेम है, लघु स्वप्न है और अंत में है दिन सलामत और जीवन व्यर्थ है, लघु आशा है, लघु घृणा है और अंत में है रात सलामत। कषायरस दिन और रात दोनों की सलामत मनाता है और सहित्य भी। साहित्य जीवन की व्यर्थता और बेईमानी से व्यथित नहीं होना जानता, इसीलिए उसे यह ज्ञान हो पाने पर भी कि जीवन वह छलना है जो अपने प्रियतम को एक दिन तज ही देती है, इतना आश्वासन रहता है कि उस जीवन-छलना को गाली देने का अधिकार तो बच रहा है और यही बहुत है। सो आज के कड़वेपन के साथ मेरा जो घोर अंतर्विरोध है, उसकी उपशांति भी मुझे इस काषाय में मिलती है। इस काषाय की यही विशेषता है कि वह तिक्तता का परिशोध तो करती ही है, साथ ही वह ऐसी स्वादभूमि तैयार करती है कि उसके बाद अस्वाद चीज भी ली जाए तो वह मधुर प्रतीत हो। आंवले की यह मधुकारिता साहित्य की भी विशेषता है। और इस आवले के छोटे से पेड़ के नीचे मुझे नीम की गंध चाहे सताए, पर इसकी तिताई नहीं सताती। यहां बैठे-बैठे मुझे लगता है कि प्रसाद ने जो यह कहीं गाया है कि ‘घने प्रेम तरु तले’ सो भ्रममात्र है, मुझे तो अधिकतर लोग इस ‘घने नीम तरु तले’ बैठे अपनी करुआइयों की करेला-बेल चढ़ाते दिखते हैं, कुछ लोग निबौरी से झोली भरते दिखते है और कुछ लोग नीम की फूलभरी डौंगी से वैशाख की महिमाशालिनी देवी की वंदना करते दिखते हैं, पर समस्त जगत मुझे आज ‘घने नीम तरु तले’ की नसावनी छाया में मंत्रमोहित ही मिलता है। जो इससे मुक्ति पाने के लिए कुछ दौड़-धूप करता है, उसे नीम-पत्तियों की धुंकनी बरबस दी जाती है और वह फिर बेहोश-सा होकर उसी घेरे में गिर पड़ता है। मैं घेरे से बाहर होकर भी इससे घबराता हूं, क्योंकि जाने कब वह घेरा मुझे भी न घेर ले, कारण राजनीति को पूर्णतया ग्रस करके यह साहित्य के चारों ओर भी पड़ चुका है, एक-दो साहित्यकार छटपटा रहे हैं पर बहुतेरे समर्पण करते चले जा रहे हैं। समर्पण न करने का अर्थ आज विनाश या लोप है। पर उन्मादी जीवन में छितवन की गंध इतनी छाई हुई है कि लोप हो जाए चिंता नहीं, परंतु नीम के नीचे न जाने का दुर्निवार संकल्प है। इतना जानता हूं कि इस संकल्प के साथ मेरे जीवन का नदी और धारा का संबंध है। जब तक नदी है, तब तक धारा उसकी यही रहेंगी और वेग में, हो सकती है, कमोबेशी होती रहे, पर धारा का अस्तित्व जिस दिन नहीं रहेगा, उस दिन नदी महासागर में विलीन हो जाएगी। इसलिए मृत्यु के स्पर्श से डरने वाले नीम की पत्ती चबाते हैं, चबाते रहेंगे, इस नश्वर शरीर से मोह करने वाले नीम के नीचे छंहाते हैं, छंहाते रहेंगे और शीतला के उपासक नीम की डाली चढ़ाते है, चढ़ाते रहेंगे, पर मैंने कसम खाई है जिंदगी की, और जिंदगी में नीम को घुसने न देना मेरी एकमेव कामना है।

                                 -विद्यानिवास मिश्र


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