जटिल सवालों से ही निकलेगा उम्मीदों का कारवां…

By: Feb 27th, 2017 12:04 am

अनुभूति ही साहित्य को सिरजती है और यह नितांत व्यक्तिगत होती है। जिसने महसूस किया है, उसकी जुबां से, उसकी कलम से,  अनुभव को सुनने-पढ़ने की संतुष्टि ही अलग होती है। साहित्यकार यदि साहित्य के प्रश्न उठाएं, समाधान सुझाएं, तो वे अधिक वास्तविक बन पड़ते है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए ‘प्रतिबिंब’ ने एक अनूठी पहल की है-अतिथि संपादक की पहल। प्रख्यात साहित्यकार मुरारी शर्मा इस अंक के अतिथि संपादक हैं। उनकी नजरों से होने वाली पड़ताल में हम सभी सहभागी हों, तो उन्हीं के शब्दों में साहित्यिक ‘उम्मीदों का कारवां’ आगे बढ़ सकता है। यह उनके संपादकीय संकलन की पहली किस्त है, अगली किस्त में भी कुछ विचारोत्तेजक दृष्टिकोण आपका इंतजार करेंगे…

फीचर संपादक

मुरारी शर्मा, अतिथि संपादक

साहित्य और समाज एक दूसरे के पूरक हैं। जिस तरह से साहित्य अपने समय, समाज, संस्कृति और इतिहास को रेखांकित करता है, उसी प्रकार एक सभ्य समाज में साहित्य और ललित कलाएं पनपती हैं। राजसत्ता उनका पोषण करती है। मगर आज के उपभाोक्तावादी समय में साहित्य और समाज का रिश्ता पीछे छूटता जा रहा है और समाज में साहित्य की प्रासंगिकता को लेकर अनेक सवाल उठने लगे हैं। इन्हीं सवालों के बीच से ही उम्मीदों का कारवां निकल सकता है। साहित्य समाज को बनाता है और साहित्य को समाज से लंबे समय तक  खारिज नहींं किया जा सकता है। अपना समाज भी साहित्य से अछूता नहीं है। निश्चय ही यह समाज संवेदनाओं से भरा है। इसमें केवल नफरत और दुर्भावनाएं ही नहीं है बल्कि एक दूसरे के प्रति दया, प्यार, सुंदरता , साहस ,घृणा और गर्व का भाव भी हैं। इसे केवल साहित्य के माध्यम से ही महसूस किया जा सकता है। स्व. कमलेश्वर के शब्दों में साहित्य वही है जो पत्थर की आंख से पानी निकाल सकता है। समाज में ये सभी भावनाएं साहित्य विशेषकर कविता से ही पनपी हैं। कविता महज प्रेम-प्यार की बात नहीं करती है। वह तो मानव के अंतर्मन को खंगालती है। अपने लोक से जुड़ी कविता माटी की महक को समेटती है। वन फूलों सी महक बिखेरती है और कविता बहारों का राग छेड़ती है। पतझड़ के उदास मौसम और सर्दियों की ठिठुरन में अलाव की बात करती है।  रूस के एक प्रांत दागिस्तान के लोक कवि रसूल हमजातोव कहते हैं कि कभी-कभी मैं अपने से यह प्रश्न करता हूं कि क्या चीज कविता का स्थान ले सकती है। इसमें कोई शक नहीं कि कविता के अलावा पहाड़ हैं, बर्फ और नदी -नाले हैं, बारिश और सितारे हैं, सूरज और अनाज के खेत हैं…। मगर क्या पहाड़ , बारिश, फूल और सूरज का कविता के बिना और कविता का इनके बिना काम चल सकता है? वे आगे कहते हैं -कविता के बिना पहाड़ पत्थर बन जाएंगे, बारिश परेशान करने वाले पानी और डबरों में बदल जाएगी और सूर्य गर्मी देने वाला अंतरिक्षीय पिंड बनकर रह जाएगा।  साहित्य समाज को संवेदनशील बनाता है, कविता संस्कारित करती है और मनुष्यता की पक्षधर बनकर खड़ी होती है। जहां तक हिमाचली सृजनशीलता का सवाल है, यह राष्ट्रीय मुख्यधारा के केंद्र में  भले ही न रही हो पर हाशिए पर भी नहीं रही है। पं.चंद्रधर शर्मा गुलेरी और क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल के समय से ही साहित्य की मुख्यधारा में हिमाचली रचनाशीलता का हस्तक्षेप रहा है। यह क्रम आज  भी जारी है। हिमाचली रचनाशीलता ने मुख्यधारा के साहित्य में बराबर हस्तक्षेप किया हैं। अब सवाल उठता है कि साहित्य पाठक से दूर क्यों है? और इसके लिए दोषी कौन है? इसके  लिए कोई एक कारण नहीं है । एक समय था जब साहित्य पढ़ना और उस पर चर्चा करना बौद्धिकता और प्रगतिशीलता की निशानी माना जाता था। धर्मयुग, सारिका , साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाएं ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ाती थी। मगर एक के बाद एक ये सारी पत्रिकाएं बंद होती चली गई। अखबारों में भी साहित्य के लिए जगह सिकुड़ती चली गई। मजे की बात तो यह है कि पाठकों ने कभी भी साहित्य को अखबारों के पन्नों से हटाने का विरोध नहीं किया। मगर यह भी कड़वा सच है कि समाज में साहित्य के प्रति उदासीनता का माहौल बनता चला गया।  इसके बावजूद साहित्य लिखा जा रहा है, वह अलमारियों में बंद होने के लिए नहीं है। साहित्य लोगों के बीच जा रहा है। इसमें लघु पत्रिकाओं की  भूमिका अहम रही है, जो एक आंदोलन के रूप में पाठकों और साहित्य के बीच क ड़ी का काम कर रही है और साहित्य पाठकों तक पहुंच रहा है। भले ही इसकी भी कुछ सीमाएं है। साहित्य और समाज का रिश्ता और मजबूत हो इसके लिए साहित्यकारों को इस दिशा में प्रयास करने होंगे और साहित्यकारों को समाज के बीच ले जाना होगा। सरकारी आयोजनों की अपनी कुछ सीमाएं हैं। औपचारिकताएं है,  इनका जनता से जुड़ाव नहीं रहता। इससे हटकर लेखक संगठनों को अपने स्तर पर भी प्रयास करने होंगे और लोगों के बीच अपनी पैठ बढ़ानी होगी। हिमाचल में इस दिशा में कुछ संगठन प्रयासरत भी हैं और इसके परिणाम भी सकारात्मक आ रहे हैं। साहित्य, संस्कृति और कलाओं के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए बने भाषा संस्कृति विभाग और भाषा अकादमी भी अपनी भूमिका पर गौर करते हुए अपनी  जिम्मेदारी का निर्वहन ईमानदारी से करने का प्रयास करें तो हिमाचल में साहित्य और पाठक का रिश्ता और मजबूत होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।

– मुरारी शर्मा, 133/7, मोती बाजार, मंडी-175001

विमर्श के प्रश्न

 1-हिमाचली साहित्य पाठक से दूर क्यों-दोषी कौन ?

 2-साहित्य पाठक के लिए लिखा जा रहा है या भाषा अकादमी के लिए !

 3-समग्र हिमाचल का प्रतिनिधित्व करने वाला साहित्य क्यों नहीं लिखा जा रहा है?

 4- साहित्य के अध्ययन-अध्यापन में स्खलन क्यों?

 5-हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय जैसे शैक्षणिक संस्थान कौन सी भूमिका नहीं निभा पाए?

 6-हिमाचल की भाषा अकादमी कहां चूक रही है, क्या कर सकती है?


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