धार्मिक पर्यटन को मिले बजटीय चढ़ावा

By: Feb 21st, 2017 12:07 am

newsइंदु पटियाल

लेखिका, कुल्लू से स्वतंत्र पत्रकार हैं

हर हिमाचली को संस्कृति के संरक्षण संवर्द्धन में ब्रांड एबेंसेडर की भूमिका निभानी होगी। प्रिटि या कंगना पर करोड़ों लुटाने की क्या जरूरत। प्रदेश सरकार से यह भी अपेक्षा रहेगी कि वह आगामी बजट में पर्यटन क्षेत्र को संवारने के लिए विशेष ध्यान देगी। इससे हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का प्रचार-प्रसार भी होगा…

छोटी-छोटी रियासतों को मिलाकर हिमाचल प्रदेश अस्तित्व में आया है। हर रियासत का शानदार इतिहास अपने होने की मार्मिक कथा बयां करती है, रियासत कालीन परंपराएं ही कुल्लू दशहरा, मंडी शिवरात्रि और चंबा के मिंजर जैसे मेलों में पुरातन स्वरूप में प्रतीकात्मक तौर-तरीकों से निभाई जाती हैं। प्रदेश के सभी जिलों में कोई न कोई मेला या ग्रामीण क्षेत्र में देव परंपराएं फागली, काहिका, जाच, हूम, गुण्ण, देउली या दियाली, झीरू आदि देव उत्सव भी आज भव्य मेलों का रूप ले चुके हैं। उक्त धरोहर परंपराओं को ग्रामीण पर्यटन से जुड़े सैलानी अधिक कौतुहल से देख आनंदित होते हैं। अनूठी संस्कृति के दर्शन मात्र से जहां ग्रामीण पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा, वहीं पर्यटन का अच्छा मनोरंजन भी होगा। इस पहाड़ी प्रदेश के लोगों ने अपनी विरासत को सही सलीके से संजोए रखा है। यह सर्वविदित है कि देव आयोजन या देवता के आदेश और पुरानी परंपरा अनुसार ही संपन्न होते हैं। देव आयोजन से जुड़ी हर परंपरा ग्रामीण धार्मिक पर्यटन के रूप में विकसित की जा सकती है।इससे हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का प्रचार-प्रसार भी होगा। इसके लिए भाषा एवं संस्कृति विभाग और पुरातत्त्व विभाग को साथ मिलकर काम करना होगा।

सरकार को केंद्र से ईको टूरिज्म प्रोजेक्ट्स के तहत करोड़ों रुपए की राशि स्वीकृत होती है। उस राशि को योजनाबद्ध तरीके से गांवों तक प्राथमिक सुविधाओं को बहाल करने पर व्यय करना चाहिए। यह अति दुखद पहलू है कि आज तक प्राकृतिक सौंदर्य से ओत-प्रोत इस प्रदेश का पर्यटन बने बनाए ढर्रे पर ही रेंग रहा है। शिमला, मनाली, डलहौजी, लाहुल-स्पीति या लेह-लद्दाख से आगे हम नहीं बढ़ सके। नए पर्यटन स्थल के रूप में छिटपुट क्षेत्र यदि पर्यटन व्यवसायियों के प्रयास से उभरे भी हैं, तो वहां ढाबा-संस्कृति या रेहड़ी-फड़ी के लगने से गंदगी फैलने से पर्यावरण प्रदूषण बढ़ा है। बंजार की तीर्थन वैली, जलोड़ी, सोझा, वाहू, चच्योट की गाड़ा गुशैणी, जंजैहली वैली, मंडी की स्नोर वैली, चौहार वैली, चंबा के पांगी-भरमौर तथा किन्नौर में अनेक मनभावन स्थल हैं, जो विश्व के उत्कृष्ट पर्यटन स्थलों के रूप में स्थापित हो सकते हैं। साहसिक पर्यटन से जुड़े स्थानीय युवाओं के प्रयास से उक्त सभी क्षेत्रों में प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में पर्यटक पर्वतारोहण हेतु पहुंचते हैं, परंतु सरकार की ओर से व्यू प्वाइंट, रोप-वे तथा हवाई पट्टी के विस्तारीकरण जैसी घोषणाओं को अमलीजामा पहनाने की जहमत कोई नहीं उठाता।

यह हैरतअंगेज सत्य है कि पर्यटन निगम के उपाध्यक्ष मेजर मनकोटिया नए पर्यटन स्थलों का विस्तृत खाका तैयार कर तथा प्रस्तावित स्थलों में मौसम के अनुकूल पर्यटन गतिविधियों को संचालित करने संबंधी अनापत्ति पत्र के साथ, पर्यटन विकास में वांछित बजट राशि के अनेक प्रोजेक्ट्स केंद्र से स्वीकृत कर चुके हैं। स्वीकृत पर्यटन परियोजनाओं का श्रेय लेने की होड़ में, किसी योग्य, अनुभवी नेता की धूल चटाने की मंशा से आदेश, आपत्ति या आनाकानी में उलझाना क्या प्रदेश की जनता के साथ धोखा नहीं है? उक्त परियोजनाओं को सिरे चढ़ाने से हमारे युवाओं के लिए पर्यटन व्यवसाय के रूप में स्वतः ही स्वरोजगार के द्वार खुलने थे। इस बात को लेकर गत दिनों हुई एक समीक्षा बैठक के बाद मेजर साहब की अधिकारियों के प्रति नाराजगी खुलकर सामने आई है। उनका गुस्सा जायज भी है। 25 जनवरी, 1971 को भारत के 18वें राज्य बनने के बाद यद्यपि इस प्रदेश ने शिक्षा एवं विकास के क्षेत्र में लंबी छलांग लगाई है, परंतु ग्रामीण पर्यटन एवं ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं में हिमाचल सदा फिसड्डी ही रहा है। ऐसा नहीं है कि सरकार को पैसों की कमी है, बल्कि इस क्षेत्र में केंद्र से मिला बजट प्रतिवर्ष लैप्स हो जाता है। एक-दूसरे को आगे बढ़ने से रोकने हेतु आपसी खींचतान के कारण विकास बाधित हो रहा है। ईएसआई सुंदरनगर को केंद्र से नकारना, स्की विलेज, सोलंग, मनाली ठंडे बस्ते में डालना, सेंट्रल यूनिवर्सिटी देहरा या धर्मशाला विवाद, रोप-वे, हवाई पट्टी विस्तारीकरण को भुंतर, गगल या शिमला के लिए नेताओं द्वारा प्राथमिकता की होड़ में उलझाना क्या उचित है? इस प्रकार तो हम संसाधनों के अपने घर में होने के बावजूद उच्च शिक्षा, स्वास्थ्य व पर्यटन सुविधाओं के लिए दूसरे राज्यों के रहमोकरम पर जीने को विवश हैं। सच यह भी है कि हिमाचल प्रदेश के सभी प्रमुख पर्यटन स्थलों पर अच्छे होटल तीन सितारा या पांच सितारा बाहरी लोगों के ही हैं, जहां हिमाचली युवा नौकर हैं। क्यों हम अपने युवाओं को अच्छा भविष्य नहीं देना चाहते? नेतृत्व को अपने भीतर युवा भविष्य को उज्ज्वल करने हेतु स्वप्न देखने चाहिए और उन्हें पूरा करने के लिए पर्यटन भी करने चाहिए।

आज अगर हम प्राचीन परंपराओं, लोक संस्कृति, देव संस्कृति, पुरातन लोक संगीत, वाद्य यंत्र, पारंपरिक वेशभूषा एवं खान-पान जैसी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को ग्रामीण मेलों में पर्यटन प्रचार के साथ जोड़कर मनाते हैं, तो लाखों पर्यटक यहां का रुख करेंगे। हमें कुदरत से बहुत कुछ मिला है। इसे रोप-वे, हेलि टैक्सी और प्राथमिक सुविधाओं से जोड़कर, स्वच्छता से संवारना होगा, न कि इन स्थलों को कंकरीट का जंगल बनाना चाहिए। सरकार को इस दिशा में नीतिगत निर्देश लागू करने चाहिए। धरोहर मेलों व धार्मिक उत्सवों में आयोजित सांस्कृतिक संध्याओं में हिमाचली लोक गायकों, बजंतरियों और कलाकारों को यथोचित मान-सम्मान व मानदेय देना चाहिए। हर हिमाचली को संस्कृति के संरक्षण संवर्द्धन में ब्रांड एबेंसेडर की भूमिका निभानी होगी। प्रिति या कंगना पर करोड़ों लुटाने की क्या जरूरत। हिमाचल प्रदेश सरकार से यह भी अपेक्षा रहेगी कि वह आगामी बजट में पर्यटन क्षेत्र को संवारने के लिए विशेष ध्यान देगी।


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