नजराने की कैद में देव ध्वनि

By: Feb 24th, 2017 12:01 am

रिकार्ड के लिए देव ध्वनि का लिम्का बुक में दर्ज होना समूचे प्रदेश का गौरव बढ़ाता है, लेकिन इसके साथ बजंतरी समाज को नजदीक से समझने की टीस भी जुड़ती है। देव परंपरा का एक पहलू बजंतरियों के साथ रहता है और इनकी निगरानी में संगीत की धुनों का आकाश चलता है, लेकिन अपने नजराने की टोह में यह समुदाय आज भी आर्थिक रूप से अपाहिज है। बेशक एक साथ 1806 बजंतरियों द्वारा पैदा हुई देव ध्वनि ने विश्व के अन्य रिकार्डों के कान खड़े कर दिए, लेकिन समाज की तहों में बंद इनकी सिसकियां भी तो सुनी जाएं। देव समाज को अपनी धुन पर नचाते बजंतरियों को आखिर समाज ने क्या दिया। हमारा ज्ञान और देव परंपराओं के प्रति निष्ठा यह तो नहीं सिखाती कि इसके साथ खड़े एक बड़े समुदाय को हाशिए के बाहर देखें। बेशक रिकार्ड बनाकर मंडी प्रशासन ने हिमाचली संस्कृति का पैमाना तय किया, लेकिन जब देव ध्वनि आकाश तक गूंज रही होगी तब भी किसी बजंतरी का चूल्हा उदास रहा होगा। सुबह से शाम तक देव परंपरा के हर लम्हे को जीने वाला बजंतरी आखिर कब तक भिक्षा दान के रूप में अपनी कला का संरक्षण कर पाएगा और यही वजह है कि आने वाली पीढ़ी वाद्य यंत्रों से दूर हो रही है। वाद्य यंत्रों से दूर जीवन की धुन इस वर्ग की भलाई का राग नहीं सुन पा रही है, तो यकीनन इसका प्रायश्चित करना होगा। प्रदेश के कला, संस्कृति एवं भाषा विभाग तथा अकादमी यूं तो पुरस्कारों के मार्फत हर तरह के सांस्कृतिक, कलात्मक व साहित्यिक सृजन को पुरस्कृत करते हैं, लेकिन बजंतरी पर केंद्रित कोई स्थायी पुरस्कार या प्रश्रय पैदा नहीं हुआ। नजराने की कैद में बजंतरी का भविष्य दो-तीन सांस्कृतिक मेलों की वजह से तय नहीं होगा, बल्कि इन्हें आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक सम्मान चाहिए। अगर शिवरात्रि महोत्सव के दौरान विशिष्ट अतिथियों के स्वागत में मंडी प्रशासन को तीस लाख रुपए खर्च करने पड़ें या बाहरी कलाकारों का मानदेय लाखों रुपए ले जाता है, तो बजंतरी के साथ हम कब न्यायिक सलूक करेंगे। आवश्यकता यह है कि बजंतरी को कलाकार का दर्जा मिले और इसी के अनुरूप पारिश्रमिक भी तय हो। ऐसे में देव ध्वनि से मिली पहचान को हम कल के संरक्षण में एक बड़ा कदम मान सकते हैं। इससे पूर्व कुल्लू प्रशासन ने महिला नाटी के जरिए विश्व रिकार्ड बनाकर एक जबरदस्त पहल की और मंडी शिवरात्रि में भी देव ध्वनि का आकाश सृजित हुआ। प्रशासनिक पहल के ऐसे प्रयोग प्रशंसनीय हैं और अगर इसी तरह हर जिला रिकार्ड बनाए, तो हिमाचली संस्कृति के कई पक्ष विश्व के सामने आएंगे। कांगड़ा प्रशासन झमाकड़ा को लेकर प्रयास कर सकता है, तो गद्दी नृत्य की लय और ताल पर चंबा जिला की संस्कृति का नूर सामने आ सकता है। कहना न होगा कि कुल्लू-मंडी की प्रशासकीय नजर ने जिन परंपराओं को अंतरराष्ट्रीय पटल पर सजा दिया, उनके प्रति सरकार का नजरिया व नजराना भी मेहरबान करना होगा। बेशक अब निजी प्रयास से ऐसे कलाकारों की मांग पारिवारिक समारोहों तक होने लगी है, लेकिन गाने-बजाने को सामाजिक प्रश्रय पूरी तरह नहीं मिला है। आज भी लाहुल-स्पीति के राम ढोल की गूंज एक सीमित परिधि में घूम रही है या विरले ही शहनाई वादक अपनी कला के साथ मुस्कराते हैं। कबायली इलाकों की सांस्कृतिक विरासत का मूल्यांकन तभी पूरा होगा, जब ऐसे संदर्भों का चित्रण जनता के सामने हो। हिमाचल में अब एक ऐसे थियेटर आंदोलन की शुरुआत करनी पड़ेगी, जिसके तहत न केवल लोक कलाओं का मंचन सशक्त होगा, बल्कि हर महत्त्वपूर्ण पर्यटन-धार्मिक स्थल के अलावा मुख्य शहरों में सभागारों की शृंखला भी खड़ी हो सकती है। पर्यटकों से हिमाचली संस्कृति का परिचय विभिन्न कलाकार ही करा सकते हैं।


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