भारत का इतिहास

By: Feb 22nd, 2017 12:05 am

भारत विभाजन की अनिवार्यता

इस बारे में दो मत नहीं हो सकते कि भारतवासियों का विशाल बहुमत विभाजन का कट्टर विरोधी था। हिंदू और सिख तो उसके विरुद्ध थे ही, मुसलमानों का भी एक वर्ग उसके खिलाफ था। फिर भी, इस बारे में विभिन्न मत हो सकते हैं कि कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं-विशेषकर नेहरू और पटेल… ने उस समय, सांप्रदायिक आधार पर, देश के विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना को स्वीकार कर उचित किया या अनुचित। कहा जा सकता है कि वे माउंटबेटेन आदि की मीठी-मीठी बातों के बहकावे मंे आ गए, एक बार शक्ति और सत्ता के स्थानों पर पहुंचने के बाद वे उसे छोड़ना नहीं चाहते थे, वे संघर्ष करते-करते थक गए थे तथा अब और संघर्ष के लिए तैयार नहीं थे अथवा उन्होंने डर और घबराहट में मुस्लिम, संप्रदायवाद, हिंसा और अन्याय के सामने घुटने टेक दिए और अपनी नैतिक हार मान ली। यह भी तर्क दिया जा सकता है कि तथाकथित अहिंसात्मक और शांतिपूर्ण ढंग से स्वाधीनता पाने का प्रयास करने की तथा मुसलमानों के तुष्टीकरण की सारी नीति ही एक भारी भूल थी और वह असफल रही। संभवतः एक सशस्त्र क्रांति में भी इसके अधिक समय न लगता और इससे अधिक रक्तपात न होता, एक-दूसरे के प्रति इतनी घृणा न बढ़ती, जितनी जानें सांप्रदायिक दंगों में गईं और आपस में स्वयं भारतीयों ने भारतीयों पर जो अमानुषिक अत्याचार किए उनका अवसर न आता, लड़ाई विदेशी आक्रांता के साथ होती, आपस में नहीं और यदि देश की एकता की रक्षा के लिए गृह-युद्ध की भी नौबत आती तो वह भी शायद जो हुआ उसने श्रेयस्कर होता और देश की एकता की रक्षा हो जाती। यह भी कहा जा सकता है कि पाकिस्तान बनने से इस उपमहाद्वीप की सांप्रदायिक समस्या हल नहीं हुई, दंगे-फसाद चलते रहे, लाखों लोग बेघर हो गए, असंख्य परिवार नष्ट हो गए और विश्व के इतिहास में सबसे बड़ी संख्या में विस्थापितों को फिर से बसाने की समस्या सामने आई। विभाजन के बाद इतने से दुख की कहानी का अंत हो गया हो सो भी नहीं। पाकिस्तान घृणा के आधार पर जन्मा था और घृणा के सहारे ही पलता रहा। 1947 और 1971 के बीच उसने तीन बार भारत पर हमले किए, ताकि वह पाकिस्तान की जनता का ध्यान गरीबी, बेकारी और पिछड़ेपन की असली समस्याओं से हटाकर उसे भारत-विरोधी प्रचार के सहारे गुमराह कर सके। विभाजन के 24 वर्ष बाद एक बार फिर शर्मनाक अत्याचार से पीडि़त लगभग एक करोड़ विस्थापितों ने भारत में शरण ली। पूर्वी बंगाल में जो कुछ हुआ उसे लिपिबद्ध करने वाले इतिहासकारों और पढ़ने वाले पाठकों की आंखों में आंसू उमड़ आएंगे।


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