मिथकीय फ्रेम में पद्मिनी

By: Feb 12th, 2017 12:07 am

जावेद अख्तर जैसे स्वघोषित प्रामाणिक इतिहासकार अमीर खुसरो के साक्ष्य को प्रामाणिक क्यों नहीं मान रहे हैं, यह तो वही बता सकते हैं। इतिहास को मिथक बनाकर, उस पर फूल-माला चढ़ाने की यह कला भारतीय इतिहासकारों का प्रिय शगल रही है। इस बार दिक्कत यह हुई कि वे मिथकों की दुनिया को पंद्रहवीं शताब्दी तक खींच लाया गया…

मिथकीय फ्रेम में पद्मिनीभारत में मिथक बनने-बनाने की प्रक्रिया एक नए और रोचक दौर में पहुंच गई है। शायद ही दुनिया में अन्य कोई ऐसा देश हो, जहां पर पांच सौ साल पहले घटी किसी घटना को यकायक मिथक साबित करने की कोशिश होती हुई दिखे। मिथक बनाम इतिहास की लड़ाई को पंद्रहवीं शताब्दी तक खींच लाने का कारनामा अपने ही देश में हो सकता है। इसमें संदेह नहीं कि मिथक हर काल में रचे जाते हैं और उनमें से कुछ लोकप्रिय भी होते हैं, लेकिन नवीन मिथकों का इतिहास बनना लगभग असंभव है। भारत में अभीमिथक बनाम इतिहास का विमर्श तीसरी शताब्दी तक सीमित रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार तीसरी शताब्दी के बाद बहुत स्पष्ट ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं और इसके बाद किसी मिथक के इतिहास बनने की संभावनाएं लगभग न के बराबर है। मिथकों की दुनिया को रानी पद्मिनी तक खींच लाना अकादमिक जगत में गहराई तक घर कर चुकी स्व-नकार की प्रवृत्ति की पराकाष्ठा ही कही जाएगी। एक ऐसी घटना जो पिछली पांच सदियों से लोकमन में जीवंत बनी हुई है, उस पर हमारे अकादमिक जगत के विशेषज्ञों अथवा संस्कृतिकर्मियों ने निष्पक्ष शोध करने की फुर्सत नहीं मिली। उनका ध्यान इस विषय पर तब जाता है, जब उस पर एक फिल्म बनने लगती है और उसको लेकर कुछ विवाद होता है। इसके बाद वे जगते हैं और उन्हें याद आता है कि यह सच नहीं, बल्कि मिथक है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस घटना के वर्णन में पर्याप्त विविधता मिलती है और यह भी संभव है कि इसमें कुछ अतिरंजना भी हो। रानी पद्मिनी की कहानी जिस दौर की है, वह दौर चारण-भाटों का है। उस दौर के श्रेष्ठ कवि भी राजा-रानियों के गुणों का अतिरंजित बखान करने के दोष से मुक्त नहीं हो पाए हैं। यह दोष मालिक मोहम्मद जायसीकृत ‘पद्मावत’ में भी हो सकता है, जिन्होंने रानी पद्मिनी की सुंदरता और चारित्रक श्रेष्ठता को आधार मानकर इस ग्रंथ की रचना सन् 1540 में की थी। पद्मिनी का जौहर समाज और साहित्य में इस कद्र रचा-बसा रहा है कि इसका उल्लेख जवाहरलाल नेहरू ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘डिस्कवरी ऑफ  इंडिया’ में बहुत भावुक तरीके से किया है। पद्मावत की कथा के अनुसार चित्तौड़ के शासक  रतनसेन के राज्य में एक ओझा राघव चेतन रहता था। एक बार रतनसेन ने उसको रंगे हाथों तामसिक अनुष्ठान करते हुए पकड़ लिया। सजा के रूप में उसका मुंह काला करके राज्य से बाहर निकाल दिया गया। राघव चेतन ने इस अपमान का बदला लेने की ठानी। वह दिल्ली पहुंच गया और उस जंगल में जाकर सम्मोहक बांसुरी बजाने लगा, जिसमें अलाउद्दीन खिलजी शिकार खेलने जाता था। उसकी धुन से मुग्ध होकर अलाउद्दीन अपने सैनिकों को आदेश देता है कि वे बांसुरीवादक को बंदी बनाकर दरबार में पेश करें। दरबार में पेश होने के बाद राघव चेतन अलाउद्दीन के समक्ष रतनसेन की रानी पद्मिनी की सुंदरता का उल्लेख करता है और उसे चित्तौड़ पर आक्रमण करने के लिए उकसाता है। अलाउद्दीन आक्रमण करता है, आठ महीने तक भयंकर लड़ाई होती है, लेकिन कोई निष्कर्ष नहीं निकलता। इसके बाद बातचीत के क्रम में अलाउद्दीन रतनसेन के समक्ष रानी पद्मिनी को देखने का आग्रह करता है। रानी पद्मिनी इसके लिए शुरू में तैयार नहीं होतीं, लेकिन बाद में वह दर्पण में खुद का चेहरा अलाउद्दीन को दिखाने को तैयार हो जाती हैं। रानी को देखने के बाद उन पर मुग्ध हुआ खिलजी कपट से रतनसेन को बंदी बना लेता है। इसके बाद गोरा और बादल नामक दो साहसी सेनापतियों के नेतृत्व में रानी पद्मिनी को सौंपने के बहाने 150 पालकियों की एक सैन्य टुकड़ी खिलजी की सेना पर आक्रमण करती है और रतनसेन को मुक्त करा लेती है। इससे गुस्साया खिलजी किले पर भीषण आक्रमण करता है। लड़ाई में रतनसेन और उसके सेनापति मारे जाते हैं। अपनी सेना की पराजय सुनकर रानी पद्मिनी, वीरगति को प्राप्त हुए सेनापतियों की पत्नियों सहित जौहर कर लेती हैं। अलाउद्दीन जब रनिवास में पहुंचता है तो वहां उसे अस्थिभस्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं प्राप्त होता। रानी पद्मिनी का उल्लेख अलाउद्दीन के चित्तौड़ आक्रमण के दौरान उसके साथ गए कवि अमीर खुसरो ने अपनी किताब ‘खजाइन-उल-फुतुह’ में किया है। इतिहासकार फरिश्ता की किताब ‘गुलशन-ए-इब्राहिमी’ में भी इस घटना का उल्लेख मिलता है। अब जावेद अख्तर जैसे स्वघोषित प्रामाणिक इतिहासकार अमीर खुसरो के साक्ष्य को प्रामाणिक क्यों नहीं मान रहे हैं, यह तो वही बता सकते हैं। इतिहास को मिथक बनाकर, उस पर फूल-माला चढ़ाने की यह कला भारतीय इतिहासकारों का प्रिय शगल रही है। इस बार दिक्कत यह हुई कि वे मिथकों की दुनिया को पंद्रहवीं शताब्दी तक खींच लाए और इसी कारण उनकी बौद्धिक बेईमानी सबके सामने आ गई।

– डा. जयप्रकाश सिंह

 


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