मेलों में बना रहे ‘लोक’

By: Feb 20th, 2017 12:05 am

मेले हमारी संस्कृति का एक दर्पण हैं, प्रदेश की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक हैं। यहां तो साल भर लगभग हर रोज ही कहीं न कहीं ढोल- नगाड़ों के स्वर गूंजते रहते हैं, पूरा साल मेलों का दौर चलता है और इससे ही हमारी समृद्ध संस्कृति परिलक्षित होती है। बदलते दौर में मेलों का स्वरूप बदला है, मेले अपने आप में लोक मानस के आनंद का प्रतीक होते थे, अब इन पर सरकार व प्रशासन ने अपनी ऐसी जकड़ बना ली है कि ये धीरे-धीरे लोक मेले कम सरकारी व प्रशासनिक आयोजन ज्यादा हो गए हैं। जब से सरकार व प्रशासन का हस्तक्षेप लोक मेलों में बढ़ा है इनकी सांस्कृतिक गरिमा फीकी और प्रशासकीय चमक ज्यादा हो गई है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि प्रशासन  सरकारी काम धाम की प्राथमिकता को छोड़ कर केवल मेले की तैयारियों को प्राथमिकता देने लगता है। सारी मशीनरी मेलों के आयोजन के लिए झोंक दी जाती है और फिर होता यह है कि ये मेले महज सरकारी अधिकारियों व नेताओं की जागीर जैसे बन जाते हैं। सारे निर्णय चंद नेता व आला अधिकारी लेते हैं जिसका नतीजा यह होने लगा है कि इससे लोक पक्ष गायब होने लगा है,सांस्कृतिक गरिमा खत्म होने लगी है। प्रदेश में मेलों की शुरुआत मंडी के शिवरात्रि मेले से होती है, जो सात दिन चलता है। इसे प्रदेश का सबसे बड़ा देव समागम कहा जाता है, जिसमें सवा दो सौ के लगभग पंजीकृत (मेला समिति द्वारा) और सौ से  अधिक गैर पंजीकृत यानी साढ़े तीन सौ के लगभग देवी- देवता आते हैं। हर देवी- देवता के साथ देवलु व बजंतरी भी होते हैं जिनकी संख्या 30 से 200 तक होती है। ऐसे में हजारों हजार लोग देवी- देवताओं के साथ मेले में पहुंचते हैं। इनके मंडी आगमन पर ही मेला स्वतः शुरू हो जाता है, लोग देवमयी रंग में रंग जाते हैं।

इसके बाद ही प्रदेश में दूसरे मेलों की शुरुआत होती है और फिर दिसंबर तक ये लोक मेले चलते रहते हैं। सरकारी व प्रशासनिक जकड़ में आने के बाद इन मेलों में मनोरंजन के नाम पर मुंबइया संस्कृति का प्रचलन बढ़ा है, जिस पर हर साल करोड़ों रुपए लुटाए जाते हैं। ये करोड़ों रुपए सरकार नहीं देती बल्कि इसे लोगों से एकत्रित किया जाता है। उदाहरण के तौर पर शिवरात्रि मेले के आयोजन पर लगभग अढाई करोड़ रुपए खर्च होने लगा है और इसमें लगभग आधा मनोरंजन के नाम पर होने पर सांस्कृतिक संध्याएं चट कर जाती हैं। सारा ध्यान इसी पर केंद्रित हो जाता है और इसका खामियाजा लोक संस्कृति को भुगतना पड़ता है, जिसका लोक पक्ष बेहद कमजोर होता जा रहा है। अब जिस कलाकार ने किसी मेले में आकर शुरुआत कर दी फिर वह साल भर प्रदेश के मेलों में ही घूमता रहता है और मुंहमांगे दाम लेता रहता है। मनोरंजन के लिए मुंबइयां संस्कृति जो टीवी, इंटरनेट समेत अन्य कई माध्यमों से लोगों को उपलब्ध है उसे ही यहां पर परोसा जाता है और खूब पैसा इसमें चला जाता है। अब यह चरम सीमा को छूने लगा है। मनोरंजन के मायने भी वर्तमान युग में बदलने लगे हैं, तो जरूरी है कि मेलों के आयोजनों में भी बदलाव हो, मेलों को स्वतः होने दिया जाना चाहिए, देवी देवता आएंगे, ढोल- नगाड़े, करनालें, रणसिंघे शहनाइयां बजेंगी, इनकी थाप पर देवलु नाचेंगे, आसमान देव यंत्रों की ध्वनि से गूंजेगा, देव लोक का वातावरण बनेगा, बस यही तो मेला है। फिर बाहर से आने वालों के लिए यही एक रोमांच या फिर शोध का विषय होता है क्योंकि मेले की आत्मा ही देवी- देवताओं के रथ, देव ध्वनि और देवलुओं का उल्लास होता है। प्रशासन का ध्यान तो मेलों में आने वाले लोगों के लिए सुविधाओं पर होना चाहिए, सभी को साफ पानी पीने को मिले, शहर का चप्पा- चप्पा साफ हो, हर गली चौराहे, सड़क बाजार में रोशनी हो, बाह्य शौच मुक्त किए जा चुके प्रदेश में कम से कम मेलों के दौरान एक भी व्यक्ति खुले में शौच न जाए, कानून व्यवस्था ऐसी हो कि मेले में आने वाले देवी- देवता देवलु और लोग बिना डर से दिन-रात यहां रहें, यातायात सुचारू चले, आने- जाने के लिए पर्याप्त परिवहन व्यवस्था हो और खरीददारी के लिए सस्ता व ऐसा विविध सामान उपलब्ध हो, जो आम तौर पर नहीं मिलता। लोक संस्कृति के लिए घातक परंपराएं, जिसे  चंद नेता व अधिकारी आगे बढ़ा रहे हैं, उन्हें रोकने की जरूरत है। हालांकि इससे हटकर कुछ सराहनीय प्रयास भी लोक संस्कृति और प्राचीन इतिहास को संजोने के इन मेलों में हुए हैं जो काबिले तारीफ हैं। इनमें बढ़ोतरी की जरूरत है, इन्हें प्राथमिकता देने का वक्त आ गया है। प्राइड ऑफ हिमाचल, कुल्लू नाटी में दस हजार महिलाओं ने पारंपरिक परिधानों में एक साथ लगातार दो साल नाटी नाची, तो मंडी में दो हजार बजंतरियों ने देव ध्वनि करके देव लोक का नजारा प्रस्तुत किया। कुल्लू में स्थानीय संस्कृति व इतिहास को समेटे काफी टेबल बुक प्रकाशित हुई, कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुई तो मंडी में भी देव ध्वनि के अलावा मंडी इतिहास के झरोखे जैसे दस्तावेज आने वाली पीढ़ी के लिए एक शोध के रूप में संकलित किए गए। और जगह पर भी कुछ उल्लेखनीय दस्तावेजीकरण हुआ है। यह परंपरा आगे बढ़ती रहनी चाहिए और संस्कृति के लिए घातक परंपराओं को आगे बढ़ाने की बजाय, ऐसे उदाहरण जोड़े जाने चाहिए।

— बीरबल शर्मा, संस्थापक हिमाचल दर्शन फोटो गैलरी, मंडी


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