सभ्यता का संदेश देते खंडहर

By: Feb 13th, 2017 12:05 am

शिक्षा के मामले में भारत के पास एक स्वर्णिम थाती है और नालंदा विश्वविद्यालय उस थाती का उत्कृष्ट प्रतीक। नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना करीब 2500 साल पहले बौद्ध धर्मावलंबियों ने की थी। यह विश्वविद्यालय न केवल कला, बल्कि शिक्षा के तमाम पहलुओं का अभिनव केंद्र था। नालंदा विश्वविद्यालय का काल 6 ठीं से 13वीं शताब्दी तक यानी 700 साल का माना जाता है। ‘नालंदा’ शब्द संस्कृत के तीन शब्दों के संधि-विच्छेद से बना है। यह विश्वविद्यालय लंबे समय तक  भारत सहित पूरी दुनिया को अपनी ज्ञान साधना से लाभान्वित करता रहा है।  जब नालंदा अपने शिखर पर था, तब विभिन्न देशों के लगभग 10 हजार से अधिक विद्यार्थी यहां रहकर अध्ययन किया करते थे। यही नहीं, यहां शिक्षकों की संख्या 1500 से अधिक थी। यहां अध्ययनरत छात्र न केवल बौद्ध धर्म की शिक्षा ग्रहण करते थे, बल्कि उनकी शिक्षा में अन्य संस्कृतियों और धार्मिक मान्यताओं का समावेश था। नालंदा विश्वविद्यालय में शिक्षा पूर्ण रूप से निःशुल्क थी।   इस बात में कोई संदेह नहीं है कि नालंदा विश्वविद्यालय उन भारतीय प्रतीकों में से एक है, जिन पर भारतीयों को गर्व है,   लेकिन क्या आपको लगता है कि आप नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में पर्याप्त जानते हैं? इससे संबंधित कुछ तथ्य आपको रोचक और अद्भुत लग सकते हैं।   नालंदा विश्वविद्यालय का मुख्य उद्देश्य ऐसी पीढि़यों का निर्माण करना था, जो न केवल बौद्धिक बल्कि आध्यात्मिक हों और समाज के विकास में अपना बहुमूल्य योगदान दे सकें। इस विश्व-विख्यात विश्वविद्यालय के बारे में आज हम बेहद कम जानकारी रखते हैं। जो जानकारी हमारे पास उपलब्ध है, उसके लिए हमें भारत भ्रमण के लिए आए चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग का आभारी होना चाहिए। इनके यात्रा विवरणों से नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में काफी कुछ पता चलता है।  नालंदा की स्थापना बौद्ध संन्यासियों द्वारा की गई थी, जिसका मूल उद्देश्य एक ऐसे स्थान को विकसित करना था, जो ध्यान और आध्यात्म के लिए उपयुक्त हो। ऐसा माना जाता है कि महात्मा बुद्ध ने कई बार नालंदा की यात्रा की थी। वह यहां रहे भी थे। इस कारण इसे पांचवी शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक बौद्ध शिक्षा के केंद्र के रूप में भी देखा जाता था, जहां संन्यासियों को अनुकूल शिक्षा और आध्यात्म का वातावरण प्रदान किया जाता था।

ऐतिहासिक दस्तावेजों के मुताबिक इस विश्व-प्रसिद्ध विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त वंश के पराक्रमी शासक सम्राट कुमारगुप्त ने की थी। चीनी यात्री ह्वेनत्सांग सहित कई यात्रियों और लेखकों ने सम्राट कुमारगुप्त के इस विश्वविद्यालय के संस्थापक होने का हवाला दिया है। नालंदा में मिली मुद्राओं से भी इस बात की जानकारी मिलती है।

नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय ‘धर्मगंज’, संभवतः दुनिया का सबसे बड़ा पुस्तकालय था। यह दुनिया भर में भारतीय ज्ञान का अब तक का सबसे प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध केंद्र था। ऐसा कहा जाता है कि पुस्तकालय में हजारों की संख्या में पुस्तकें और संस्मरण उपलब्ध थे। इस विशालकाय पुस्तकालय के आकार का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसमें लगी आग को बुझाने में कई महीने से अधिक का समय लग गया था।  इसे इस्लामिक आक्रमणकारियों ने आग के हवाले कर दिया था। नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में तीन मुख्य भवन थे, जिसमें नौ मंजिलें थी। तीन पुस्तकालय भवनों के नाम थे-रत्नरंजक’, ‘रत्नोदधि’, और ‘रत्नसागर’।

तिब्बती परंपरा के अनुसार,सर्वास्तिवदा  सौत्रांतिका, सर्वास्तिवदा, वैभिका के दृष्टिकोण से इस विश्वविद्यालय में अध्ययन-अध्यापन होता था। महायान के प्रवर्तक नागार्जुन, वसुबंधु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं का विस्तृत रूप से अध्ययन यहां पर होता था। ईत्सिंग के लेखन के अनुसार, यहां होने वाले चर्चाओं में सबकी भागीदारी अनिवार्य थी। प्रशासनिक मामलों पर चर्चा हो या फिर शैक्षणिक मामलों पर, वहां रहने वाले संन्यासियों, शिक्षकों और छात्रों की भागीदारी जरूरी थी। सभा में मौजूद सभी लोगों के फैसले पर संयुक्त रूप से आम सहमति की आवश्यकता होती थी। विश्वविद्यालय की प्रशासनिक प्रणाली, एक तरह से लोकतांत्रिक थी। नालंदा विश्वविद्यालय के छात्रों का एक बड़ा वर्ग वज्रयान और महायान शाखाओं से संम्बद्ध रखता था। इनमें शिक्षकों की संख्या भी अधिक थी। बौद्ध सूक्ष्मवाद के प्राथमिक सिद्धांतकारों और भारतीय दार्शनिक तर्कशास्त्र के बौद्ध संस्थापकों में से एक महान विद्वान धर्मकीर्ति जैसे आचार्य यहां विद्यार्थियों का मार्गदर्शन किया करते थे। नालंदा विश्वविद्यालय की कई विध्वंस हो चुकी प्राचीन संरचनाएं अब भी यहां मौजूद हैं। यहां खुदाई के दौरान मिले अवशेष 150,000 वर्ग फुटमीटर के एक क्षेत्र में विस्तृत रूप से मिले हैं। ऐसा माना जाता है कि अभी भी नालंदा विश्वविद्यालय का 90 फीसदी क्षेत्र ऐसा है, जिसकी खुदाई नहीं हुई है। यदि इसका भी सम्यक तरीके से उत्खनन किया जाए तो हम भारतीय शिक्षा प्रणाली के भूले-बिसरे अध्यायों से फिर से परिचित तो हो ही सकते है, अपनी सभ्यता के संदेश को भी ठीक ढंग से पढ़ने की स्थिति में आ सकेंगे।

— ललित गर्ग ई-253, सरस्वती कुंज अपार्टमेंट 25 आईपी, एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली 92


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