हिंदू, मुसलमान के नारे

By: Feb 23rd, 2017 12:01 am

यह कई सौ फीसदी हकीकत है कि भाजपा को हिंदुओं की लामबंदी चाहिए और सपा-कांग्रेस, बसपा को मुसलमानों का फिक्र है। नतीजतन उत्तर प्रदेश में चौथे चरण के मतदान से पूर्व हिंदू, हिंदू और मुसलमान के जुमले सुनाई देने लगे हैं। इन नारों में कौन सा विकास छिपा है? मुलायम सिंह मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से पूछते हैं कि उन्होंने मुसलमानों के लिए क्या किया? जवाब में मुख्यमंत्री 26 बिंदु गिना देते हैं। बसपा प्रमुख मायावती तो प्रचार के पहले दिन से ही मुसलमानों के वोट मांगती रही हैं। उन्हें चिंता दलित-मुस्लिम वोट बैंक की है। यदि भाजपा के वरिष्ठ सांसद योगी आदित्यनाथ का आरोप है कि सपा-बसपा की सरकारों में हिंदुओं के साथ भेदभाव हुआ, उनका अपमान किया गया, तो वह भी सांप्रदायिक प्रचार है। योगी ने यह भी कहा है कि कंस और औरंगजेब की तरह अखिलेश ने भी अपने पिता को बेदखल कर दिया। सिर्फ यही नहीं, इलाहाबाद में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के रोड शो में ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाए गए और शंख भी फूंके गए। साफ है कि अब भाजपा भी हिंदुओं की लामबंदी और धु्रवीकरण में जुट गई है। यूं कहें कि चौथे चरण के मतदान तक आते-आते सियासत सांप्रदायिक हो गई है। क्या सांप्रदायिकता के आधार पर ही जनादेश चाहिए? क्या संप्रदाय, जाति, नस्ल के बिना चुनाव नहीं लड़ा जा सकता? एक पक्ष हिंदुओं की पैरोकारी करते हुए कहता है कि बीते पांच सालों के दौरान उत्तर प्रदेश की सपा सरकार ने कब्रिस्तानों के लिए 1300 करोड़ रुपए दिए, जबकि श्मशानों के लिए 627 करोड़ रुपए आबंटित किए गए। सिर्फ इसी आधार पर सौतेलापन और भेदभाव का आरोप स्थापित नहीं किया जा सकता। सवाल है कि विकास के जिन नारों और आश्वासनों पर अभी तक चुनाव लड़ा जा रहा था, उनके स्थान पर कब्रिस्तान और श्मशान या होली और रमजान सरीखे मुद्दे कैसे और क्यों आ गए? बेशक कब्रिस्तान और श्मशान का मुस्लिम, हिंदू के जीवन में अंतरंग महत्त्व है। हिंदू का श्मशान में दाह-संस्कार कर उसे पंचतत्त्व में विलीन किया जाता है, तो कब्रिस्तान में मुसलमान को दफनाया जाता है। आखिरी चैन और सुकून इन्हीं स्थानों पर मिलते हैं। पहला सवाल तो यह है कि आखिर प्रधानमंत्री मोदी के स्तर पर ये मुद्दे क्यों उठाए गए? विधानसभा का चुनाव कब्रिस्तान, श्मशान के हालात और बिजली के बंदोबस्त पर तय होता है क्या? यदि प्रधानमंत्री ने इनका जिक्र किया ही था, तो कमोबेश मुख्यमंत्री की ओर से एक संयत, माकूल जवाब आना चाहिए था। इसके बजाय बहस हिजड़े, गैंडे और गुजरात के गधे सरीखे शब्दों की ओर खिसक गई। प्रधानमंत्री पर ही पलटवार शुरू हो गए। क्या हमारी सियासत गंदी जुबान और सांप्रदायिकता की घेरेबंदी से मुक्त होगी? विडंबना है कि प्रधानमंत्री ने ‘बहनजी संपत्ति पार्टी’ के तौर पर बसपा की जो नई व्याख्या की थी, पलटकर मायावती ने भी भाजपा को ‘भारतीय जुमला पार्टी’ कह दिया। इस नोकझोंक से हासिल क्या हुआ और आम नागरिक का क्या फायदा हुआ, जिसके कल्याण और विकास के लिए चुनाव कराए जाते हैं और सरकारें बनती हैं? अब यकीन होने लगा है कि हमारा लोकतंत्र बड़ा अपरिपक्व और खोखला है। बिन सांप्रदायिकता और जात-पात के चुनाव लड़े ही नहीं जा सकते। बेशक सुप्रीम कोर्ट कोई भी फैसला या निर्देश दे दे। हम न जाने कब तक कुएं के मेंढक बने रहेंगे? यदि संप्रदाय और जाति का भी कल्याण और विकास होना शुरू हो जाए, तो हमारा समाज और देश विकसित हो सकते हैं, लेकिन दुर्भाग्य है कि वह भी नहीं किया जाता। हिंदू, मुसलमान, दलित, यादव आदि के वोट तो उनके नेतागण गारंटीशुदा मानते हैं। अखिलेश ने गुजरात के गधों की बात कहकर अपनी भद्द ही पिटवाई है। वह नहीं जानते कि कच्छ के छोटा रण इलाके की जिंदगी इन गधों ने ही कैसे संवारी है? वे पर्यटन के आकर्षण हैं। वहां कई रिजॉर्ट बन गए हैं। कई दुकानें खुल गई हैं। स्थानीय लोग गाइड का काम भी करते हैं। महानायक अमिताभ बच्चन की इसमें महत्ती भूमिका है, क्योंकि उन्हें ही विज्ञापन में देखकर विदेशी सैलानी कच्छ में आते हैं और इन असाधारण गधों को देखने का लुत्फ उठाते हैं। अखिलेश को बयान देकर क्या हासिल हुआ-हंसी के पात्र बने। वह भूल गए हैं कि महानायक ने उत्तर प्रदेश का भी प्रचार खूब किया है और उनकी पत्नी जया बच्चन सपा की राज्यसभा सांसद भी हैं। बहरहाल मुद्दा हिंदू और मुसलमान का है। नेतागण कब तक देश को यूं ही विभाजित रखेंगे?


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