अत्याचार है बाल कुपोषण

By: Mar 24th, 2017 12:05 am

भारत दुनिया की नई आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है, लेकिन! भारत ने अंतरिक्ष में अपने झंडे गाड़ दिए हैं, लेकिन! भारत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है, लेकिन! भारत में सबसे ज्यादा विदेशी पूंजी आ रही है, लेकिन! भारत दुनिया का सबसे युवा देश है, लेकिन! भारत में स्वास्थ्य व शिक्षा पर अब बहुत निवेश किया जा रहा है, लेकिन! भारत की सकल घरेलू विकास दर दुनिया में सर्वाधिक है, चीन से भी ज्यादा, लेकिन! इस सबसे बावजूद भारत में आधे से ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं। केवल मध्य प्रदेश में अप्रैल, 2006 से जून 2016 तक एक वर्ष से कम उम्र में मरने वाले बच्चों की संख्या 2,06,000 है। यह संख्या कुल मृत बच्चों की महज एक तिहाई है। पिछले दिनों खबर छपी कि मध्य प्रदेश के श्योपुर जिला में छह महीनों में 116 से ज्यादा बच्चों की मौतें कुपोषण की वजह से हुई हैं। इसी क्षेत्र में अध्ययन के दौरान एक विस्थापित सहरिया आदिवासी ने कहा था, ‘हमें तो अब खाने को ही नहीं मिलता। हमारे बच्चे मजदूरी लायक भी नहीं बचेंगे सिर्फ भीख मांगेंगे।’ फिर सवाल खड़ा होता है, लेकिन? लेकिन कुछ भी नहीं। मध्य प्रदेश सरकार ने पांच वर्ष पहले आंगनबाडि़यों में भोजन की व्यवस्था को महिला स्व सहायता समूहों से छीनकर तीन सरकारी और निजी कंपनियों-एमपी एग्रो न्यूट्री फूड प्राइवेट लिमिटेड, एमपी एग्रोटानिक्स लि. एवं एमपी एग्रो फूड इंडस्ट्रीज को सौंप दिया था। नतीजा हम सबके सामने है। अकूत भ्रष्टाचार और भयानक अव्यवस्थाएं। यहां तक कि खाद्यान्न से ज्यादा भुगतान परिवहन के खाते में कर दिया गया। आयकर विभाग ने छापा मारा तो बहुत सी बातें सामने आईं। अंततः हार-थककर मुख्यमंत्री ने इस व्यवस्था को तुरंत समाप्त करने का आदेश जारी कर दिया और कहा कि बच्चों को भोजन पुनः स्व सहायता समूह के माध्यम से ही उपलब्ध कराया जाए। परंतु भयावहता की पराकाष्ठा है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री के आदेश का पालन करने या करवा पाने में हमारा अमला अक्षम है। कुपोषित बच्चा तो ठीक से रो भी नहीं पाता शायद इसीलिए हमें उसकी पीड़ा का भान तक नहीं होता। गौर करिए हमारे देश के आधे बच्चे कुपोषित हैं और हमें ठेके की शर्तें याद कराई जा रही हैं। भरे पेट वालों की नैतिकता और कर्त्तव्य बोध को सलाम। पिछले कुछ वर्षों से मीडिया पर आरोप लग रहे हैं कि वह आम जनता के हितों का ध्यान न रखते हुए सिर्फ अपने कारपोरेट आकाओं या टीजी (टारगेट ग्रुप) के सुर में सुर मिलाता है। परंतु कुपोषण को लेकर यह बात सही नहीं है। मध्य प्रदेश के पांच प्रमुखतम समाचार-पत्र, जिनमें तीन हिंदी एवं दो अंग्रेजी के हैं और इनमें से अधिकांश प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में कारपोरेट जगत से जुड़े हैं, ने इस मुद्दे को अपने प्रकाशन में असाधारण प्रमुखता दी। पहले पृष्ठ पर लगातार शृंखला छापी। इसके बावजूद हमारी आम जनता के कान पर जूं तक नहीं रेंगी और यह स्थिति सिर्फ मध्य प्रदेश में ही नहीं है। ऐसे अन्य राज्य, जहां सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की अवहेलना करते हुए निजीकरण हुआ है, वहां के मीडिया ने इस मामले को जोर-शोर से उठाया है। उदाहरणार्थ कर्नाटक में यह कार्य बायोकान, जिंदल स्टील और स्केनिआ को दिया गया, वहां इसके खिलाफ मीडिया ने मुहिम चलाई। महाराष्ट्र में जहां बड़े कारपोरेट्स ने चालाकी से अपने ही स्वयं सहायता समूह बनाकर पोषण आहार योजना हथियाई। उसका भंडाफोड़ भी तो मीडिया ने ही किया। गुजरात ने भी सर्वोच्च न्यायालय के सन् 2013 के आदेशों का पालन नहीं किया। इसे भी वहां जोर-शोर से उठाया गया। गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त कमिश्नर ने नवंबर 2012 में अपनी रिपोर्ट में कहा था, ‘ठेकेदार और कारपोरेट लॉबी की 8000 करोड़ रुपए की समेकित बाल विकास योजना (आईसीडीएस) पर जबरदस्त पकड़ है।’ उन्होंने तब यह बात कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और मेघालय के विषय संदर्भ में कही थी। अब तो मध्य प्रदेश भी इस ठेकेदारी प्रथा का संवाहक बन गया है। यह सोचकर ही शर्मिंदगी महसूस होती है कि क्या कुपोषित बच्चों के पोषक आहार को व्यापार बनाकर भी लाभ कमाया जा सकता है? ठेकेदारों की तो छोडि़ए, मध्य प्रदेश सरकार पोषण आहार के निजीकरण से वाणिज्यिक करके प्रतिवर्ष 80 करोड़ रुपए वसूलती है। यानी एक ओर तो यह बात कही जा रही है कि बजट कम मिल रहा है, दूसरी ओर कुपोषित बच्चों के मुंह से लाभ के रूप में ठेकेदार और कर के रूप में सरकार निवाला छीन रहे हैं? इस सबसे बीच में एक सुनहरे अध्याय की तरह ओडिशा है। यहां बीजद सरकार ने आंगनबाडि़यों और स्व सहायता समूहों की मदद की और बच्चों की स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन की राह दिखाई। दूसरी ओर देश में करीब 40 प्रतिशत बच्चे ठेकेदारों के भरोसे यातनादायी जीवन बिता रहे हैं। आईसीडीएस में प्रावधान है कि यदि अति कुपोषित बच्चा अस्पताल में भर्ती है तो उसकी मां को साथ रहने के बदले न्यूनतम मजदूरी मिलेगी। मगर मध्य प्रदेश सहित अनेक सरकारों ने मात्र 100 रुपए प्रतिदिन देना तय किया। अपनी छोटी-मोटी योजनाओं के विज्ञापन पर करोड़ों खर्च करने वाली सरकारें इस प्रावधान का प्रचार तक नहीं करतीं। हमें याद रखना होगा कि बच्चे भी हमारे देश के नागरिक हैं और संविधान उन्हें भी जीने का हक देता है। हम एक सशक्त भारत की बात करते हैं, हम एक स्वस्थ भारत की बात करते हैं और हम भारत को पुनः विश्वगुरु बनाने की बात करते हैं, तो क्या कमजोर, नाटे और कम बुद्धि के नागरिकों के सहारे यह संभव है? इस सबसे इतर, कोई अपने बच्चों के प्रति इतना क्रूर व निर्दयी कैसे हो सकता है? हमें अपनी मानसिकता को टटोलना होगा।

चिन्मय मिश्र

लेखक, सर्वोदय प्रेस सर्विस के कार्यकारी संपादक हैं


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