अपने ही देश में बेगाना न बने नव संवत्

By: Mar 27th, 2017 12:07 am

newsसुरेश कुमार

लेखक, ‘ दिव्य हिमाचल ’ से संबद्ध हैं

आगे बढ़ने के लिए अतीत से जुड़ना जरूरी है। कहीं ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ी को जमीन पर ही टिकाना पड़ता है। हवाई जहाज भी उड़ने के लिए पहले जमीन पर ही काफी दूर तक दौड़ता है। आसमान हो न हो, जमीन होना बहुत जरूरी है। और वैसे भी साइंस कहती है कि आसमान कुछ भी नहीं है, महज छोटे-छोटे धूल कणों के अलावा…

कल  नव संवत् है, पर किसी को आभास तक नहीं है। न बाजारों में रौनक, न होटलों में तैयारियां। न युवाओं में जोश, न खुशियों की खुमारियां। क्या अंग्रेजी वर्ष के पहले दिन पर ऐसा होता है? बिलकुल नहीं, अंग्रेजी नववर्ष के लिए तो जैसे हर वर्ग, हर तबका तैयारियों में जुट जाता है। बजारों में सजावट की होड़, होटलों में नववर्ष पर विशेष पैकेज की जोड़-तोड़ और युवाओं के उत्साह की मत पूछो यानी आधी रात तक जश्न में डूबने का जुनून। नव वर्ष मनाने में भी इतना फर्क। एक नववर्ष वह जो अपना है और एक वह जो अंग्रेजी विरासत ने हम पर चस्पां किया है। अंग्रेजी विरासत आज भी हिंदोस्तान को हाशिए पर धकेलती है। अंग्रेजी नववर्ष जहां करोड़ों का कारोबार करता है, वहीं नव संवत् महज मंदिरों में पूजा-अर्चना तक ही सिमटा रहता है।

नव संवत् की शुरुआत नवरात्र से होती, इसलिए मंदिरों में पूजा-अर्चना का दौर आभास करवा देता है कि नव संवत् है वरना युवा पीढ़ी तो जानती भी नहीं होगी कि नव संवत् है किस चिडि़या का नाम। गलती युवा पीढ़ी की भी नहीं है, क्योंकि हमने उसे अपने परिवेश के प्रति, अपनी संस्कृति की ओर आकर्षित ही नहीं किया। बच्चा थोड़ा सा बड़ा हुआ तो उसे नमस्कार की जगह हैलो-हाय में उलझा दिया, शुभ प्रभात की जगह गुड मार्निंग सिखा दिया, वेद-शास्त्र जानने की बात तो बड़ी दूर रह गई। बच्चे को किसी इंग्लिश स्कूल में शिक्षा दिलाना स्टेटस सिंबल हो गया, तो बच्चा वहां वही सीखेगा जो अंग्रेज सिखा गए। भारत कभी विश्व गुरु हुआ करता था और आज भारत अपना यह रुतबा खो चुका है। सोने की चिडि़या कहलाने वाले भारत में आज 20 प्रतिशत जनता भूखे पेट फुटपाथ पर सोती है। यह सब अंग्रेजी संस्कृति की ही देन है वरना भारत में ऐसा न होता, जैसा अब हो रहा है। दोनों नववर्ष में फर्क समझना हो तो इतना ही उदाहरण काफी है कि नव संवत् मंदिर में ओउम के उद्घोष सरीखा है और अंग्रेजी नववर्ष कानफाड़ू डीजे के शोर जैसा। नववर्ष क्षणिक उन्माद है, तो नव संवत् आनंद की अनुभूति करवाता है। नव वर्ष पर आधुनिकता के आंडबर के नाम पर फिजूलखर्ची, सड़कों पर युवक-युवतियों द्वारा रात भर शराब के नशे में नाच-गाना बताता है कि युवा पीढ़ी अपनी ही संस्कृति से कितनी दूर हो गई है। नववर्ष का नशे में स्वागत बेशक उस समय अच्छा लगे, पर अगले दिन दोपहर तक बिस्तर में ही हैप्पी न्यू ईयर होता रहता है। जबकि नव संवत् की शुरुआत सात्विक तौर पर होती है। शक्ति पूजन के साथ संवत् की शुरुआत हर जन को शक्ति प्रदान करती है। मंदिरों में घंटियों की आवाज आध्यात्मिकता का आभास करवाती है। सभी को देवलोक में होने जैसा आभास होता है, मन पवित्रता का एहसास करता है। यह है हमारी परंपराओं की पराकाष्ठा, जो आज भी कायम है। यह जिम्मेदारी समाज, सरकार और प्रशासन की है कि युवा पीढ़ी को अपने प्राचीन दिन- त्योहारों बारे अवगत करवाएं।

किताबों में उनका जिक्र करें, ताकि युवा पीढ़ी जान सके कि भारत की संस्कृति कितनी महान रही है। आज भी विदेशी भारतीय संस्कृति की थाह लेने के लिए भारत में आते हैं। यहां के योग, आयुर्वेद और दूसरी पद्धतियों को जानने के लिए कई-कई महीने क्या वर्षों तक भारत के भिन्न-भिन्न हिस्सों का भ्रमण करते हैं और एक हम हैं कि अपनी इतनी समृद्ध संस्कृति को छोड़ कर अंग्रेजी आडंबरों को अपनाने में लगे हैं। अंग्रेजी का मतलब आधुनिकता नहीं होता और अपनी जड़ों से जुड़े रहना पिछड़ापन नहीं होता। पर अपने रीति-रिवाज, परंपराओं और संस्कृति को छोड़ कर दूसरी संस्कृति को तरजीह देना भी ठीक नहीं। नव वर्ष अगर उत्साह से मनाना है तो नव संवत् भी उसी उल्लास से मनाओ। नव वर्ष पर आप करोड़ों खर्च करो और नव संवत् पर कौड़ी भी न खर्च करो। मैं अंग्रेजी नववर्ष के खिलाफ भी नहीं, पर नव संवत् की अनदेखी न हो, इस पक्ष में जरूर हूं। आगे बढ़ने के लिए अतीत से जुड़ना जरूरी है। कहीं ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ी को जमीन पर ही टिकाना पड़ता है। हवाई जहाज भी उड़ने के लिए पहले जमीन पर ही काफी दूर तक दौड़ता है।

  आसमान हो न हो, जमीन होना बहुत जरूरी है। और वैसे भी साइंस कहती है कि आसमान कुछ भी नहीं है, महज छोटे-छोटे धूल कणों के अलावा। हमें जमीन पर रहते हुए ही आकाश की कामना और कल्पना करनी चाहिए। इसलिए क्षेत्र कोई भी हो, चाहे सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक या सांस्कृतिक, हर किसी के लिए उसका इतिहास और परंपराएं जरूरी हैं। भारत की इतनी समृद्ध और सभ्य संस्कृति होने के बावजूद हम पश्चिम के प्रपंचों को अपनाने के लिए उत्साहित रहते हैं। वेलेंटाइन डे पर इतना उत्साह और बैसाखी की खबर ही नहीं होती। जबकि भारत का हर दिन-त्योहार किसी कथा- कहानी से या किसी मौसम से संबद्ध होता है। हर किसी त्योहार का एक अतीत होता है, उसका अर्थ होता है और प्रासंगिकता होती है। बेवजह ही नहीं पश्चिम के लोग भारत में आकर इसकी सभ्यता और संस्कृति पर शोध करते हैं। इतनी समृद्ध संस्कृति होने के बावजूद हम वेलेंटाइन डे मनाने में ज्यादा आनंदित होते हैं। नव संवत् के आनंद की जगह न्यू ईयर के उन्माद को महत्त्व देते हैं। मैं पश्चिम के त्योहारों की आलोचना नहीं कर रहा, पर इनके आवरण में भारतीय त्योहार अपना अस्तित्व गंवा रहे हैं इसलिए बता रहा हूं। बड़ी मुश्किल से अंग्रेजों से आजाद हुए हैं, अच्छा है अब इस भारत को भारत ही रहने दिया जाए। नव संवत् आप सब के लिए मंगलमय हो, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ।

ई-मेल : sureshakrosh@gmail.com


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