अयोध्या पर ‘सुप्रीम’ मौका !

By: Mar 28th, 2017 12:05 am

बीते एक सप्ताह से चारों तरफ राममंदिर निर्माण को लेकर गहमागहमी है। इस मुद्दे पर हिंदू-मुसलमान पक्षकारों में तीखे मतभेद हैं। वही पुरानी कहानियां दोहराई जा रही हैं। जो पहल देश के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति जेएस खेहर ने 2017 में की है, उसे 1947 में देश की आजादी के बाद ही किया जाना चाहिए था। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और गृह मंत्री सरदार पटेल गुलामी की निशानियों को मिटा रहे थे, गुजरात में सोमनाथ मंदिर की स्थापना और दैव प्रतिष्ठा के मायने थे कि अब भारत एक स्वतंत्र, लोकतांत्रिक राष्ट्र है। यदि देश की 500 से ज्यादा रियासतों को, जबरन या बाध्य करके, भारतीय गणतंत्र का हिस्सा बनाया गया, तो उन राष्ट्रीय ख्याति के मंदिरों का जीर्णोद्धार, शुद्धिकरण क्यों नहीं किया गया, जिन्हें तोड़ा गया अथवा जिनकी बगल में मस्जिदों का जबरन निर्माण कराया गया था। मुद्दा मंदिर या मस्जिद का नहीं है, बल्कि भारत के औसत नागरिक के आत्मसम्मान, गौरव, सांस्कृतिक पहचान का मुद्दा रहा है। अयोध्या और राममंदिर देश के करीब 85 करोड़ हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं, सांस्कृतिक संवेदनशीलता और आस्थाओं का मुद्दा है। अयोध्या में 1528 में मंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद बनवाई गई। उसे शहंशाह बाबर ने बनवाया या किसी व्यक्ति-विशेष ने बनवाई। उस मस्जिद में 1949 तक नमाज पढ़ी जाती थी या नहीं। दरअसल मुद्दे अतीत और इतिहास के नहीं हैं। मुद्दा आज भी सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है। सितंबर, 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के तीन जजों की पीठ ने जो फैसला दिया था, शीर्ष अदालत ने उस पर रोक लगा दी थी, लिहाजा उस फैसले की ज्यादा प्रासंगिकता नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन होते हुए भी प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति खेहर ने एक मानवीय और सांस्कृतिक विमर्श का मौका दिया है, पूर्वाग्रहों को छोड़कर सदा के लिए राम मंदिर-विवादित ढांचा मामले के समाधान के प्रयास पर सहमति का अवसर दिया है, अंततः सुप्रीम कोर्ट के फैसले या संसद के प्रस्ताव पारित करने की पेचीदगियों से बचने का वक्त दिया है, लिहाजा हिंदू और मुसलमान पक्षकारों को खुले दिल से उस पहल का स्वागत करना चाहिए। लेकिन जिस तरह जफरयाब जिलानी, अबू आजमी, कमाल फारुकी बगैरह मस्जिद के पक्षकार इतिहाससम्मत जिरह कर रहे हैं और अतीत के मद्देनजर विमर्श के मौके को खारिज कर रहे हैं, उससे किसी समाधान की गुंजाइश नहीं है। भाजपा नेता डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी भी हिंदुओं की ओर से पक्षकार नहीं हैं, लेकिन विमर्श शुरू होने से पहले ही वह मुसलमानों को धमकी दे रहे हैं या उन पर दबाव डाल रहे हैं कि मस्जिद सरयू पार बनाने के लिए मान जाएं, नहीं तो 2018 में जब राज्यसभा में भाजपा-एनडीए सांसदों की संख्या ज्यादा हो जाएगी, तो बहुमत के जुगाड़ से कानून बनाकर राममंदिर बनाया जा सकेगा। ऐसे संवादों और हालात के मद्देनजर सहमति कैसे संभव है? लिहाजा भाजपा को डा. स्वामी को चुप रहने के आदेश देने चाहिए। बेशक राममंदिर ऐसा मुद्दा है, जिस पर एक बार फिर मुकम्मल सियासत करने का मौका संघ परिवार और भाजपा के पास है। केंद्र में लोकसभा में प्रचंड बहुमत है और अब उत्तर प्रदेश विधानसभा में भी तीन-चौथाई से ज्यादा बहुमत भाजपा के पक्ष में है। यदि सुप्रीम कोर्ट ने, अंततः, कुछ ऐसा फैसला सुना दिया, जो भगवा परिवार के अनुकूल नहीं हुआ, तो संसद और विधानसभा के जरिए एक नया फैसला लिया जा सकता है। उन्हें यह संवैधानिक अधिकार हासिल है, लेकिन डा. स्वामी सरीखों के जरिए अभी से सभी पत्ते क्यों खोले जाएं? अभी पहल सर्वोच्च न्यायालय की ओर से है, तो उसी के मुताबिक चलना चाहिए। हालांकि मस्जिद पक्षकार अब किसी भी तरह की बातचीत के पक्ष में नहीं हैं। इससे पहले नौ बार विमर्श हो चुके हैं। पीवी नरसिम्हा राव, चंद्रशेखर और अटलबिहारी वाजपेयी सरीखे प्रधानमंत्रियों ने अपने कार्यकालों में कोशिशें की थीं। कारण कुछ भी रहा हो, वे तमाम कोशिशें नाकाम रहीं। जरूरी नहीं है कि इस बार भी, प्रधान न्यायाधीश की मध्यस्थता के बावजूद, बातचीत नाकाम रहे, लेकिन अब जो भी फैसला करना है, शीर्ष अदालत यथाशीघ्र करे, क्योंकि यह सामान्य मामला नहीं है। अयोध्या के राममंदिर के साथ-साथ काशी के मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद तथा मथुरा की विवादास्पद मस्जिद के मामले भी सुलझाए जाएं। कभी कभार रोजी-रोटी, भूख, बेरोजगारी, पिछड़ापन, गरीबी, कुपोषण आदि मानवीय मुद्दों से महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक गुत्थियां हो जाती हैं, लिहाजा इनका निराकरण भी जरूरी है।


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