चुनावी सूचकांक में हिमाचल

By: Mar 15th, 2017 12:02 am

हालिया चुनावी नतीजों ने राजनीति को परिवर्तन की जिस दिशा की ओर मोड़ दिया है, वहां हिमाचल अब भाजपा की राडार से दूर नहीं। दूसरी ओर पड़ोसी पंजाब की पायल पहनकर कांग्रेस भी अपने सफल कदमों की आहट सुनाना चाहेगी। यह दीगर है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का मनोबल जिन ऊंचे ख्वाबों की पैरवी कर रहा है, वहां हिमाचली कुनबे की आशाएं बढ़ चुकी हैं और यह अति उत्साह के साथ सरकार के बचे-खुचे समय को खुर्द-बुर्द करना चाहेगी, जबकि कांग्रेस को अब एकजुटता से आत्मबल की परीक्षा देनी पड़ेगी। हिमाचल सरकार के लिए भोरंज उपचुनाव की एक कठिन दीवार तैयार है और इसी के पीछे भाजपा अपने सूर्योदय की प्रतीक्षा करने का सामर्थ्य एकत्रित कर रही है। जाहिर है यह उपचुनाव अगले आम चुनाव की तिथि कम से कम छह माह तक रोके रखेगा और यही वह समय होगा जिसे बचाकर कांग्रेस को हिमाचली दीवारों पर नए रंग की पुताई करनी है। हिमाचल का अपना एक स्वतंत्र चुनावी व्यवहार रहा है और यह इसलिए भी क्योंकि आम नागरिक अपने अस्तित्व के क्षेत्ररक्षण में राजनीति का चेहरा व समीकरण पढ़ता है। राजनीति यहां भी बदलाव के दौर में है और अगर पार्टियां इसे महसूस नहीं करेंगी, तो घाटे में रहेंगी। उत्तर प्रदेश में जिस तरह मतदाता ने अपने व्यवहार की नई रूपरेखा में भाजपा का महल बना दिया, उसके अक्स में परिवर्तन की एक स्वाभाविक लहर पैदा होती है, तो अंजाम अभी से अनुमानित होगा, वरना हिमाचल की परिस्थितियां तटस्थ होकर भी अपनी पटकथा लिखती रही हैं। खास तौर पर उस राजनीतिक दौर में लौटना होगा, जब राम मंदिर मुद्दे पर शांता कुमार सरकार का गिरना भी कांग्रेस के पक्ष में चला गया था और एक बड़ी संवेदना- सहानुभूति हाथ मलते रह गई थी। यहां के मुद्दों में फंसा क्षेत्रवाद, सेब का अवतार और कर्मचारी उद्धार अब अतीत के विषय साबित होंगे, जबकि विकास के जरिए संभावनाओं का उत्थान परखा जाएगा। केंद्र के जरिए हिमाचली उत्थान की कई संभावनाएं आज भी मुखातिब नहीं, तो नए सिरे से मोदी-शाह की जोड़ी को इस प्रदेश के आत्मसम्मान व आत्मनिर्भरता के फलक पर दस्तक देनी पड़ेगी। हिमाचल का अतीत से ही देश के प्रधानमंत्रियों के साथ रिश्ता रहा है और इसे एक भूमिका के तौर पर सफल होते भी देखा है। पूर्ण राज्यत्व की जिस इंदिरा डगर पर हिमाचल आगे बढ़ा या औद्योगिक पैकेज के जिस अटल संदेश से बंधा, उसका असर हिमाचल की हर सुबह देखती है। रोहतांग सुरंग के मायने अगर अटल बिहारी वायपेयी न समझते, तो कबायली उम्मीदों के अंधेरे दूर न होते। कुछ इसी बुनियाद पर केंद्रीय भूतल एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने भी प्रदेश के उन्नति पथ से केंद्र का रास्ता जोड़ा है। यह दीगर है कि योजनाओं के कार्यान्वयन में दिल्ली और शिमला के बीच केंद्रीय वन मंत्रालय का सियासी मंतव्य यह राज्य नहीं जान पाया और इसी पैमाइश में वक्त गुजर जाता है। हिमाचल अगले छह माह के भीतर आक्रामक होती भाजपा और इसके मुखिया अमित शाह की शैली को नजदीक से देखेगा, लेकिन इस बीच कांग्रेस के आत्ममंथन की प्रतीक्षा में हिमाचली कार्यकर्ता भी रहेगा। भाजपा अपने और अपनी शैली के भीतर जितने बदलाव कर चुकी है, उनका असर हिमाचली राजनीति में भी रूपांतरित होगा। इस बार किसी एक चेहरे के बजाय अनेक उम्मीदों की छतरी के नीचे भाजपा उतरेगी। ऐसे में हिमाचल की राजनीति का नया आकाश और युवा नेताओं का आगाज किस करवट बैठता है, इसका भी इंतजार रहेगा। निश्चित तौर पर आगामी चुनाव में कुछ बुजुर्ग नेताओं को अपनी-अपनी पार्टियों के हित में खारिज होना पड़ेगा और परिवारवाद के अंधे युग से पीछे हटना होगा। आगामी महीनों की राजनीतिक ऋतु में हिमाचल का कद राष्ट्रीय हिसाब से अपनी सियासी सजावट व बनावट दिखाएगा और इसमें ऊंचे वे मंच होंगे, जो देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सीधा संवाद स्थापित करेंगे। पिछले लोकसभा के चुनावी श्रीगणेश की सारथी रही सुजानपुर रैली का मनोरथ कमल को खिलाने में सफल रहा था, लेकिन पर्वतीय अस्मिता के शब्द पुनः मोदी के अलावा देश के प्रधानमंत्री से मुखातिब होंगे। रैलियों के शृंगार में भाजपा और अपनी सरकार के पैरोकार के रूप में वीरभद्र सिंह का कठिन मुकाबला सामने है। देखना यह होगा कि प्रदेश का राजनीतिक इतिहास इस परीक्षा को कठिन बनाता है या उत्तर प्रदेश की भारी जीत से भाजपा के लिए एक सरल प्रतीक्षा रहेगी।


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