जीएम फसलों पर जोड़-तोड़

By: Mar 25th, 2017 12:02 am

भारत डोगरा लेखक, प्रबुद्ध एवं अध्ययनशील लेखक हैं

हाल ही के वर्षों में जीएम (जेनेटिकली मोडिफाइड) फसलों के प्रतिकूल असर या विरोध के बारे में विश्व के कई देशों से समाचार मिले हैं। जीएम फसलें कृषि, पर्यावरण व स्वास्थ्य के लिए बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकती हैं। जीएम फसलों के विरोध का एक मुख्य आधार है कि ये फसलें स्वास्थ्य व पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित नहीं हैं तथा इनका असर जेनेटिक प्रदूषण के माध्यम से अन्य सामान्य फसलों व पौधों में फैल सकता है। इस विचार को बहुराष्ट्रीय इंडिपेंडेंट साइंस पैनल ने बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है। उनके अनुसार जीएम फसलों के बारे में जिन लाभों का वादा किया था, वे प्राप्त नहीं हुए हैं व ये फसलें खेतों में अधिक समस्याएं पैदा कर रही हैं। इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रांसजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है। अतः जीएम फसलों व गैर जीएम फसलों का सहअस्तित्व संभव नहीं है। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि जीएम फसलों की सुरक्षा प्रमाणित नहीं हो सकी है। एक चर्चित मूल्यांकन में यह बात निकलकर सामने आई कि जीएम फसलों के आगमन के एक दशक बाद यानी 2006 के आसपास जीएम फसलों में खरपतवार की मात्रा बहुत बढ़ गई। इसके विपरीत इस बात के पर्याप्त प्रमाण प्राप्त हो चुके हैं, जिनसे इन फसलों की सुरक्षा संबंधी गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं। यदि इनकी उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की जो क्षति होगी, उसकी पूर्ति नहीं हो सकेगी। जीएम फसलों को अब दृढ़ता से अस्वीकृत कर देना चाहिए। दुखद है कि वैज्ञानिकों के जो विचार सही बहस के लिए सामने आने चाहिएं थे, उन्हें दबाया गया है। यह कहा गया है कि संयुक्त राज्य अमरीका में जो अनेक जीएम फसलों को स्वीकृति मिली, वह काफी सोच-समझकर ही दी गई होगी। इसके विपरीत हाल में ऐसे प्रमाण सामने आए हैं कि यह स्वीकृति बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में दी गई व इनके लिए सरकारी तंत्र द्वारा अपने वैज्ञानिकों की जीएम फसलों संबंधी चेतावनियों को दबा दिया गया।

जब वर्ष 1992 में अमरीकी खाद्य व दवा प्रशासन ने जीएम उत्पादों के पक्ष में नीति बनाई, तो इस प्रतिकूल वैज्ञानिक राय को गोपनीय रखा गया। सात वर्ष बाद जब इस सरकारी एजेंसी के गोपनीय रिकार्ड को एक अदालती मुकदमे के कारण खुला करना पड़ा व 44000 पृष्ठों में बिखरी हुई नई जानकारी सामने आई तो पता चला कि वैज्ञानिकों की जो राय जीएम फसलों व उत्पादों के प्रतिकूल होती थी, उसे वैज्ञानिकों के विरोध के बावजूद नीतिगत दस्तावेजों से हटा दिया जाता था। इन दस्तावेजों से यह भी पता चला कि खाद्य व दवा प्रशासन को राष्ट्रपति के कार्यालय से आदेश थे कि जीएम फसलों को आगे बढ़ाया जाए। कृषि व खाद्य क्षेत्र में जेनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीक महज छह-सात बहुराष्ट्रीय कंपनियों व उनकी सहयोगी या उपकंपनियों के हाथ में केंद्रित है। इन कंपनियों का मूल आधार पश्चिमी देशों, विशेषकर संयुक्त राज्य अमरीका में है। इनका उद्देश्य जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से विश्व कृषि व खाद्य व्यवस्था पर ऐसा नियंत्रण स्थापित करना है, जैसा विश्व इतिहास में आज तक संभव नहीं हुआ है। उन्हें अमरीकी सरकार का भरपूर समर्थन मिलता रहा है, क्योंकि अपने कमजोर होते आर्थिक आधार के बीच अमरीकी सरकार को अपना नियंत्रण मजबूत करना और भी जरूरी लगता है। इन कंपनियों का इस समय सबसे बड़ा व महत्त्वपूर्ण शिकार स्थल भारत है, क्योंकि उन्हें पता है कि इसके बाद अन्य विकासशील देशों पर उनका हमला और आसान हो जाएगा। प्रमाणित वैज्ञानिक जानकारी दबाने के प्रमाण सामने आने पर अब अनेक वैज्ञानिक यह कह रहे हैं कि जब तक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के असर में सरकार रहेगी, तब तक उचित जानकारी सामने आ ही नहीं सकेगी। एक समय ऐसा था जब इन मामलों में भारत के सजग स्वाभिमानी तेवर विकासशील देशों को साम्राज्यवादी ताकतों का सामना करने के लिए प्रेरणा देते थे। आज चर्चा अंतरराष्ट्रीय सभा-सम्मेलनों में इस बात की होती है कि भारत का सरकारी तंत्र किस हद तक भ्रष्ट बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे झुक चुका है। इस कुप्रयास व षड्यंत्र के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में भी लंबी लड़ाई लड़ी गई है।

न्यायालय ने जैव तकनीक के ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक प्रो. पुष्प भार्गव को जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी (जीईएसी) के कार्य पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया। अपने बयान में विश्व ख्याति प्राप्त इस वैज्ञानिक ने देश को चेतावनी दी है कि चंद शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा अपने व बहुराष्ट्रीय कंपनियों (विशेषकर अमरीकी) के हितों को जेनेटिक रूप से बदली गई (जीएम) फसलों के माध्यम से आगे बढ़ाने के प्रयासों से सावधान रहें। उनके अनुसार इस प्रयास का अंतिम लक्ष्य भारतीय कृषि व खाद्य उत्पादन पर नियंत्रण प्राप्त करना है और इस षड्यंत्र से जुड़ी एक मुख्य कंपनी का कानून तोड़ने व अनैतिक कार्यों का चार दशक का रिकार्ड है। अतः अमरीकी सरकार के निर्णयों से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण उन स्वतंत्र वैज्ञानिकों के बयान हैं, जिन्होंने बार-बार जीएम फसलों के खतरों के बारे में जानकारी दी है। भारत सरकार को चाहिए कि वह इन स्वतंत्र वैज्ञानिकों के बयानों की रिपोर्टों का बहुत ध्यान से अध्ययन करने के बाद ही इस विषय पर कोई निर्णय ले। इनमें से अनेक वैज्ञानिक अमरीका के हैं। अमरीका के किसानों, पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं में जीएमओ का विरोध जोर पकड़ रहा है। ज्ञातव्य है कि जीएम फसलों का थोड़ा बहुत प्रसार व परीक्षण भी बहुत घातक हो सकता है। सवाल यह नहीं है कि उन फसलों को थोड़ा बहुत उगाने से उत्पादकता बढ़ने के नतीजे मिलेंगे या नहीं। मूल मुद्दा यह है कि इनसे जो सामान्य फसलें हैं, वे भी संश्लेषित या प्रदूषित हो सकती हैं। यह जेनेटिक प्रदूषण बहुत तेजी से फैल सकता है व इस कारण जो क्षति होगी, उसकी भरपाई नहीं हो सकती है। इसके बाद अच्छी गुणवत्ता व सुरक्षित खाद्यों का जो बाजार है, वह हमसे छिन जाएगा। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि खेती-किसानी की रक्षा, किसानों की हकदारी पर्यावरण की रक्षा के प्रयासों को और मजबूत किया जाए। ताकि वैश्विक कृषि व खाद्य क्षेत्र को विशालकाय कंपनियों के वर्चस्व से बचाया जा सके।


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