ढर्रे में सिमटता महिला दिवस

By: Mar 9th, 2017 12:05 am

पीके खुराना

( पीके खुराना लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं )

सफल महिलाओं का उदाहरण दे-देकर शेष समाज को बार-बार यह बताया जाता है कि महिलाएं पुरुषों से कम नहीं हैं, जबकि होना यह चाहिए कि महिलाओं को पुरुषों के सोचने के ढंग और पुरुषों को महिलाओं के सोचने के ढंग के बारे में शिक्षित किया जाए। महिला अधिकारों के झंडाबरदार दोनों वर्गों को ‘शिक्षित’ करने के बजाय ऐसे सेमिनारों और आंदोलनों में मशगूल रहते हैं जहां महिलाओं के शोषण या उनके अधिकारों की  बातें ज्यादा होती हैं। अब समय आ गया है कि हम समाज को शिक्षित करने पर ज्यादा जोर दें…

बीते कल हमने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस ‘मनाया’ और अपने मित्रों में से छांट-छांटकर महिलाओं को महिला दिवस की बधाई दी। फेसबुक, व्हाट्स ऐप आदि सोशल मीडिया मंचों पर सुंदर चित्र और संदेश पोस्ट किए, कई कार्यक्रम आयोजित हुए, सेमिनार हुए, जुलूस-जलसे हुए, खबरें छपीं, टीवी पर बहसें हुईं, बस हमने सिर्फ एक मशाल नहीं जलाई। अपने ही परिवार की स्त्रियों को खुद महिला दिवस की बधाई नहीं दी, उन्हें उनके अधिकारों के बारे में शिक्षित नहीं किया, बल्कि उनका ‘कर्त्तव्य’ समझाने में ही हम मशगूल रहे। भारतीय समाज की यही विडंबना है कि हम बहुत पाखंडी हैं। हम सब कुछ दिखावे के लिए करते हैं। महिला दिवस और महिला अधिकारों की बात में एक बड़ी अड़चन खुद महिलाएं भी हैं, जो सास के रूप में बहू पर पूरा नियंत्रण चाहती हैं। अपने बेटे पर बहू के अधिकार से चिढ़ती हैं और ससुराल में अपनी बेटियों के दर्द से परेशान हैं। महिला होने के बावजूद वे महिलाओं के अधिकारों और पुरुष से उनकी समानता के बारे में एकमत नहीं हैं। हमारे पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों का नजरिया भी इससे कुछ अलग नहीं है। लेकिन पुरुषों के साथ एक अतिरिक्त समस्या भी है और वह अतिरिक्त समस्या यह है कि अधिकांश पुरुषों को महिलाओं की प्राकृतिक आवश्यकताओं की जानकारी तक नहीं है। महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं तथा मनःस्थितियों (फेमिनाइन नीड्स एंड मूड्स) के बारे में पुरुष लगभग सारी उम्र पूर्णतः अनजान रहते हैं।

सार्वजनिक स्थानों पर टायलेट की समस्या, माहवारी और गर्भावस्था के दौरान महिलाओं की देखभाल के मुद्दों से पुरुष अनजान ही रहते हैं। जिन घरों में मां नहीं है, वहां बहनें या पुत्रियां अपने भाइयों और पिता को अपनी समस्या बता ही नहीं पातीं और अनावश्यक बीमारियों का शिकार बन जाती हैं। पिता, भाई एवं पति के रूप में पुरुष, महिलाओं की आवश्यकताओं को समझ ही नहीं पाते। इसमें उनका दोष नहीं है, क्योंकि भारतीय समाज में पुरुषों को स्त्रैण आवश्यकताओं के बारे में शिक्षित ही नहीं किया जाता। पुरुषों और महिलाओं की समानताओं और विषमताओं की बहस शाश्वत है और यह भविष्य में भी जारी रहेगी। महिला अधिकारों के झंडाबरदारों ने महिला और पुरुष अधिकारों की समानता की मांग उठाकर इसे एक फैशनेबल मुद्दा बना दिया है, जिस पर हर कोई ‘बात’ करना चाहता है या ‘बात’ करते हुए दिखना चाहता है। महिलाएं कई और समस्याओं से दो-चार होना होता है। शारीरिक रूप से वे अकसर पुरुषों से उन्नीस होती हैं और घरेलू हिंसा एक बड़ा मुद्दा है, जिसके निवारण का कोई प्रभावी हल नहीं खोजा गया है। पति द्वारा पत्नी की पिटाई को समाज के बहुत से वर्गों में स्वीकार कर लिया गया है। शराबी पतियों से ही नहीं, गुस्सैल पतियों से भी पत्नियां अकारण पिटती हैं और अपनी किस्मत को दोष देने के अलावा कुछ नहीं कर पातीं। उससे भी बड़ी समस्या है छेड़छाड़ और बलात्कार, जो स्त्रियों की आत्मा तक को छील देती है। छेड़छाड़ को लेकर तो हमारे समाज का नजरिया बहुत अजीब है। अकसर तर्क दिया जाता है कि लड़कियों का पहनावा ऐसा उत्तेजक होता है, जो पुरुषों को उनके नजदीक आने के लिए प्रेरित करता है। लेकिन ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि सलवार-कमीज पहनने वाली लड़की को जींस-टॉप पहनने वाली लड़की की अपेक्षा कम परेशानियों का सामना करना पड़ता हो या बुर्का पहनने वाली लड़की को कभी किसी ने बुरी निगाह से न देखा हो। इसका बड़ा कारण यह है कि स्त्री को भोग्या मान लिया गया है और वैज्ञानिक और प्राकृतिक तथ्यों के विपरीत यह मान लिया जाता है कि ‘मिलन’ के दौरान पुरुष कुछ ‘पाता’ है और स्त्री कुछ ‘देती’ है। स्त्री को भोग्या मानने की इस प्रवृत्ति ने छेड़छाड़ को अतिरिक्त बढ़ावा दिया है।

महिलाओं की समस्याओं का अंत यहीं नहीं हो जाता। पुरुष प्रधान समाज में अकेली महिलाओं की स्थिति अकसर शोचनीय होती है और उन पर कई और नए बंधन लाद दिए जाते हैं। विधवा महिलाएं ससुराल में शेष सदस्यों के अधीन हो जाती हैं, परित्यक्ताएं और तलाकशुदा महिलाएं तो कई बार अपने मायके में भी दूसरे दर्जे की नागरिक बनकर रह जाती हैं। घर में सारा दिन काम करते रहने पर भी उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता, स्वतंत्रता नहीं मिलती और अपेक्षित सम्मान नहीं मिलता। विधवाओं की कठिनाइयों के बारे में तो फिर गाहे-बगाहे बात होती रहती है, लेकिन परित्यक्ताओं, तलाक शुदा एकल महिलाओं, किसी भी विवशतावश अविवाहित रह गई महिलाओं की समस्याओं के बारे में हम शायद ज्यादा जागरूक नहीं हैं। एकल महिलाओं को हिंसा, शोषण, उपेक्षा, तिरस्कार, अवैतनिक कामकाज के अलावा यौन शोषण की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यही नहीं, जिन परिवारों में मर्द लोग कामकाज के सिलसिले में शहर से बाहर रहने को विवश हैं, वहां उनकी पत्नियां घर में अकेली पड़ जाती हैं और कई तरह की समस्याएं झेलती हैं लेकिन जुबान नहीं खोल पातीं। करियर के जाल में फंसा पुरुष वर्ग पत्नी और परिवार की उपेक्षा की गंभीरता को समझ ही नहीं पाता। कई बार तो तब तक, जब परिवार टूट ही न जाए या टूटने के कगार पर ही न पहुंच जाए। तब भी पुरुष लोग यह नहीं समझ पाते कि वे कहां गलत थे। वे तो तब भी यही मान रहे होते हैं कि वे जो कुछ भी कर रहे थे, वह परिवार की भलाई के ही लिए था। यहां पतियों और पत्नियों का नजरिए का फर्क यह है कि पत्नियां पैसा कम और पति का साथ ज्यादा चाहती हैं और पति यह मानते रह जाते हैं कि यदि उनके पास धन होगा तो वे पत्नी के लिए सारे सुख खरीद सकेंगे। इससे भी ज्यादा बड़ी समस्या तब आती है, जब रोजगार के सिलसिले में मर्द शहर से बाहर जाता है और वहीं पर दूसरा विवाह कर लेता है।

ऐसे बहुत से पुरुष अपनी पहली पत्नी को अकसर पूरी तरह से बिसरा देते हैं या फिर दोनों महिलाओं से झूठ बोलते रह सकते हैं। जॉन ग्रे की प्रसिद्ध पुस्तक ‘मेन आर फ्रॉम मार्स, वीमेन आर फ्रॉम वीनस’ में पुरुषों और महिलाओं के व्यवहार और दृष्टिकोण तथा तनाव के समय उनकी प्रतिक्रियाओं के बारे में बात करते हुए स्पष्ट किया गया है कि पुरुषों और महिलाओं में इतनी असमानताएं हैं मानो वे दो भिन्न ग्रहों (मार्स-मंगल, वीनस-शुक्र) के प्राणी हों। यह पुस्तक इस अवधारणा का प्रतिपादन करती है कि दोनों को एक दूसरे के संवाद के तरीकों और भावनात्मक आवश्यकताओं का पता हो तो पुरुषों और महिलाओं में बेहतर समझ बनेगी। इस पुस्तक का वास्तविक उद्देश्य पुरुषों और महिलाओं को एक-दूसरे की असमानताओं बताकर उनमें बेहतर समझ पैदा करना है, लेकिन हमारा ज्यादा जोर समाज के दोनों वर्गों को एक दूसरे की विषमताओं के बारे में शिक्षित करने के बजाय सिर्फ महिलाओं के अधिकारों की बात करने तक सीमित है। यही कारण है कि सफल महिलाओं का उदाहरण दे-देकर शेष समाज को बार-बार यह बताया जाता है कि महिलाएं पुरुषों से कम नहीं हैं, जबकि होना यह चाहिए कि महिलाओं को पुरुषों के सोचने के ढंग और पुरुषों को महिलाओं के सोचने के ढंग के बारे में शिक्षित किया जाए। महिला अधिकारों के झंडाबरदार दोनों वर्गों को ‘शिक्षित’ करने के बजाय ऐसे सेमिनारों और आंदोलनों में मशगूल रहते हैं जहां महिलाओं के शोषण या उनके अधिकारों की बातें ज्यादा होती हैं। अब समय आ गया है कि हम समाज को शिक्षित करने पर ज्यादा जोर दें, ताकि समाज के दोनों अंगों का समान विकास संभव हो सके और समाज में संतुलन बना रहे।

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