दर्पण बनाम वाहक साहित्य और मीडिया

By: Mar 13th, 2017 12:05 am

अजय पराशर अतिथि संपादक

शब्द को ब्रह्म मानने वाली भारतीय परंपरा अभिव्यक्ति के माध्यमों को लेकर भी बहुत सजग रही है। इस परंपरा में शब्दों का अपव्यय एक अक्षम्य अपराध था और असामयिक उपयोग एक हिंसा। इतनी सजग विरासत का वारिस होने के बावजूद आधुनिक संदर्भों में हम इसका उपयोग नहीं कर सके। साहित्य और मीडिया के अंतर्संबंधों में पैदा हुई जड़ता इसका उदाहरण है। प्रकृति और प्रभाव अलग होने के बावजूद यदि इनके अंतर्संबंधों को ठीक ढंग से खंगाला जाए, तो शब्द की सत्ता और वृहत्तर हो सकती है। यह पड़ताल इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि दोनों के बीच संवादहीनता की स्थिति पैदा हो गई है। ऐसे में दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के प्रति कुछ खास धारणाएं बना ली हैं, जो प्रायः नकारात्मक हैं। मीडिया और साहित्य के बीच यह जड़ता टूटे, एक स्वस्थ संवाद सृजित हो, इसी को ध्यान में रखकर प्रतिष्ठित साहित्यकार और मीडियाकर्मी अजय पराशर के संपादकीय में विविध बिंदुओं को स्पर्श करने की कोशिश हुई है। प्रस्तुत है इसकी पहली किस्त …      

– फीचर संपादक

साहित्य और मीडिया का एक-दूजे पर दखल और प्रभाव तथा बदलते परिदृश्य में दोनों की भूमिका विचारने से पूर्व उनको परिभाषित करना तथा उनकी प्रकृति और प्रवृत्ति पर विचार करना बेहतर होगा। साहित्य, जहां भाव प्रधान होता है, स्वभावसिद्धि या सहजता इसका नैसर्गिक गुण है तथा गहन चिंतन-मनन के बाद सुरुचिपूर्ण ढंग से व्यक्त होता है या किया जाता है, जो सायास भी हो सकता है। वहीं मीडिया में होने जैसी कोई चीज नहीं है, यहां किए जाने का भाव रहता है, यह सायास तो हो सकता है किंतु किया जाता है, सब उद्देश्यपूर्ति के लिए ही। मिशनरी उत्ताप से आरंभ होकर पूर्ण व्यवसाय में परिवर्तित हो चुका मीडिया कुछ अपवादों में दिल या भावों से जुड़ा तो हो सकता है, लेकिन इसका उद्देश्य अब रोटी तक ही सीमित नहीं। साहित्य भले ही कालजयी हो, लेकिन है आज भी सूखा सत्तू ही। प्रायः सभी भाषाओं में साहित्यकारों को रोजी-रोटी के लिए कुछ और जुगाड़ करना पड़ता है। वहीं मीडिया पूर्णकालिक व्यवसाय है। कई लोग मीडिया को सीढ़ी बनाकर मोटी कमाई कर रहे हैं। साहित्य दिलों पर राज करता है तभी तो वेदों और उपनिषदों से लेकर रामायण, रामचरितमानस, कालिदास, इलियड आदि आज तक जीवित हैं। खुसरो, कबीर, गालिब, मीर, पे्रम चंद, गुलेरी, दुष्यंत, निदा फाजली, सागर पालमपुरी जैसे रचनाकार आज भी लोगों की जुबां पर कायम हैं। दूसरी तरफ मूंदड़ा, निसान, बोफोर्स, टू जी, वॉटर गेट आदि तमाम कांडों के विवरण के लिए कागज ही खंगालने पड़ते हैं।

भारतीय साहित्य विज्ञान में बलदेव उपाध्याय ‘साहित्य’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘सहित’ से मानते हैं। संस्कृत-शब्दार्थ-कौस्तुभ में सहित का अर्थ है-साथ, संग-युक्त आदि दर्शाया गया है। सहित का भाववाचक रूप ही साहित्य है। अतः व्युत्पत्ति की दृष्टि से ‘साहित्य’ का अर्थ है-साहचर्य। डा. गणपतिचंद्र गुप्त अपनी पुस्तक साहित्य का वैज्ञानिक विवेचन में कहते हैं कि संस्कृत के आचार्य ‘साहित्य’ का प्रयोग शब्द और अर्थ के साहचर्य भाव के लिए ही करते रहे हैं। इसके विपरीत मीडियम (बहुवचन मीडिया) का अर्थ वाहक, विधि या ढोने वाला है। इसका उद्देश्य अल्पावधि में अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचना है। यह सूचना के हस्तांतरण में मध्यस्थ (सभ्य शब्दों में) की भूमिका निभाता है। मीडिया में त्वरा रहती है जबकि साहित्य में धैर्य की दरकार होती है। मीडिया, व्यक्तिगत या संस्थागत होकर अपने उद्देश्यों की पूर्ति करता है जबकि साहित्य कबीर के शब्दों में कागद की लेखी नहीं आंखिन (मन की) देखी कहता है। आंखों देखा भी जब तक गहन चिंतन-मनन की संश्लिष्ट प्रक्रिया से न गुजरे तब तक अदम गोंडवी का ‘मैं चमारों की गली में ले चलूंगा आपको’ नहीं बनता जबकि मीडिया में यह आई-गई बात हो जाती है। शायद, इसीलिए साहित्य को समाज का दर्पण और मीडिया को वाहक कहा जाता है। साहित्य तब भी था जब मानव ने ठीक से बोलना भी शुरू नहीं किया था, वजह थी उसका भाव बोध, उसका एहसासों से परिपूर्ण होना। मौखिक से लिखित परंपरा के बीच जिसका प्रादुर्भाव हुआ, वह आज भी जीवित है, लोक परंपराओं के माध्यम से। भाषा के विकास के बाद की गाथा भिन्न है। मीडिया के पितामह के रूप में ख्यात मार्शल मैकलुहन जब मीडिया को ‘मीडिया इज द मैसेज’ बताते हैं तो उनकी यह एक परिभाषा मीडिया के गुण और धर्म बताने के लिए पर्याप्त मानी जा सकती है।  आज मीडिया को साहित्य के संप्रेषण का माध्यम माना जाता है और साहित्य के बरअक्स इसे दोयम न मानते हुए अपने गुणों के आधार पर बराबरी का दर्जा दिया जाता है। यक्ष प्रश्न है कि यह दावा है कितना तार्किक।

शुरुआती दौर में पत्रकारिता (मीडिया) काफी अरसे तक साहित्य की सवारी करती रही। उद्धरणों और संदर्भों के माध्यम से, जो किसी गद्य या पद्य का अंश होते थे। लेकिन इसके लिए पत्रकार का प्रबुद्ध होना लाजिमी था। इसीलिए प्रारंभ में अधिकांश साहित्यकार ही पत्रकार या मीडिया कर्मी थे। जाहिर है भाव, भाषा, संयम, चिंतन-मनन और इरादे अव्वल होते थे। महात्मा गांधी, तिलक, नेहरू, अज्ञेय, रेणु, प्रभाष जोशी, खुशवंत सिंह, वॉल्ट विटमैन जैसे कई नाम आज भी मीडिया के फलक में उजले तारे की तरह चमक रहे हैं। वाल्ट विटमैन को जहां ‘गार्ड ऑफ डेमोक्रेसी’ कहा जाता है वहीं खुशवंत सिंह की लेखनी के प्रभाव का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके कार्यकाल में ‘इलेस्ट्रेड वीकली’ की प्रसार संख्या पांच लाख से ज्यादा थी। उनके इस साप्ताहिक से बाहर होने के एक माह के भीतर यह गिरकर हजारों में आ गई और बाद में यहां ताला भी लटक गया। वर्तमान में पी. साईनाथ, मार्क टुली जैसे कई नाम ऐसे हैं जो दोनों ही क्षेत्रों में निर्विवाद रूप से सक्रिय हैं।  साहित्य साधना है जबकि मीडिया साधन। साहित्य सचेतक है, मीडिया प्रहरी। लेकिन वक्त की मारामारी, साधनों की प्रचुरता और विस्तार में अब मीडिया तमाम सरोकार भूलता जा रहा है। आजादी के बाद सहकार से प्राप्त सरोकार का सपना निजी पूंजी और बाजारवाद ने तोड़ दिया। उसके लिए अब रिपोर्टिंग भी अहम नहीं रही। अब वह विवरण आश्रित होता जा रहा है। जो मिला, उसे खाकर तुरंत उगला जा रहा है। आज से कुछ साल पहले तक पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ाया जाता था कि खबर तभी बनती है, जब उसमें जान हो। मिसाल दी जाती थी कि ‘कुत्ते ने आदमी को काटा’ यह समाचार नहीं है। हां, अगर आदमी कुत्ते को काटे तो खबर है। दुर्भाग्य से अब ऐसा नहीं। किस देश के किस प्रदेश में ही नहीं, किस शहर के किस मोहल्ले, किस गली में, कौन से मकान नंबर के फलाने राम को, कौन सा, किस नाम तथा रंग का कुत्ता कब, कैसे, क्यों और किस मूड में काट गया और कितने दांत चुभो गया, भी खबर बन रहा है। न अहमियत की समझ है और न लिखने का शऊर। जाति और संस्थागत हितों के फेर में सब माफ है। लेकिन गिरने का स्तर बदस्तूर सभी क्षेत्रों में एक सा है। इसे सड़कों पर गिरते हमारे राष्ट्रीय चरित्र से भली भांति परिभाषित किया जा सकता है। रही-सही कसर मीडिया के सोशल आयाम ने पूरी कर दी। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने जहां प्रजातंत्र सहित जिंदगी की जड़ों को झिंझोड़ दिया हो, वहां साहित्य का चीरहरण हुए बिना कैसे रह सकता है। जैसे मजाक में मिसाल दी जाती है कि भारत में हर आदमी डाक्टर और पत्रकार है, और कंगाली में आटा तब गीला हो जाता है जब वह साहित्यकार भी बन जाता है।

साहित्य में बात कहने का अपना ढंग होता है, ठीक वैसे ही जैसे गजल कही जाती है लिखी नहीं जाती। लेकिन मीडिया में लिखा जाता है और जो किया जाता है, वह उद्देश्यरहित नहीं हो सकता। धूमिल के शब्दों में कहें तो, ‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ इसे एक शाह की उस कहानी के उदाहरण से समझा जा सकता है जिसमें वह नई पोशाक के फेर में निर्वस्त्र होकर घूमना शुरू कर देता है। अगर इसे गंभीर अदीब कहें तो वह कहेगा कि शाह ने हवा के कपड़े पहने हैं। अगर आज का प्रबंधक साहित्यकार कहे तो बोलेगा कि शाह निर्वस्त्र है, वहीं मीडिया कहे तो शाह नंगा घूम रहा है और अगर सोशल मीडिया कहे तो देखो, देखो……, शाह नंगा घूम रहा है और लगे हाथ वह उसके शारीरिक संरचना का जिक्र करना भी नहीं भूलेगा। रामजस कालेज और गुरमेहर के वाकयात इसके बेहतर उदाहरण हैं। अगर एडवर्ड हरमन के शब्दों में कहें तो सोशल मीडिया कृत्रिम सहमति का बेमेल उत्पाद तैयार करता है, जो आज के संदर्भ में हर तरह के व्यावसायिक मीडिया पर खरा उतरता है। साहित्य के मुकाबिल मीडिया संवाहक की भूमिका में बेहतर हो सकता था। लेकिन बदकिस्मती से तहजीब और संस्कृति जो साहित्य का अभिन्न अंग होती थी, अब वह गौण होती जा रही है। मीडिया ने सभ्यता और संस्कृति की खाल ओढ़ी तो जरूर है लेकिन हवा के कपड़े पहनकर। समाज में आदि से जो पनपता रहा है, उसे साहित्य प्रतिबिंबित करता आया है जबकि मध्यकाल तथा आधुनिक काल की संधि में जन्मे मीडिया ने उस प्रतिबिंब को लोगों तक पहुंचाने का जिम्मा संभाला था। लेकिन अड़चन तब आरंभ हो गई जब मीडिया ने समाज में उन चीजों को भी ढोना शुरू कर दिया जो प्रतिबिंबित नहीं थी, जिन्हें साहित्य ने जानबूझकर छोड़ा था या जिन्हें ढोना जरूरी नहीं था। लेकिन कुछ ऐसी चीजें ऐसी भी रही हैं जिसे दोनों ही छोड़ते रहे या आज स्वार्थगत छोड़ रहे हैं। उदाहरण के लिए पौंग बांध विस्थापितों का दर्द, जिसे आज भी माहौल में महसूस किया जा सकता है लेकिन न यह साहित्य में दर्ज हो सका और न मीडिया की बयानी बन सका।

-लेखक, सूचना एवं जनसंपर्क विभाग

क्षेत्रीय कार्यालय,धर्मशाला में उपनिदेशक के पद पर कार्यरत हैं। साहित्य जगत में भी सार्थक हस्तक्षेप के कारण विशिष्ट पहचान रखते हैं।


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