प्रभावों के बीच

By: Mar 13th, 2017 12:05 am

नवनीत शर्मा

विशुद्ध पारिभाषिक सारांशों से बचते हुए यह सभी मानेंगे कि साहित्य और मीडिया दोनों अपने समय और समाज के दर्पण हैं। इस नाते दोनों की प्रकृति और प्रवृत्ति एक सी लगती है। साहित्य धीमा चलता है लेकिन उसका असर जहां तक वह पहुंच पाता है, वहां तक मुकम्मल ही रहता है। मीडिया में त्वरा है, सबसे पहले होने या हो चुके को बताने की प्रवृत्तिगत अधीरता है और पहुंच साहित्य से अधिक व्यापक। लेकिन यहीं से दोनों की कार्यविधि अलग होती है। मीडिया साहित्य का विकल्प नहीं होता और साहित्य मीडिया का स्थानापन्न नहीं हो सकता। लेकिन फिर भी दोनों पर एक-दूसरे का प्रभाव हमेशा से रहा है, रहता आया है और लगता है कि रहेगा भी। अब यह समय ही बताएगा कि दुष्प्रभाव होगा या सुप्रभाव। देशकाल, मूल्य, स्थापनाएं, प्राथमिकताएं दोनों बदली हैं, लिहाजा दोनों में अंतर भी आया है। साहित्य ने मीडिया को भाषा दी, तेवर दिए और मर्म दिया। मीडिया ने साहित्य को यथार्थ की धार दी, पैनापन दिया और विषय भी दिए।

एक जमाना था, पहले सफल या लिक्खाड़ किस्म के पत्रकार अपनी बहुत अच्छी रिपोर्ट की शुरुआत किसी प्रासंगिक और उद्धरणीय  शे’र या कवितांश से करते थे। अगर ऐसा नहीं हो पाता था तो रपट का समापन कम से कम किसी शे’र या पंक्ति से होता था। दो व्यक्तियों में घोर मतभेद होने के बावज़ूद दोनों के बीच पत्र व्यवहार में नाराजगी जताते हुए शे’र उद्धृत किए जाते थे। अब वह चलन खत्म हो गया। कविताओं ने लयात्मक शैली खोई है। कहानियों का फलक बदला है। गजलें धाराओं में बंट गई हैं। कहीं अब भी साकी और पैमाने की बात है तो कहीं अतिवाद की हद तक खुश्क यथार्थ का वर्णन है। यह समय ऐसा है जहां मीडिया पर साहित्य का प्रभाव पहले की तरह सार्थक नहीं रह गया है। अब दोनों ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं, जहां एक दूसरे को देने के लिए दोनों के पास जहर बुझे शब्द हैं या है भाषा का एक विकृत रूप। मीडिया में साहित्यप्रेमी कम हैं। इधर मीडिया के रूपों में इजाफा हुआ है। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक के अलावा सोशल और डिजिटल मीडिया पर जो पत्रकारिता या साहित्य देखने में आ रहा है, बस उसे देखना नहीं, उसमें से चुनना बड़ा काम है। अब मर्म का नहीं त्वरा का मोल है। सरोकार विस्तृत हुए हैं और लाभ भी हैं लेकिन सबसे अधिक कदाचार भाषा के साथ हो रहा है। कई शब्द ऐसे हैं जिन पर तहजीब या मर्यादा का अलिखित प्रतिबंध था लेकिन अब वे भी धड़ल्ले से चल रहे हैं। कुभाषा बनती भाषा के मध्य हाल में राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत कुछ प्रयोगात्मक कविताओं का पुरस्कृत होना बता रहा है कि साहित्य कहां पहुंचा है और उस पर मीडिया किस रूप में हावी है। समय सब कुछ दिखाएगा लेकिन शब्दों की गरिमा बची रहनी चाहिए जो भटकन में दिशा दिखाए। क्या ये भाषा और सरोकार नहीं हो सकते?

  – वरिष्ठ साहित्यकार, पत्रकार और रंगकर्मी नवनीत शर्मा देश भर के साहित्यिक सम्मेलनों, आकाशवाणी और दूरदर्शन में सशक्त भागीदार हैं। उनका हालिया काव्य संग्रह ‘ढूंढना मुझे’ हिन्दी कविता में नई बयार लाया है। एक गजल संग्रह प्रकाशनाधीन।


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