बिना गोबर नलवाड़ी

By: Mar 27th, 2017 12:08 am

कभी नलवाड़ी मेलों की ताकत पशुओं की उपस्थिति से होती थी, लेकिन आज बिखरी परंपराएं इतिहास बन गईं। अब बिलासपुर, सुंदरनगर या प्रदेश के किसी अन्य क्षेत्र को पशुधन की आवश्यकता नहीं, इसलिए पशु मेलों के स्थान पर सिर्फ एक खूंटा हमारा मेहमान बन जाता है। स्वयं मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह भी महसूस करते हैं कि हिमाचली फितरत में आए बदलाव ने नाकारा पशु को आवारा बना दिया। खरीद-फरोख्त के दायरों की घटती पशु उपयोगिता ने नलवाड़ी मेलों की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठाए हैं, भले ही हम मनोरंजन के फलक पर भीड़ एकत्रित कर लें। आज किसान को ऐसे किसी मेले में ढूंढना इसलिए भी कठिन है क्योंकि दिन के समय खेत में बंदर बैठा है, रात को वन्य या आवारा पशुओं के झुंड वहां अपना अधिकार खोजते हैं। ऐसे में किसान के खेत के लिए पशु की उपयोगिता घट रही है, तो डेयरी उत्पाद में भी खेत काम नहीं आ रहा है। अंततः हम नलवाड़ी मेले की रौनक में कृषक के सिमटते वजूद को देख सकते हैं। इसका एक दूसरा पहलू भी है, जो कमोबेश हर कस्बे से शहर तक आवारा हो चुके पशुओं की गिनती करता है। विडंबना यह कि नलवाड़ी मेलों से जुड़ कर कभी मिल्क फेडरेशन ने खुद का अवलोकन नहीं किया और न ही पशुपालन विभाग ने अपने औचित्य की मिट्टी उस खूंटे के नीचे खोजने की कोशिश की, जो हमारी ग्रामीण आर्थिकी का कभी प्रतीक रही है। दम तो उन आंकड़ों में भी नहीं रहा, जो प्रदेश के दुग्ध उत्पादन पर गरजते-बरसते मंचों पर खुद मियां मिट्ठू बनते हैं, जबकि वास्तविकता का एक उदासीन मंजर नलवाड़ी मेलों में दिखाई देता है। पशु आर्थिकी पर यह प्रयास की विफलता है या  हिमाचल अब किसी अन्य लोक में पहुंच गया, जहां गांव भी अपने हाथ गोबर से खराब नहीं करना चाहता। इसमें दो राय नहीं कि मेहनत से हिमाचली गांव भी डर रहा है। पिछले दो दशकों में हिमाचली परिदृश्य में आए परिवर्तनों की नुमाइश, अगर ग्रामीण जीवन को नए संदर्भों में पढ़ रही है, तो इसके नफे-नुकसान के कुछ निशान खेत तक हैं। मेहनती हाथों को अगर ये परिवर्तन मंजूर हैं, तो दूसरा पहलू यह भी कि गांव में भी रोजगार कार्यालय से किसी अनुबंध की प्रतीक्षा है। हम नलवाड़ी में बढ़ती रौनक के बावजूद ग्रामीण अर्थव्यवस्था के टूटते खूंटे को देख सकते हैं। उस जिज्ञासा या मांग के घटते वजन को भांप सकते हैं, जो पशु खरीद के बजाय जीवन के छोर बदल रहा है। हमारा यही छोर सुबह बाहरी राज्यों से आते दूध के इंतजार में कतार लगाना सीख गया और इसलिए हम जब पट्टे पर जमीन का मोल-भाव करते हैं, तो प्रवासी मजदूर हाथ में तराजू लिए, उसी खेत की सब्जी हमें बेच देता है। सुंदरनगर या बिलासपुर के नलवाड़ी मेलों की संगत में हमारा पुरुषार्थ एक बाजार  तो बन गया, लेकिन उस संस्कृति, मेलजोल, गीत-संगीत या लोक नृत्य का क्या होगा, जो खेत में पैदा होते थे। उस बाजार का क्या होगा, जो गांव या खेत पर  निर्भर था। उस रोजगार का क्या होगा, जो मिट्टी से निकलता था। आश्चर्य यह कि अब हम वर्ष भर नलवाड़ी का इंतजार करते हैं ताकि परंपरा बनी रहे और इसी बहाने नई जिदंगी की नुमाइश में बाजार संपन्न होता रहे। कभी पूरे एक साल बाद जब नलवाड़ी आती  थी, तो वह किसान की क्षमता व संभावना को पुष्ट करती थी। अपने आप में एक विश्वविद्यालय की तरह नलवाड़ी में पशुओं की खरीद- फरोख्त के साथ ज्ञान भी बांटा जाता और मेला खुद चलकर गांव और घर तक पहुंचता था। ऐसे में  नलवाड़ी मेलों का प्रारूप बदलने की जरूरत है। मेले के मंच पर कलाकार की बोली तो ऊंची होती जा  रही है, लेकिन खूंटे की गांठ नहीं खुल पा रही। पशु मेलों के स्थल सिकुड़ गए और इबारत भी बदल गई। क्यों हमारा किसान अब पशु को खरीदने से कतरा रहा है और इसे आवारा छोड़ने पर मजबूर है। इस पर मंत्रणा कब होगी। हिमाचल में परिवर्तनों की सजा अगर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मिलेगी, तो हमें अपनी नीतियों-कार्यक्रमों के अलावा शिक्षा के ढर्रे को भी बदलने की जरूरत है। अंततः जिस खूंटे को पूज कर नलवाड़ी आयोजन की विधि निभाई जाती है, उसे पुनः स्थापित करने की आवश्यकता को समझना होगा।

 


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