भीड़ खींचने के नए तमाशे

By: Mar 2nd, 2017 12:05 am

पीके खुराना

( लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं )

भीड़ की अनुपस्थिति ने अन्ना हजारे को अप्रासंगिक बना दिया है और भीड़ खींचने के प्रयास में एक शहीद की बेटी झूठ बोलने पर आमादा है। एक समाज के रूप में हम सच कहने और सुनने की कूव्वत गंवा चुके हैं, हिम्मत गंवा चुके हैं। यही हमारा दुर्भाग्य है और इसी लिए हम विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के बावजूद विकसित नहीं, सिर्फ विकासशील हैं। अब हमें तय करना है कि हम झूठतंत्र में जीना चाहते हैं या लोकतंत्र को सफल बनाना चाहते हैं। यह तय करना नेताओं का काम नहीं है, इसे जनता तय करेगी…

बहुत बार देखा गया है कि बड़े-बड़े नेता भी अपने दल के हाई कमान से विद्रोह करके दल छोड़ देते हैं और फिर अपना दल बना कर अथवा स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ते हैं। उनका दल जीते या वे जीत जाएं, तो उनकी दाल-रोटी फिर से चल पड़ती है अन्यथा देर-सवेर वे पुराने राजनीतिक दल या किसी अन्य बड़े दल में जा विराजते हैं। ये राजनीतिक दल भी उनका स्वागत इसलिए करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि दल का बैनर और जीत सकने योग्य उम्मीदवार, दोनों मिलकर ही किसी राजनीतिक दल को सत्ता के सिंहासन तक पहुंचा सकते हैं। लेकिन इन नेताओं के बड़े राजनीतिक दलों से जुड़ाव का एक और भी कारण है और वह कारण है प्रशंसकों की भीड़। भीड़ का अपना नशा है। आपके साथ या आपके पीछे चलने वाली भीड़ आपको महत्त्वूपर्ण बनाती है, वीआईपी बनाती है। भीड़ न हो तो आप वीओपी, वेरी आर्डिनरी पर्सन, बनकर रह जाते हैं। भीड़ का यही नशा आपसे वह सब करवा लेता है, जो आप अन्यथा न करना चाहते हों। भीड़ आप में गुणात्मक परिवर्तन ला देती है। मोदी, मुलायम, ममता, केजरीवाल, प्रियंका, राहुल, अखिलेश, नीतीश तथा अन्य सभी राजनीतिक नेता भी इसी मर्ज के मरीज हैं। वे अपने मन का कुछ नहीं कहते, वे वह कहते हैं जो भीड़ सुनना चाहती है। ये वही करते हैं, जो भीड़ उनसे करवाना चाहती है। हर नेता के पास भीड़ है और हर भीड़ ने कोई नेता गढ़ लिया है। वह चाहे अन्ना हजारे हों, हार्दिक पटेल हो या कन्हैया।

भीड़ का किस्म अलग हो सकता है, उसका चरित्र नहीं। अन्ना हजारे के साथ लगने वाली भीड़ का लक्ष्य अलग था, मंतव्य अलग था। वह भीड़ भ्रष्टाचार के विरोध में खड़ी थी और अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे में मतभेद के बाद वह नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल में बंट गई, क्योंकि दोनों ही कांग्रेस के भ्रष्टाचारी शासन के खिलाफ लड़ रहे थे। भीड़ ने दोनों को जिताया, अलग-अलग स्तर पर जिताया, लेकिन दोनों को जिताया। हार्दिक पटेल के पीछे की भीड़ शक्ति प्रदर्शन की भीड़ थी और एक और सुविधा पाने की ललक वाली भीड़ थी, तो कन्हैया के साथ की भीड़ सुविधाभोगियों की भीड़ थी। भीड़ के लक्ष्य अलग हो सकते हैं, लड़ने का तरीका अलग हो सकता है, लेकिन भीड़ का चरित्र एक सा होता है। वह अच्छे दिनों के सपने देखना चाहती है, नारे लगाना चाहती है, तालियां बजाना चाहती है और उत्साह में नाचना चाहती है। इसलिए नेता को मजमेबाज होना पड़ता है। फिर मजमा जमाने के लिए झूठ क्या और सच क्या? नेता वही बोलेंगे जो भीड़ चाहेगी। नरेंद्र मोदी के मन की बात भी उनके मन की बात हो या न हो, जनता के मन की बात बनने की कवायद है!जो जितने ऊंचे ओहदे पर होता है, उसकी जिम्मेदारियां उतनी ही बड़ी होती हैं। उसे देश चलाना होता है, राजनीति करनी होती है, व्यापार करना होता है, समाज संचालित करना होता है, पावर और एंपावर का खेल खेलना होता है। इसलिए उसके बोलने का लहजा बदल जाता है, सोच बदल जाती है, काम बदल जाते हैं। भीड़तंत्र की मानसिकता से संचालित वह व्यक्ति भी शतरंज का मोहरा बन कर रह जाता है। भीड़तंत्र का यह गणित ही लोकतंत्र को झूठतंत्र में बदल देता है। पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के लिए मतदान या हो चुका है या जारी है। दो साल बाद ही फिर से लोकसभा चुनाव होंगे।

इसलिए झूठतंत्र पूरे जोर-शोर से जारी है। चुनाव में अन्य दलों के नेताओं की बखिया उधेड़ना, उन पर तरह-तरह के आरोप लगाना, ‘उचित समय’ पर उसका खुलासा करने या प्रमाण देने का वादा करना और उनको जेल भेजने क घोषणा करना आम बात है। लेकिन वही नेता सत्ता में आने पर अपना हर वादा, अपनी हर हुंकार और अपनी हर धमकी भूल जाता है। यह बड़ा सुविधाजनक है, क्योंकि नेताओं के लिए अपने वादों को भूल जाना इसलिए आसान है, क्योंकि जनता भी तालियां बजाने के बाद सब कुछ भूल जाती है। भीड़ की शक्ति होती है, चुनाव के बाद भीड़ बिखर जाती है और लोग अकेले रह जाते हैं। भीड़ के भाड़ में तो नेता भी अकेला चना होता है, जो भीड़ के मनमाफिक बातें करता है, फिर आम आदमी की तो बिसात ही क्या, भीड़ के बिना वह श्रीहीन और शक्तिहीन जंतु है, जिसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं है। चुनाव के समय राजनीतिक दल घोषणापत्र जारी करते हैं। यह एक लिखित-प्रकाशित दस्तावेज है, जो जनता को उपलब्ध होता है, लेकिन चुनाव के बाद कितने नागरिक उसे लेकर सवाल करते हैं? और यदि कोई सवाल करे तो उसकी सुनवाई कहां होती है? एक जमाना था, जब अखबार में सरकार के काम अथवा नीतियों के विरोध में अगर कोई खबर छपती थी, तो तहलका मच जाता था। अब अखबारों और टीवी चैनलों की किसी खबर पर सरकार कोई छोटी सी भी कार्रवाई करे तो वह अखबार या टीवी चैनल गर्वपूर्वक उसे अपने अखबार या चैनल का ‘इंपैक्ट’ बताने लगता है। कोई सड़क बनाने को विकास बताने लगता है, तो कोई कागजी कानून बनाकर गाल बजाने लगता है। विकास की अधकचरी योजनाओं से न देश का भला होता है, न समाज का। शिक्षा महंगी है, इलाज महंगा है, न्याय महंगा है, जीवन महंगा है, आदमी सस्ता है, मौत सस्ती है। ऊपर से तुर्रा यह कि हमारा संविधान कानूनों का जंगल है, राजनीतिक दल और वकील इसका लाभ लेते हैं। इन्हीं कानूनों की उपधाराओं का लाभ उठाकर विजय माल्या जैसे लोग देश छोड़कर भागने में सफल हो जाते हैं। हमारा संविधान राजनीतिक दलों को बहुत सी अनुचित सुविधाएं देता है, नौकरशाही को असीमित अधिकार देता है, जवाबदेही से बचने की पतली गलियां उपलब्ध करवाता है और हम इस संविधान की धाराओं-उपधाराओं को समझे बिना संविधान के गुण गाते हैं।

अन्ना हजारे जैसे लोग भी अंततः अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी के बिना श्रीहीन हो जाते हैं। उनकी ईमानदारी और सच्चाई जनता को प्रभावित करने के लिए काफी नहीं है, उसके साथ रोमांच भी चाहिए और अगर सच के साथ रोमांच नहीं है, तो सच भी बेमानी है। तब भानु धमीजा जैसे विद्वानों की कोई पूछ नहीं है, जिन्होंने दो देशों के संविधान की धाराओं और उनके प्रभाव का विस्तृत विश्लेषण करके देश के लोकतंत्र को मजबूत बनाने की कोशिश की है। उन्हें भी भीड़ की आवश्यकता है, वरना सभी अच्छाइयों के बावजूद उनका प्रयास भी अचर्चित है। समाज का बड़ा हिस्सा उससे गाफिल है और इस कारण वह प्रयास भी निष्फल है। भीड़ की अनुपस्थिति ने अन्ना हजारे को अप्रासंगिक बना दिया है और भीड़ खींचने के प्रयास में एक शहीद की बेटी झूठ बोलने पर आमादा है। एक समाज के रूप में हम सच कहने और सुनने की कूव्वत गंवा चुके हैं, हिम्मत गंवा चुके हैं। यही हमारा दुर्भाग्य है और इसी लिए हम विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के बावजूद विकसित नहीं, सिर्फ विकासशील हैं। अब हमें तय करना है कि हम झूठतंत्र में जीना चाहते हैं या लोकतंत्र को सफल बनाना चाहते हैं। यह तय करना नेताओं का काम नहीं है, इसे जनता तय करेगी, हम तय करेंगे या फिर वंचनाओं में ही जीते रहेंगे।

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