शक्ति की मर्यादा
चैत्र मास की नवमी को प्रभु श्री राम के जन्म से आरंभ होने वाली साधना की यात्रा शारदीय नवरात्र के पश्चात रावण के ऊपर प्रभु श्री राम से पूर्ण होती है। शक्ति का आदि स्रोत से शक्ति के प्रकाट्य की साधना का लक्ष्य लोकोपकार के भाव से ओत-प्रोत रामराज्य की स्थापना ही रहा है। भारत के मानस में व्याप्त राम उसी राम राज्य को लोकोपकारी लक्ष्य को प्राप्त करने की जहां शारदीय नवरात्रि में दुर्गा पूजा कि धूम रहती है, वहीं चैत्र नवरात्र में प्रभु श्री राम की लीला में सब रचा बसा रहता है….
शक्ति और मर्यादा का गहरा अंतर्संबंध है, यह स्वयंसिद्ध सत्य है। शक्ति मर्यादित रहे तो पोषण-पल्लवन का आधार बनती है और मर्यादा का उल्लंघन हो तो संहार का कारण। शक्ति के मर्यादित रहने के सुपरिणाम व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, सृष्टि में स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। इसी प्रकार शक्ति के अमर्यादित होने के दुष्परिणाम भी अस्तित्व के सभी स्तरों पर भोगने पड़ते हैं। इसके अनेकों दृष्टांत हमें मिलते हैं। यह कहना सर्वथा उचित होगा कि शक्ति का शाश्वत नियम व्यष्टि से समष्टि तक निर्विवाद रूप से समस्त चराचर को निर्देशित करता है। वर्ष भर में चार बार नवरात्र का विधान है। चैत्र नवरात्रि और शारदीय नवरात्र का लोक में प्रचलन अधिक है। इसके अतिरिक्त दो गुप्त नवरात्र भी होते हैं, जिनका महत्त्व साधकों के लिए अधिक है। सामान्य जन को इसकी जानकारी न होने के कारण इन्हें गुप्त नवरात्र कह दिया जाता है। यह जिज्ञासा सहज ही मन में स्थान बनाती है कि दोनों प्रकार के नवरात्र में भेद क्या है? मार्कंडेय पुराण के अनुसार, दुर्गा सप्तशती में स्वयं भगवती ने इस समय शक्ति-पूजा को महापूजा बताया है। ऐसा भी कहा जाता है कि नवरात्र में महाशक्ति की पूजा कर श्री राम ने शक्ति पाई थी। शक्ति के कई भाव और प्रकार है। प्रभु श्री राम का मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप लोक में व्याप्त है। शक्ति के माध्यम से लोक जीवन और लोक मानस में खंडित होती मर्यादाओं के पुनर्स्थापना का महायज्ञ करने वाले प्रभु श्री राम के जीवन को राम लीलाओं के माध्यम से बताने, जानने, समझने, समझाने की एक सशक्त शृंखला है। राम राज्य में हम जिस शक्ति की स्थापना में मर्यादित आचरण के माहात्म्य को सिद्ध करते है, उसका लक्ष्य भी चतुर्विध पुरुषार्थ को करते हुए अपने वेदागम संप्रदाय साधना कुलधर्म के अनुरूप जीवन को धर्म का साधन मानते हुए उपयोग करने से है। अतः चैत्र मास की नवमी को प्रभु श्री राम के जन्म से आरंभ होन ेवाली साधना की यात्रा शारदीय नवरात्र के पश्चात रावण के ऊपर प्रभु श्री राम से पूर्ण होती है। शक्ति का आदि स्रोत से शक्ति के प्रकाट्य की साधना का लक्ष्य लोकोपकार के भाव से ओत-प्रोत राम राज्य की स्थापना ही रहा है। भारत के मानस में व्याप्त राम उसी राम राज्य को लोकोपकारी लक्ष्य को प्राप्त करने कि जहां शारदीय नवरात्रि में दुर्गा पूजा की धूम रहती है, वहीं चैत्र नवरात्र में प्रभु श्री राम की लीला में सब रचा बसा रहता है। इसके आध्यात्मिक महत्त्व तो है हीं, साथ ही जागतिक महत्त्व भी हैं। वर्षारंभ के साथ ही आदि शक्ति की साधना और कन्या पूजन, समाज को स्पष्ट रूप से आह्वान उद्घोष करते हैं और बताते हैं कि हमारे समाज के लक्ष्य स्पष्ट रूप से सुस्थापित हैं और वह है मर्यादाओं का सम्मान और शक्ति के प्रत्यक्ष रूप कन्या का सम्मान। आज के समय शक्ति स्वरूपा नारी के प्रति जो दुराचरण हो रहा है वह कष्टकारी है। बाजार का दुष्प्रभाव जिस प्रकार नारी का शोषण कर रहा है, वह सर्वथा निंदनीय है। नारी मुक्ति के नाम पर जिस विष बेल को समाज में बोया जा रहा है, वह हमारे मन में नारी के प्रति शंका को स्थान दे रहा है।
महाप्राण निराला ने इस पीड़ा को भाव दिया
कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,
बोले रघुमणि – ‘मित्रवर, विजया होगी न, समर’
यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण,
उतरी पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण;
अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।’
कहते छल-छल हो गये नयन, कुछ बूंद पुनः ढलके दृगजल,
रुक गया कंठ, चमक लक्ष्मण तेज प्रचंड
धंस गया धरा में कपि गह-युग-पद, मसक दंड
स्थिर जांबवान, – समझते हुए ज्यों सकल भाव,
व्याकुल सुग्रीव, – हुआ उर में ज्यों विषम घाव,
निश्चित-सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम
मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम।
ब्रह्मलीन लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी ने जिस प्रकार महाराष्ट्र में श्री गणेश पूजन को स्थापित किया, उसी प्रकार नवरात्र में कन्या पूजन के सामाजिक पक्ष को और अधिक मुखरता से रखने की आवश्यकता है। भारत में अनेकों संप्रदायों में कन्या को माता कहने की परंपरा है। आज जो कन्या है वह सृष्टि संचालन का गर्भ धारण करने का दिव्य गुण धारण किए हुए है। ऐसी धारिणी देवी को आज के समाज में पुनःस्थापित करने की आवश्यकता है, हमारी सनातन परंपरा में निहित ज्ञान इस सत्य को विभिन्न रूपों में प्रकट करता है। महाभारत महाकाव्य के रचियता महर्षि वेदव्यास ने ‘मां’ के बारे में लिखा है-
‘नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिया।।’
अर्थात, माता के समान कोई छाया नहीं है, माता के समान कोई सहारा नहीं है। माता के समान कोई रक्षक नहीं है और माता के समान कोई प्रिय चीज नहीं है।
‘शतपथ ब्राह्मण’ की इस सूक्ति का उल्लेख कुछ इस प्रकार किया है-
‘अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामः
मातृमान् पितृमानाचार्यवान पुरूषो वेदः।’
अर्थात, जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य हो तो तभी मनुष्य ज्ञानवान होगा।
नारी के सम्मान के जयघोष का पर्व है नवरात्र, इसी शक्ति के पूजन से चतुर्विध पुरुषार्थ की सिद्धि होगी
‘साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन-धान्य राम!’
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्कर
वामपद असुर स्कंध पर, रहा दक्षिण हरि पर,
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध-अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व को श्री लज्जित
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रण-रंग-राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द-स्वर-वन्दन कर।
‘होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।’
कह महाशक्ति राम के बदन में हुई-लीन।
यह महत्वपूर्ण भाव है,
इसी भाव के आधार को स्थापित करने का पर्व है नवरात्र।
— देवेंद्र शर्मा, लेखक उच्चतम न्यायालय में अधिवक्ता और ‘हिंदू इंस्टीट्यूट ऑफ पॉलिटिकल रिसर्च’ के कुलाधिपति हैं।
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