संस्कृति के कितने पास हम

By: Mar 19th, 2017 12:05 am

प्रदेश में छह राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मेले,  महत्ता से तय होता है स्तर

किसी प्रदेश या क्षेत्र की संस्कृति के परिचायक स्थानीय उत्सव होते हैं। मेलों और उत्सवों के जरिए संस्कृति का प्रचार बखूबी होता है।  प्रदेश में भी शिवरात्रि, दशहरा, मिंजर सरीखे मेले हिमाचल को अलहदा पहचान दिलाते हैं, लेकिन पाश्चात्य संस्कृति की चमक में पारंपरिक मेलों का वजूद भी कम होता जा रहा। इस बार दखल में जानें, संस्कृति के कितने पास हैं हम…

हिमाचल में छह राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर के मेलों का आयोजन होता है, जबकि नौ प्रदेश स्तरीय और करीब 37 जिला स्तरीय मेले हर साल आयोजित किए जाते हैं। हालांकि प्रदेश में कुछ मेलों को अंतरराष्ट्रीय मेलों का भी दर्जा दिया जाता है, लेकिन सरकार से अधिसूचना राष्ट्रीय स्तर तक के मेलों की जारी की जाती है। अगर राष्ट्रीय स्तर के मेलों में अंतरराष्ट्रीय कलाकार शिरकत करते हैं, तो उन्हें बोलचाल में अंतरराष्ट्रीय मेलों का नाम दिया जाता है। मंडी की शिवरात्रि, कुल्लू का दशहरा, शिमला समर फेस्टिवल, रामपुर का लवी, चंबा का मिंजर, रेणुका मेला  इसी तरह के मेले हैं। इसके अलावा साल-दर- साल होने वाले मेलों से होने वाली आमदन, मेलों में शिरकत करने वाले कलाकारों और उनके महत्त्व के आधार पर सरकार मेलों का स्तर तय करती है।

प्रदेश सरकार ने दोगुनी की अनुदान राशि

मेलों के लिए  सरकार द्वारा अनुदान राशि दी जाती है। जिला स्तर पर आयोजित होने वाले मेले को पहले 15 हजार की अनुदान राशि दी जाती थी, अब इसे बढ़ाकर दोगुना कर दिया गया है।  प्रदेश स्तर पर आयोजित होने वाले मेलों को अब सरकार की ओर से एक लाख की अनुदान राशि मिलेगी, जबकि पहले प्रदेश स्तर के मेलों के लिए महज 50 हजार की अनुदान राशि दी जाती थी। इसी तरह राष्ट्रीय स्तर के मेलों के आयोजन के लिए भी अब एक लाख की अनुदान राशि की जगह दो लाख रुपए दिए जाएंगे।

अंतरराष्ट्रीय स्तर तक इनकी शान

प्रदेश में करीब चालीस विभिन्न स्तर के मेलों का आयोजन किया जाता है,लेकिन कुछ मेलों का अंतरराष्ट्रीय स्तर तक महत्त्व है। इनमें रामपुर का लवी मेला, मंडी की शिवरात्रि, सिरमौर का रेणुका मेला, कुल्लू का दशहरा और शिमला का ग्रीष्मोत्सव प्रमुख  है…

हिमाचल का सबसे पुराना व्यापारिक मेला लवी भी विश्वभर में अपनी एक खास पहचान कायम किए हुए है। लवी हिमाचल प्रदेश का सबसे पुराना व्यापारिक मेला है, जो कि हर वर्ष नवंबर के प्रारंभ में रामपुर बुशहर में मनाया जाता है।  इस मेले में कच्ची तथा आधी बनी ऊन, ऊनी वस्त्र, पट्टी, नमदा, पश्मीना, चिलगोजा, घोड़े, बछेरे तथा खच्चरों आदि का लाखों रुपयों का व्यापार इन दिनों होता है। देश से खरीददार रामपुर में इकट्ठे होते हैं क्योंकि ऊन, पश्मीना, चिलगोजा तथा अन्य स्थानीय उत्पाद खरीद सकें जिनकी भारत में ही नहीं,विदेशों में भी बड़ी मांग है।

लवी मेले का स्वरूप पिछड़ा

अंतरराष्ट्रीय लवी समय के साथ ठेकेदारी प्रथा की भेंट चढ़ गया है। आज इस मेले में वही दुकान लगा सकता है,जो शुरू में मोटी रकम दे कर स्टाल को खरीद सके। ठेकेदारी प्रथा को खत्म करने में मेला कमेटी भी फेल साबित हुई है। अंतरराष्ट्रीय लवी मेला अपने असल स्वरूप को खोता जा रहा है। दुकानें महज पुराने कपड़ों और खेल-खिलौनों की रह गई हैं। किन्नौरी उत्पाद में हर साल महंगाई का ऐसा रंग चढ़ता है कि आम आदमी यहां के उत्पाद को सिर्फ देख कर ही संतुष्ट हो जाता है।

सांस्कृतिक कार्यक्रम में राजनीति हावी

चार दिन तक चलने वाले अंतरराष्ट्रीय लवी मेले में रात्रि सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं, जिसमें हर दिन कोई मुख्यातिथि आता है। अब कौन मुख्यातिथि होगा, इस पर मेला कमेटी पर काफी दबाव होता है। वही मेले में अंतरराष्ट्रीय सरीखे कोई भी कार्यक्रम नहीं होते। यानी बाहरी देशों की कोई भी संस्कृति इस मंच पर नहीं दिखती। लोगों का यह मत है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर की झलक इस मंच पर जरूर दिखनी चाहिए। इसके लिए मेला कमेटी को कोशिशें करनी चाहिएं।

रेणुका मेला

मां-बेटे के मिलन का प्रतीक अंतरराष्ट्रीय मेला श्री रेणुकाजी हर वर्ष नवंबर में आयोजित किया जाता है। परंपरा के अनुसार इस मेले में भगवान परशुराम अपनी मां रेणुका से मिलने पहुंचते हैं।  रेणुका मेले में दशमी के दिन भगवान परशुराम की शोभायात्रा में ढोल, नगाड़े, करनाल, रणसिंगा, दुमानु आदि बाजे बजाते हैं एवं उसके पीछे लोकप्रिय तीर- कमानों का खेल ठोडा, नृत्य दल, स्थानीय नृत्य प्रदर्शन व अन्य सांस्कृतिक झलकियां दिखाई देती हैं। यह मेला पूर्णमासी तक चलता रहता है। पूर्णमासी के स्नान को बहुत महत्त्व दिया जाता है, जिस कारण लोग इसी दिन के स्नान के लिए उमड़ पड़ते हैं।

कुल्लू दशहरा

पूरे भारतवर्ष में जिस दिन दशहरे की समाप्ति होती है उस दिन से कुल्लू की घाटी में इस उत्सव का ज्वार चढ़ने लगता है। रथ यात्रा ,खरीददारी का उल्लास और धार्मिक परंपराओं की धूम इस उत्सव को और भी आकर्षक बना देते हैं। इस उत्सव में सैकड़ों देवी-देवता शिरकत करते हैं। कुल्लू में विजयदशमी के पर्व को इस तरह उत्सव मनाने की परंपरा राजा जगत सिंह के राज में 1637 में हुई।

सिकुड़ता ढालपुर चिंतनीय

दशहरा उत्सव के दौरान ढालपुर मैदान में विभिन्न देवी-देवता पहुंचते हैं, लेकिन जिस तरह से ढालपुर मैदान सिकुड़ता जा रहा है। उससे देव समाज के लोग भी काफी आहत  हैं। हालांकि अब प्रशासन ने देवी-देवताओं के स्थान को तो चिन्हित कर दिया है, लेकिन उसके बावजूद  प्रशासन ढालपुर मैदान का सही ढंग से रखरखाव नहीं कर सका है। दशहरे से कुछ दिन पहले आकर  अपने-अपने आराध्य देवी-देवताओं के स्थान की  लोग साफ-सफाई करते हैं।

शिमला में ग्रीष्मोत्सव

राजधानी शिमला में जून में ग्रीष्मोत्सव का आयोजन किया जाता है।  इसमें  बालीवुड कलाकारों को भी आमंत्रित किया जाता है। इसके अलावा विभिन्न जिलों के सांस्कृतिक दल इस उत्सव में प्रस्तुतियां देते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों को आयोजित करने के अलावा इस उत्सव में फूड फेस्ट का भी आयोजन किया जाता है। इसके अलावा विभिन्न किस्म के स्टॉल भी लगाए जाते हैं।

मिंजर मेला

मिंजर मेला हिमाचल प्रदेश में चंबा का एक प्रसिद्ध त्योहार है। मिंजर मेला 31 जुलाई से शुरू होता है और एक सप्ताह तक चलता है। मिंजर मेला त्रिगर्त के शासक (अब कांगड़ा के रूप में जाना जाता है) के ऊपर चंबा के राजा की जीत के स्मरणोत्सव के रूप में, 935 ईस्वी से हिमाचल प्रदेश के चंबा घाटी में मनाया जाता है। इसका मुख्य आकर्षण लोक गायन और नृत्य हैं।

मंडी शिवरात्रि

हिमाचल में अंतरराष्ट्रीय मंडी शिवरात्रि उत्सव की तो बात ही निराली है। ग्रामीणों के लिए यह सबसे बड़ा त्योहार होता है, इसलिए सब खुलकर खर्च करते हैं। यह त्योहार फरवरी और मार्च के महीने में मनाया जाता है। कुछ लोग इस दिन निर्जला व्रत रखते हैं। शिवरात्रि में विदेशों से भी सैलानी मंडी पहुंचते हैं।

फूड फेस्ट के जरिए

हिमाचली संस्कृति का प्रचार-प्रसार

राजधानी शिमला में ग्रीष्मोत्सव मनाया जाता है। इस दौरान खास तौर पर फूड फेस्टिवल का भी आयोजन किया जाता है। इस दौरान पहाड़ी व्यंजनों को विशेष तौर पर तैयार किया जाता है। इन फूड फेस्टिवल में पर्यटन विभाग की ओर से स्टॉल लगाए जाते हैं। इनमें सिड्डू, चने का मदरा, मक्की की रोटी, साग समेत कई किस्म के पहाड़ी व्यंजन परोसे जाते हैं। इसके साथ ही कुछ नॉन वेज व्यंजन भी खास तौर पर तैयार किए जाते हैं।

रिज पर गीत-संगीत से संस्कृति की झलक

फूड फेस्टिवल के अलावा पर्यटन विभाग की ओर से नए साल पर शिमला में 31 दिसंबर के लिए विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। इस दौरान करीब एक सप्ताह तक शिमला के रिज पर जश्न का माहौल रहता है। इस दौरान गीत-संगीत समेत अन्य कई कार्यक्रम करवाए जाते हैं।

ट्रैवल मार्ट से अनूठी पहल

इसके अलावा पर्यटन विभाग की ओर से दिल्ली के ट्रैवल मार्ट में भी पर्यटन और प्रदेश की संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया जाता है। प्रदेश में वर्तमान में आने वाले पर्यटकों का आंकड़ा करीब एक करोड़ 83 लाख है, जो जिनमें करीब पांच लाख विदेशी पर्यटक होते हैं। हिमाचल पहुंचने वाले पर्यटक यहां की सांस्कृतिक धरोहरों से रू-ब-रू होने के लिए ही आते हैं।

आर्ट फेस्टिवल का उद्देश्य अधूरा

प्रदेश में आयोजित होने वाले हर मेले और उत्सव में प्रदेश की संस्कृति की झलक मिलती है, लेकिन धीरे-धीरे इन आयोजनों पर पश्चिमी प्रभाव देखने को मिल रहा है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के मेलों को तब तक अधूरा माना जाता है। जब तक कि बालीवुड का बड़ा कलाकार इनमें शिरकत न करे। इसके लिए आयोजन होने के करीब एक माह पूर्व कलाकारों से मोलभाव शुरू हो जाता है। नतीजा यह होता है कि बाहरी राज्यों के कलाकारों को दोगुने दाम पर बुला लिया जाता है,जबकि लोकल कलाकारों को बेहद कम दाम दिए जाते हैं। वर्तमान में प्रदेश में कहीं भी कोई ऐसा थियेटर नहीं है, जहां पर लोक गायन का नियमित तौर पर प्रशिक्षण दिया जाता हो।

गुम होती परंपराएं

प्रदेश में कई ऐसी परंपराएं हैं, जो लुप्त होती जा रही है। पहले लोग मनोरंजन के लिए गांवों में हर माह करयाला का आयोजन करते थे। करयाला एक किस्म का हास्य नाटक मंचन होता है जिसमें गांव के स्थानीय लोग ही विभिन्न किरदार निभाते हैं, लेकिन अब लोग थियेटर में फिल्म देखना और टीवी सेट पर ही नाटक देखना पसंद करते हैं। करयाला की थीम सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर आधारित होती थी, लेकिन अब करयाला का मंचन गिनी-चुनी जगहों पर ही होता है।

ठोडा का मिटने लगा वजूद

इसके साथ ही दिवाली के बाद कुछ खेल गतिविधियों का आयोजन किया जाना परंपरा का हिस्सा माना जाता है। इनमें ठोडा खेल काफी प्रसिद्ध है, लेकिन यह खेल भी आज अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है।

यह भी छूटा

गांवों में मनोरंजन के लिए झोटों यानी कटड़ो का मेला भी कुछ समय तक प्रचलन में था। मनोरंजन के साथ-साथ इस मेले से यह भी आस्था जुड़ी है कि अगर कोई ग्रहण देख ले तो उसे झोटों की लड़ाई देख लेनी चाहिए, इससे ग्रहण का प्रभाव कम हो जाता है। लेकिन अब पशुओं की लड़ाई पर प्रतिबंध लगने से इन मेलों के आयोजन का रोमांच लगभग समाप्त हो गया है।

* प्रदेश में मेलों  के आयोजन का उद्देश्य तभी पूरा हो पाएगा,जब इनके माध्यम से प्रदेश की संस्कृति और लोकगीतों व कलाकारों को प्रोत्साहित किया जाएगा, लेकिन आज के दौर में ऐसा नहीं होता। यही वजह है कि मेले भीड़ तो जुटाते हैं लेकिन संस्कृति का प्रचार नहीं कर पाते। इसलिए जरूरी है कि स्थानीय कलाकारों को मौका मिले। संस्कृति को बचाए रखने के लिए जरूरी है कि हमारे लोकगीतों को बिगाड़ा न जाए

— सुदर्शन वशिष्ठ,  वरिष्ठ साहित्यकार

* पहाड़ी संस्कृति की तरफ लोगों का रुझान कम हो रहा है क्योंकि जो भी आयोजन होते हैं, उनमें ज्यादातर पश्चिमी संस्कृति से जुड़े मनोरंजन को ही परोसा जाता है। अपनी संस्कृति को बचाने के लिए जरूरी है कि लोगों को प्राचीन संस्कृति की महत्ता के बारे में जागरूक किया जाए खास कर युवा वर्ग को इस बारे में बताना होगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर के आयोजन के  सिमटने का एक बड़ा कारण यह भी है कि आयोजनों में वही घिसा-पिटा पश्चिमी मनोरंजन परोसा जाता है

— अरुण कुमार शर्मा, पूर्व निदेशक भाषा एंव संस्कृति विभाग

* प्रदेश में जो भी बड़े आयोजन होते हैं उनमें बाहरी कलाकारों की अपेक्षा स्थानीय कलाकारों को अधिक मौका दिया जाना चाहिएं। स्थानीय कलाकारों को बुनियादी सुविधाएं दी जानी चाहिए। इसके अलावा ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि प्रदेश के लोक दल दूसरे राज्य में जाएं और दूसरे राज्य के कलाकार यहां आएं। संस्कृति को पर्यटन से जोड़ा जाना चाहिए,ताकि प्रदेश की समृद्ध संस्कृति के बारे में लोग जान सकें

— एसआर हरनोट , हिमालय साहित्य एवं संस्कृति मंच के अध्यक्ष व लेखक

यहां हैं  खामियां

मेला प्राधिकरण की जरूरत

बेशक कला के क्षेत्र में हिमाचल में कुछ प्रयास हुए और कला, संस्कृति एवं भाषा विभाग को कुछ हद तक इसका श्रेय मिलेगा, लेकिन महज औपचारिकताओं के बजाय कला व सांस्कृतिक आंदोलनों की शक्ल अख्तियार करने की जरूरत है। यह माकूल अधोसंरचना और निरंतर कार्यक्रमों के बिना संभव नहीं होगा। सरकार ने प्रदेश में ऑडिटोरियम समेत कई अन्य प्रयास किए हैं,लेकिन इसके साथ-साथ बुनकरों, दस्तकारों और उत्पादकों को भी स्थायी ढांचा चाहिए। प्रदेश के प्रमुख शहरों में प्रदर्शनी मैदानों तथा व्यापारिक मेलों के लिए अधोसंरचना का विकास करना होगा। हिमाचल में कई मेलों तथा सांस्कृतिक समारोहों को देखते हुए एक मेला प्राधिकरण का गठन अवश्य  किया जाना चाहिए,ताकि एक स्वरूप से मेलों का आयोजन हो सके।

स्थानीय कलाकार दरकिनार

वर्तमान में मेलों के आयोजन भाषा एवं संस्कृति विभाग जिला उपायुक्तों के माध्यम से करता है। मेला राज्य स्तर का हो, राष्ट्रीय स्तर का हो या अंतरराष्ट्रीय स्तर का, इनके आयोजन की जिम्मेदारी जिला प्रशासन को ही दी जाती है। कई बार ऐसा होता है कि कलाकारों के चयन में जिला प्रशासन पर पिक एंड चूज के आरोप लगते हैं। इतना ही नहीं,जिला प्रशासन अकसर बजट का रोना रोता है। इसके बावजूद स्थानीय कलाकारों को तरजीह देने के स्थान पर बाहरी राज्यों से दोगुने बजट पर कलाकारों को आमंत्रित किया जाता है।

लोक कला का संरक्षण नहीं

विडंबना यह कि एक साथ कई विभाग, स्थानीय प्रशासन, निजी प्रयास व सामाजिक योगदान से अनेक आयोजन होते हैं, जबकि इनके प्रबंधन की कोई परिपाटी नहीं बनी। करीब तीन दर्जन सांस्कृतिक समारोहों के बावजूद हिमाचल अपनी विरासत का संरक्षण इसलिए नहीं कर पा रहा, क्योंकि किसी एक एजेंसी के न होने से दलालोंके मार्फत कलाकार बिकते हैं, जबकि गुणवत्ता, मनोरंजन व लोककला का संरक्षण नहीं हो पाता।

ट्रेड फेयर महज खानापूर्ति

कुछ इसी अंदाज में हिमाचली शहरों में कई निजी ट्रेड फेयर हो रहे हैं, लेकिन ये महज व्यावसायिक उद्देश्यों की पूर्ति है। ऐसे में चिन्हित शहरों में राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ मिलकर अगर व्यापारिक, कला या हस्तशिल्प मेलों का आयोजन हो, तो इन्हें पर्यटन उद्योग से भी जोड़ा जा सकता है।

धरोहरों को सहेजने की जरूरत

हिमाचल का एक तीसरा पक्ष भी है, जो हमारी ऐतिहासिक व पर्वतीय धरोहर के रूप में संरक्षण चाहता है। कुछ समय पूर्व धरोहर कार्यक्रमों का एक सिलसिला शुरू किया गया था, लेकिन उसके बाद इस तरह के कार्यक्रमों पर लगभग ब्रेक लगा दी, जबकि शिमला, सुजानपुर, पुराना कांगड़ा, चंबा मंदिर समूह, धर्मशाला शहीद स्मारक, प्रदेश के मंदिर परिसर समेत कई ऐसे स्थान हैं ,जहां इस तरह के कार्यक्रम आयोजित कर न केवल धरोहरों के संरक्षण के लिए लोगों का जागरूक किया जा सकता है बल्कि  इससे पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा। प्रदेश के प्रमुख मंदिर परिसरों की विस्तार योजनाओं में हिमाचली कला, गीत-संगीत व खान-पान की परंपराओं का संरक्षण सुनिश्चित किया जा सकता है।


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