स्तरीय साहित्य रचना साहित्यकारों का दायित्व

By: Mar 13th, 2017 12:05 am

नासिर युसुफजई

साहित्य समाज का आईना होता है, जो अपने समय के समाज का इतिहास, कला एवं संस्कृति का सच्चा स्वरूप दर्शाता है। यह अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ माध्यम भी है।  ाहित्य प्रायः समाचार-पत्रों, साहित्यिक पत्रिकाओं, संग्रहों और रचनाकारों की पुस्तकों के माध्यम से पाठकों तक पहुंचता है। एक समय था जब स्तरीय साहित्य पढ़ा जाता था। साहित्यिक कार्यक्रम होते रहते थे और साहित्य पर चर्चाएं भी होती थीं, लेकिन आज ऐसा नहीं हो रहा है। उच्च स्तरीय साहित्यिक पत्रिकाओं का अभाव है। समाचार-पत्रिकाओं में साहित्य कम ही नजर आता है। अधिकतर अखबारों में साहित्यिक संपादक ही नहीं है। छोटी पत्रिकाओं की भरमार है लेकिन यह पाठकों तक स्तरीय साहित्य नहीं पहुंचा पा रही हैं क्योंकि न ही इनके मालिकों और न ही इनके संपादकों को साहित्य की अधिक समझ है। खासतौर पर गीत, गजल आदि के छंद विधान की जानकारी इन संपादकों को नहीं है जिसके चलते गजल और कविता का स्तर गिरता जा रहा है। अध्ययन की कमी के कारण नए लेखकों की भाषा पर बिलकुल भी पकड़ नहीं है। हिंदी और उर्दू के शब्दों का अनुचित प्रयोग अकसर देखने को मिलता है। वहीं दूसरी ओर विद्यालयों और महाविद्यालयों की तुलना में हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में साहित्यिक गतिविधियां नहीं के बराबर ही हैं। जरूरी है कि स्कूली स्तर पर साहित्यिक गतिविधियां प्रारंभ हों, विद्यार्थियों में साहित्य के प्रति लगाव पैदा किया जाए। जहां तक मीडिया, खासकर सोशल मीडिया का प्रश्न है तो इनके अपने गुण और सीमाएं हैं, एजेंडा है, क्रियाकलाप हैं। यह दोनों लेखकों को मंच तो प्रदान करते हैं लेकिन स्तरीय साहित्य तो रचनाकारों को खुद ही रचना होगा। इसके लिए अध्ययन, चिंतन एवं मनन भी उन्हें स्वयं ही करना होगा। वहीं मीडिया को जल्दबाज़ी और पूंजीवादिता छोड़कर समाज तथा आने वाली पीढि़यों की चिंता करते हुए साहित्य और कला को उसका मान-सम्मान देना ही होगा। पाठकों और दर्शकों को अच्छे-बुरे की पहचान करनी होगी और लोगों को बेकार या फालतू में रचने का वायरस से बचना होगा। कविता या ़गजल उतरे तभी लोगों के दिलों में जगह बनाती है, नहीं तो ऐसी रचनाओं को काल खा जाता है।

यही हाल कहानियों और उपन्यासों का है। छायावादी कहानियां, उपन्यास या अन्य विधाओं की रचनाएं अंधेरे में खो जाती हैं लेकिन यथार्थ आधारित रचनाएं पीढि़यों के साथ जवान होती जाती हैं। मिसाल के तौर पर रामचरितमानस, गीता, गोदान, सिद्धार्थ, उसने कहा था, साए में धूप, सत्य के प्रयोग आदि कुछ ऐसे नाम हैं। मुझे लगता है कि सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं को अपने नियमित कार्यक्रमों के अलावा तमाम अहम मौकोें पर स्तरीय साहित्य चर्चाएं आयोजित करवानी चाहिए। हां, बाजारवाद के बरअक्स साहित्य, सोशल मीडिया के आंगन में कितना महफूज रहेगा, यह विचारणीय है।

-नाहन के रहने वाले नासिर युसुफजई

वरिष्ठ गजलगो, कवि, चित्रकार और रंगकर्मी हैं। गजल संकलन ‘कुछ पत्ते पीले कुछ हरे’ का संपादन, गजलियात ‘इब्तिदा’ और माहिये ’ के रचयिता।

 


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