अस्मिता पर संकट है मातृभाषाओं का विलोपन

By: Apr 24th, 2017 12:05 am

किसी भाषा की मौत एक जाति, समुदाय उसके इतिहास, सास्कृतिक मूल्य और सौंदर्य चेतना का अंत है, जिसके निर्माण में सदियां बीत जाती हैं, उसे बचाएं रखना हमारा कर्त्तव्य है।  आज अंतरराष्ट्रीय बाजारवाद और भूमंडलीय करण के प्रभाव से छोटी भाषाओं के लुप्त होने की आशंका और बढ़ गई है….

हम जानते हैं कि मातृभाषा में शिक्षा पाने से बच्चों के मस्तिष्क में सीखने की स्किल यानी कुशलता बड़ी तेजी के साथ जागृत होती है। मातृभाषा में शिक्षा पाने वाले बच्चों की जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, वैसे ही उनकी महारत यानी स्मरण दक्षता भी उसी दर से बढ़ती है।  मातृभाषाओं में कहावतें, लोककथाएं, कहानियां, पहेलियां, सूक्तियां होती हैं, जो सीधे तौर पर उनकी जीवंत स्मृतियों से जुड़ी होती हैं। जब बच्चों में उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा दी जाती है तो उनके चेहरे पर सीखने की उत्फुल्लता दिखाई पड़ती है। इंग्लैंड, जर्मनी और रूस इत्यादि पश्चिमी राष्ट्रों में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही है। इन राष्ट्रों में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होने के कारण वहां के युवाओं के हृदय में अपने धर्म, संस्कृति, साहित्य और राष्ट्र के लिए अधिक प्रेम की भावना होती है।  आंकड़ों के अनुसार वर्तमान में लगभग 2500 भाषाओं की हालत बेहद ही चिंताजनक है। ये वे भाषाएं हैं, जिनका अस्तित्व पूरी तरह से समाप्त होने की कगार पर है। दुनिया में 199 भाषाएं ऐसी हैं, जिन्हे बोलने वालों की संख्या 10 से भी कम है तथा 178 भाषाओं को बोलने वालों की संख्या 150 से भी कम है। संसार की कुल भाषाओं में से आधी भाषाओं के बोलने वालों की संख्या 10000 हजार से भी कम है, वहीं एक चौथाई भाषाएं 1000 हजार से भी कम लोग बोलते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के सांस्कृतिक संगठन यूनेस्को की रिपोर्ट ‘एटलस ऑफ  वर्ल्ड्स लार्जेस्ट लैंग्वेज इन डेंजर-2009‘ में कहा गया है कि मौजूदा सभी भाषाओं में से तकरीबन 90 फीसदी भाषाएं अगले 100 वर्षों में अपना वजूद खो सकती हैं। जिन देशों की भाषाएं खतरे में हैं, उनमें भारत शीर्ष पर है। यहां 196 भाषाएं मिटने की कगार पर हैं।

दुनियाभर में बढ़ रहे आर्थिक और बौद्धिक साम्राज्यवाद के चलते अंग्रेजी या दूसरी वर्चस्व वाली भाषाएं तेजी से विकास कर रही हैं। जो भाषाएं सीधे तौर पर आर्थिक रूप से जुड़ी हैं और शासन-सत्ता को प्रभावित करती हैं। वे अपना विकास तेजी से कर रही हैं। वहीं जो भाषाएं कमजोर वर्गों के समुदायों की हैं, वे नष्ट हो रही हैं, क्योंकि उनमें रोजगार की कोई गारंटी न होने के कारण उस समुदाय के लोग भी भाषायी पलायन करके उस भाषा का दामन थाम रहे हैं, जिनमें रोजगार की सुरक्षा मिलती है। वर्ष 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में 1652 भाषाएं थीं, जिनकी संख्या 2001 में घटकर मात्र 234 रह गई है। पिछले पांच दशक में भारत 1418 भाषाएं खो चुकी हैं। राष्ट्रीय भाषा संस्थान मैसूर की रिपोर्ट में 12 आदिवासी भाषाओं को विलुप्त होने वाली सूची में रखा गया है। भारत की 114 मुख्य भाषाओं में से 22 को ही संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है। उसमें सिर्फ  दो ही आदिवासी भाषाएं संथाली और बोडो को रखा गया है। अल्पसंख्यक समुदायों के लिए भाषा की समस्या सबसे गंभीर है, क्योंकि वे अधिकतर समाज के बड़े हिस्से के साथ संगठित होने की कोशिश करते हैं, ऐसे में वह अपनी भाषाओं से दूर होने लगते हैं। भाषा की संस्कृति से जुड़े होने के कारण नुकसान होता है। लोग केवल भाषा ही नहीं बल्कि अपना पारंपरिक ज्ञान भी खोते चले जा रहे हैं। किसी भी समाज की संस्कृति और सभ्यता की जान उसकी भाषा में ही बसी होती है। भाषा का खत्म होना किसी त्रासदी से कम नहीं है। भाषा के खत्म होने के साथ न सिर्फ उस भाषा के बोलने वाले खत्म हो जाते हैं, बल्कि उनका गौरवपूर्ण इतिहास भी खत्म हो जाता है। भारत में मामूली मातृभाषाओं और अवर्गीकृत बोलियों का ही लोप नहीं हो रहा है, बल्कि ऐसी कई बड़ी भाषाएं भी विलुप्त हो रही हैं, जिनकी साहित्यिक परंपरा रही है ओर उनका काफी बड़ा लिखित साहित्य भी मौजूद है। गौरतलब है कि आदिवासी भाषाओं के साथ पूरी दुनिया का रवैया हमेशा से भेदभाव पूर्ण रहा है। सत्ता और ताकत के बल पर ऐसी परिस्थितयां निर्मित की गईं कि आदिवासी समाज अपनी भाषाओं से विमुख हो जाए। राष्ट्रीय एकता और अखंडता को मजबूत करने के नाम पर शिक्षण के दायरे से आदिवासी भाषाओं को बहिष्कृत रखा गया। आज दक्षिण के सभी राज्यों मे आदिवासियों की भाषाएं गायब हो रही हैं।

उनकी संस्कृति और अस्मिता लुप्त होने की कगार पर हैं। विद्वानों का मानना है कि जिस देश की संस्कृति खत्म करनी हो या देश को खत्म करना हो तो उसकी भाषाओं को खत्म कर दो। संस्कृति स्वतः खत्म हो जाएगी। आज भारत में आदिवासियों की भाषाएं खत्म की जा रही हैं, जबकि भाषा का प्रश्न उनकी अस्मिता से जुड़ा हुआ है। उनकी 600 भाषा/बोलियां हैं, जिनमें से 90 में साहित्य लिखा जा रहा है। दुनिया के किसी भी देश में इतनी भाषाओं में साहित्य नही लिखा जा रहा है। फिर भी आदिवासियों की शिक्षा को उनकी अपनी मातृभाषा में न देकर प्रदेश की राज्य भाषा में दिया जा रहा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 350 ए में यह प्रावधान किया गया है राज्य छात्रों को उनकी मातृभाषा में ही प्रारंभिक शिक्षा दें। छोटा बच्चा अपनी मातृभाषा में सोचता है। इसलिए मातृभाषा बच्चे के जीवन का अभिन्न अंग और अमूल्य निधि होती है। निर्विवाद रूप से बच्चे की शिक्षा का माध्यम उसकी मातृभाषा ही होनी चाहिए। दरअसल, भाषाएं आधुनिकीकरण के दौर में प्रजातियों की तरह विलुप्त होती जा रही हैं। यह गंभीर चिंता का विषय है।  किसी भाषा की मौत व्यक्ति की मौत से बहुत बड़ी होती है, क्योंकि भाषा एक सामाजिक संपत्ति एवं सामूहिक विरासत है। इसलिए किसी भाषा की मौत एक जाति, समुदाय उसके इतिहास, सास्कृतिक मूल्य और सौंदर्य चेतना का अंत है, जिसके निर्माण में सदियां बीत जाती हैं, उसे बचाएं रखना हमारा कर्त्तव्य है।  आज अंतरराष्ट्रीय बाजारवाद और भूमंडलीकरण के प्रभाव से छोटी भाषाओं के लुप्त होने की आशंका और बढ़ गई है। इस स्थिति में ऐसी परियोजनाएं बननी चाहिए, जो लुप्त होती भाषाओं को अक्षुण्ण रख सकें।

— बुद्ध प्रकाश

 द्वारा इंजी.महेंद्र कुमार, प्लाट नंबर-8, पिंक सिटी सेक्टर-6, (दिल्ली पब्लिक स्कूल के पीछे) 

जानकीपुरम विस्तार, लखनऊ


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