आंचलिकता ने दी है अलग पहचान

By: Apr 10th, 2017 12:05 am

किसी एक कहानी के साथ समय कई नई कहानियां जोड़ देता है। इसी कारण कालांतर में कहानी के उत्स को पहचानना और उसके पड़ावों को चिन्हित करना मुश्किल हो जाता है। यह प्रक्रिया हमें इस बात के लिए सजग करती है कि हम अपनी कहानी लेकर सजग रहें।  देश के अन्य हिस्सों की तरह हिमाचली कहानी पर भी परिवेश के प्रभाव को महसूस किया जा सकता है। यह प्रभाव जिस विशिष्टता को रचता है, उसकी परतों से परिचित होकर ही कहानी के मर्म को ठीक ढंग से समझा जा सकता है और भविष्य की कहानी यात्रा को खाद-पानी भी मुहैया करवाया जा सकता है। वरिष्ठ कहानीकार और आलोचक डा. सुशील कुमार फुल्ल ने अपने अतिथि संपादकीय की पहली किस्त में कहानी के प्रश्नों और पड़ावों को पहचानने की कोशिश की है…   

डा.सुशील कुमार फुल्ल -फीचर संपादक

स्वतंत्रता पूर्व रचित हिमाचल की हिंदी कहानी में मात्र तीन कहानीकारों ने अपने सृजन का चमत्कार दिखाया। चंद्रधर शर्मा गुलेरी एवं योगेश्वर गुलेरी ने कम कहानियां लिखी; अतः परिणामतः उनका फलक अपेक्षाकृत सीमित है, जबकि यशपाल की विषयवस्तु एवं उसकी वैचारिक चुभन बहुत व्यापक है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिंदी कहानी में सक्रियता के दर्शन होते हैं। नई कहानी, अकहानी, सहज कहानी, सचेतन कहानी, सक्रिय कहानी, परवर्ती सहज कहानी अनेक आंदोलनों ने हिंदी कहानी को आलोचना के केंद्र में बनाए रखा। कहानी की नई-नई परिभाषाएं गढ़ी गईं। कभी इसे अंधेरे में चीख कहा गया और कभी इसे जीवन की धड़कनों को त्वरित गति से चित्रित करने वाली रचना माना गया और फिर कमलेश्वर की समांतर कहानी ने तो इसे आम आदमी की कहानी कहकर समांतर का ऐसा बिगुल बजाया कि कहानियां धड़ाधड़ उत्पाद की तरह लिखी। यहां कहानीकारों या कहानियों का उल्लेख करने से पहले मैं कहानी आंदोलनों में हिमाचल के योगदान का जिक्र करना चाहता हूं। वैसे तो सब जानते हैं कि अमृतराय ने सहज कहानी का प्रयोग सबसे पहले (सहज कविता की तर्ज पर) सन् 1962 में किया, लेकिन हिमाचल में कमलेश्वर की समांतर कहानी की प्रतिक्रिया स्वरूप सन् 1976 में सहज कहानियों के प्रकाशन के साथ हुआ। यहां सहज कहानी का अभिप्राय कलात्मकता से लिया गया और कहा गया कि जैसे मानव शरीर में धमनियों में कलात्मक ढंग से रक्त का प्रवाह होता है, वैसे ही सहज कहानी संश्लिष्ट चित्रण के माध्यम से अपना शैल्पिक रूप ग्रहण करती है। सारिका एवं हैदराबाद से प्रकाशित होने वाली विकल्प पत्रिका  ने सहज कहानी का नोटिस लिया। साहित्येतिहास लेखकों में डा. गणपतिचंद्र गुप्त ने सन् 1990 में प्रकाशित हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास के दूसरे संस्करण के दूसरे खंड में हिमाचली अथवा परवर्ती सहज कहानी को नव  अभ्युत्थान कहकर स्वीकृति प्रदान की है।

डा. ब्रजेश मिश्र ने भी हिमाचल की हिंदी कहानी को सहज कहानी आंदोलन के रूप में अंकित किया है। अन्य आलोचनात्मक ग्रंथों में भी कहीं-कहीं हिमाचली अवदान को सराहा गया है। जैसे मैंने पहले कहा है सन् 1950 के बाद भी राष्ट्रीय धारा में हिंदी कहानी की सक्रियता में हिमाचल बराबर का सहभागी रहा है। सुंदर लोहिया अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे थे। बाद में उनकी कोलतार ने कहानी जगत में धाक जमाई। छठे दशक में ही सुशील कुमार अवस्थी बिंद्रावन (पालमपुर) में पारिवारिक जीवन की सपाट कहानियां लिख रहे थे। उनका कहानी संग्रह बड़ा आदमी शीर्षक से सन् 1957 में नासिक प्रेस, महाराष्ट्र से प्रकाशित हुआ। कवि कथाकार खेमराज गुप्त सागर की कहानी थुम्बू की राख अंधविश्वासों एवं कर्मकांड की व्यर्थता पर एक मार्मिक आंचलिक कहानी है। छठे दशक में ही श्री सत्येंद्र शर्मा ने बर्फ के हीरे नाम से ग्यारह कहानीकारों की 22 कहानियों का संग्रह देहरादून से प्रकाशित करवाया। फिर सातवें दशक में किशोरी लाल वैद्य ने 17 कहानीकारों की एक-एक आंचलिक कहानी लेकर एक कथा परिवेश संग्रह का संपादन किया, जिसकी चर्चा धर्मयुग, सारिका तथा अन्य अनेक पत्रिकाओं में हुई। इस बीच छठे-सातवें दशक में हिमाचल के कई युवा कहानीकार, जो अब मार्गदर्शक की भूमिका में हैं, सारिका, धर्मयुग, साप्ताहिक, हिंदुस्तान, कादम्बिनी, निहारिका, कंचन प्रभा, कहानी, कहानीकार तथा दैनिक पत्रों के रविवारीय परिशिष्टों में बराबर छप रहे थे। बाद में यह चर्चा भी रही कि कुछ कहानीकार विज्ञापन जुटाने में सहायक होने के कारण छप गए और कुछ सरकारी पदों पर आसीन होने के कारण बड़े संपादकों को हिमाचल के दर्शनीय स्थल दिखाने के सौहार्द स्वरूप छप गए। सौहार्द कहिए, प्रबंधन कहिए या चातुर्य कहिए जैसे आज भी लोग बड़े पुरस्कार झपटने-लपकने में नए-नए पैंतरे या गुपचुप सांठ-गांठ व जोड़-तोड़ में महारत का बखूबी प्रयोग करते हैं। उसी प्रकार कुछ कहानियां ऐसे भी छपीं, लेकिन यह सार्वभौमिक प्रवृत्ति है और आज तो महारोग की तरह व्याप्त हैं। संपादक परिचित होना चाहिए बस, रचना बड़ी टिप्पणी के साथ छप जाएगी और कहां महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ भी छापने से पूर्व लाल पीली कर दी थी। किशोरी लाल वैद्य के संकलन में विद्यमान 17 लेखकों में से 16 बाद में भी उतने ही सक्रिय रहे, जबकि ताराचंद संतोषी ने कहानी लिखना ही छोड़ दिया। जैसे किसी समय चर्चित कहानीकार पृथ्वी राज मोंगा ने नेशनल बुक ट्रस्ट में संपादक बनते ही कहानी रचना को अलविदा कह दिया। यहां एक और लेखक का उल्लेख आवश्यक है, जिसने परंपरागत शैली या कहें प्रेमचंद की प्रारंभिक शैली में खूब कहानियां लिखीं। मेरा अभिप्राय कृष्ण कुमार नूतन से है। मंडी शहर के ही एक अन्य कहानीकार योगेश्वर शर्मा का योगदान भी महत्त्वपूर्ण है। उनकी कहानी पीलिया का मौन भी मुखर है। किसी के घर में बरतन मांजने वाली औरत अपने बेटे को साहब के बेटे के गिलासों में बचा रस पिलाती है। बड़े घर के बेटे को पीलिया हो गया था…और बचा-खुचा रस-जूस गरीब के बच्चे के लिए अमृत। गंगाराम राजी ने भी नीली साड़ी जैसी चर्चित कहानियां लिखीं, जिनमें टनल आदि बनने के समय की समस्याएं आती हैं, उनकी यथार्थपरक तस्वीर चित्रित मिलती हैं। वह अब भी उतने ही सक्रिय हैं, जितने सातवें-आठवें दशक में थे। आजकल हर दो-तीन वर्ष में उनका एक संग्रह आ जाता है। मुंबई प्रवास की कहानियां उनका नया संग्रह है। सहज कहानियां सन् 1976 में पालमपुर से प्रकाशित हुआ, जिसमें 17 कहानीकार थे, जो बाद में भी अपने-अपने सृजन कर्म में प्रभावी बने रहे। फिर सहज कहानियां (1987) में संग्रह आया, इसमें कुछ और कहानीकार थे। सन् 70 और 80 के बीच बहुत से संपादित कहानी संग्रह आए, जिन्होंने नए पुराने लेखकों को पहचान दी। सुदर्शन वशिष्ठ, सुशील कुमार फुल्ल, गौतम व्यथित, श्रीनिवास जोशी, तुलसी रमण आदि ने अपने-अपने ढंग से कहानी संकलनों का संपादन किया।

नरेश पंडित ने भी एक प्रगतिशील कहानीकारों का संग्रह प्रकाशित किया, जो खूब चर्चित हुआ। पंडित की एक कहानी मांस-भात अमर-अजर कहानी है। ऐसी ही एक कहानी बद्रीसिंह भाटिया की भी है, जो यथार्थ स्थितियों की मार्मिक कहानी है। हिमाचल की हिंदी कहानी की एक विशिष्ट प्रवृत्ति का उल्लेख रोचक होगा। यह है आंचलिकता की प्रवृत्ति। घुमंतू गद्दियों के जनजीवन पर प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक की ‘मेमनां’, ‘फन्दा’, ‘ठूंठ’, ‘अनुपस्थित’, ‘मीच्छवं’ आदि कहानियां चर्चित रहीं अपने समय में। यशपाल ने किन्नौर के जीवन पर कुछ कहानियां लिखीं, सुदर्शन वशिष्ठ ने कुल्लू के जनजीवन पर रचनाएं प्रस्तुत कीं। एसआर हरनोट ने एक खास परिवेश पर जोरदार कहानियां लिखीं… बिल्लियां बतियाती हैं, जीन-काठी आदि। हरनोट की प्रारंभिक कहानियों ने जो मेहनत की, वह बाद में परिपक्वता के साथ दर्ज हो रही है। इसी प्रकार राजेंद्र राजन, गौतम व्यथित, पीयूष गुलेरी, संसारचंद प्रभाकर, सत्यापाल शर्मा, प्रत्यूष गुलेरी, रजनीकांत, दिनेश धर्मपाल आदि की कहानियां गठन की दृष्टि से कहीं-कहीं शिथिलता का आभास करवाती हैं। विजय सहगल ने ज्यादा कहानियां नहीं लिखीं, लेकिन उनकी एक कहानी ‘अपने लोग’ विषय एवं शिल्प की दृष्टि से कालजयी बन जाती है। श्याम सिंह घुना ने भी ग्रामीण परिवेश को उजागर करती कहानियां लिखी हैं। भगवान  देव चैतन्य का योगदान सामाजिक कहानियों के परिप्रेक्ष्य में अधिक है। कर्नल विष्णु शर्मा, संतराम शर्मा, महाराज कृष्ण काव ने भी खूब कहानियां लिखी हैं। रंगकर्मी कैलाश आहलूवालिया के कहानी संग्रह निरंतर प्रकाशित हो रहे हैं और उनकी कहानियों में एक सहजता पाठक को बांधे रखती है। त्रिलोक मेहरा, संदीप शर्मा, उमेश कुमार, अश्क, प्रदीप गुप्ता, गुरुदत्त, हंसराज भारती, कल्याण जग्गी उन लेखकों में से हैं, जो साहित्य की एक से अधिक विधा में सक्रिय हैं। प्रत्यूष गुलेरी की ‘अमर प्रेम की अकथ कथा’ अभी पीछे चर्चा में रही है। हिमाचल में बड़ी संख्या में कहानीकार हैं, जो अपने-अपने ढंग से रचना में तल्लीन हैं। वरिष्ठ कहानीकारों में केशव, रमेश चंद्र शर्मा, रेखा वशिष्ठ, पीयूष गुलेरी और देरी से कहानी विधा में आई चंद्ररेखा ढडवाल का उल्लेख भी आवश्यक है। बद्री सिंह भाटिया ने भी अपनी प्रभूत रचनाओं से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। सेवानिवृत्ति के बाद शेर सिंह ने भी कहानी में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। उत्तर आधुनिक काल में अर्थात सन् 2000 के बाद बाजारवाद के छा जाने से कहानी के मर्म एवं कर्म पर चोट लगी है। कहानियां भी उत्पाद के रूप में लिखी जा रही हैं और यह संतोष की बात है कि हिमाचल के हिंदी कहानीकार किसी से पीछे नहीं।

– डा.सुशील कुमार फुल्ल, आलोचना और कहानी तथा साहित्येतिहास के क्षेत्र में चर्चित हिमाचली हस्ताक्षर हैं।


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