आधुनिकता के कारण खत्म हो रही जनेऊ की परंपरा

By: Apr 19th, 2017 12:02 am

रजस्वला होने के कारण स्त्रियों को जनेऊ का अधिकार नहीं है। आधुनिकता के प्रभाव में यज्ञोपवीत परंपरा खो रही है। जनेऊ धारण करने की प्रवृत्ति में हो रही कमी का प्रमुख कारण आधुनिकता तथा इस संस्कार से जुड़े नियमों की कठोरता है…

 रीति-रिवाज व संस्कार

मुंडन : (पटबाल) जन्म से तीसरे या पांचवें वर्ष में बाल का मुंडन करने का विधान है। कई बार प्रथम वर्ष में या नवरात्रों में भी इस संस्कार को संपन्न किया जाता है। मुंडन मुहूर्त से पूर्व रात्रि को बालक की 10 जडूली (बालों की बांधना) की जाती है। सिर के दायीं ओर से बाल तीन भागों में मौली से बांधना उनमें हरिद्रा, सरसों वस्त्र में डालकर पोटली बांधना इसी प्रकार तीन बायीं और, तीन पीछे, बीच में एक शिखा का विधान है। द्वितीय दिन पिता पूजन के बाद उनको कैंची से काटता है, फिर नाई बालक का मुंडन करता है। कहीं प्रथम बार उतरे केश गंगा में प्रवाहित करने तथा कही देवी मंदिर में चढ़ाने की प्रथा भी है। कई ज्वालाजी जाकर मान्यतानुसार मुंडन संस्कार करवाते हैं।

अक्षरारंभ : देवज्ञा से दिन निकलवा कर देव पूजन के बाद तख्ती पर बालू या मिट्टी बिछाकर बालक की अंगुली से उस पर वर्णमाला का अभ्यास करवाया जाता है। पांचवें वर्ष में उत्तरायण में इसे करने का विधान है। इस प्रथा से पता चलता है कि हमारी प्राचीन परंपरा कितनी सही थी कि बालक को पांच वर्ष से पूर्व अक्षर ज्ञान नहीं करवाया जाता था। आजकल माता-पिता की व्यस्तता के कारण दो या तीन वर्ष  के बच्चे को भी स्कूल डाला जाता है, जिससे बच्चे पर बौद्धिक भार पड़ने से शारीरिक विकास रुक जाता है। अक्षरारंभ की सही अवस्था पांच वर्ष ही है, इससे प्रतीत होता है। आधुनिक शिक्षा पद्धति में बच्चों पर धीरे-धीरे शिक्षा बोझ बढ़ता जा रहा है।

यज्ञोपवीत : पहले यह संस्कार तीनों वर्गों में संपन्न होता था। आजकल केवल ब्राह्मणों में ही इस संस्कार को करवाने का विधान है। बालक को 16 वर्ष तक यज्ञोपवीत (जनेऊ) डालने की प्रथा है। क्षत्रिय और वैश्यों में और कहीं-कहीं ब्राह्मणों में भी विवाह के अवसर पर ही जनेऊ डालने की परंपरा है। इसके साथ ही समावर्त्तन और वेदारम्य भी होता है, जिसमें बालक को सावित्री दान (गायत्री मंत्र) पिता द्वारा देने की प्रथा है, तथा वेदों की ऋचाओं को पढ़ाया जाता है। यज्ञोपवीत (जनेऊ) में तीन धागे होते हैं। जो देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृऋण की याद दिलाते रहते हैं। देव ऋण देवपूजन से, पितृ ऋण पूर्वजों द्वारा दिखाए गए सन्मार्ग पर चलने से श्राद्धादि करने से, ऋषि ऋण ऋषियों की चलाई गई श्रेष्ठ परंपराओं का पालन करने से पूर्ण होते हैं। अन्य तीन धागे (यज्ञोपवीत 6 धागों का होता है) पत्नी के प्रतिनिधित्व में पति पहनता है। रजस्वला होने के कारण स्त्रियों को जनेऊ का अधिकार नहीं है। आधुनिकता के प्रभाव में यज्ञोपवीत परंपरा खो रही है। जनेऊ धारण करने की प्रवृत्ति में हो रही कमी का प्रमुख कारण आधुनिकता तथा इस संस्कार से जुड़े नियमों की कठोरता है।


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