ई-बस्तों से बांटें बच्चों का बोझ
अदित कंसल लेखक, नालागढ़, सोलन से हैं
पुस्तकों, पेंसिल बॉक्स, पानी की बोतल, लंच बॉक्स, प्रोजेक्ट वर्क, स्क्रैप बुक इत्यादि को मिलाकर बस्ते का औसतन भार आठ किलोग्राम तक हो जाता है। प्रातःकालीन व दोपहर को स्कूल बस में चढ़ते-उतरते बच्चों को देखकर प्रतीत होता है कि जैसे ये कुली हों। बस्ते के भार से इनकी चाल में भी टेढ़ापन साफ झलकता है…
शिक्षा क्षेत्र में हिमाचल प्रदेश ने तेजी के साथ कदम बढ़ाए हैं। हमने अपने स्कूलों की सूरत बदली है। भवन और कक्षाओं के कमरे बेहतर हुए हैं। खेल के मैदान और शौचालय सरीखी मूलभूत सुविधाओं पर भी ध्यान दिया गया है। अधोसंरचना विकास के लिए सरकार द्वारा पर्याप्त बजट उपलब्ध करवाया जा रहा है। शिक्षा के प्रति माता-पिता व संरक्षकों में भी जागरूकता बढ़ी है। सरकारी विद्यालयों में प्रवेश आयु पांच वर्ष है, परंतु माता-पिता इससे भी पहले बच्चे को प्री-नर्सरी स्कूल में प्रवेश दिलवा देते हैं। प्रवेश के साथ ही बच्चों के हल्के कंधों पर भारी-भरकम बस्ता शोभायमान कर दिया जाता है। बेहतर व पर्याप्त जल सुविधा के अभाव में बच्चों को पानी की बोतल भी साथ ले जानी होती है। पुस्तकों, पुस्तिकाओं, पेंसिल बॉक्स, पानी की बोतल, लंच बॉक्स, प्रोजेक्ट वर्क, स्क्रैप बुक इत्यादि को मिलाकर बस्ते का औसतन भार आठ किलोग्राम तक हो जाता है। प्रातःकालीन व दोपहर को स्कूल बस में चढ़ते-उतरते बच्चों को देखकर प्रतीत होता है कि जैसे ये कुली हों। बस्ते के भार से इनकी चाल में भी टेढ़ापन साफ झलकता है। बच्चों के कपड़े अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले एक भी बच्चे की टाई सीधी नहीं रहती। टेढ़ी-मेढ़ी सी यह टाई कम, फंदा अधिक नजर आती है। प्रदेश में खेलने-कूदने की उम्र में बच्चे मानसिक कमजोरी का शिकार हो रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में 100 में से 20 बच्चे तनाव के शिकार हैं। राजेंद्र प्रसाद मेडिकल कालेज टांडा के विशेषज्ञों ने अनुसंधान में पाया कि हिमाचल में छह वर्ष से दस वर्ष आयु वर्ग के बच्चों के मानसिक रूप से कमजोर होने का आंकड़ा राष्ट्रीय औसत से तीन गुना अधिक है। विशेषज्ञों की मानें तो खान-पान में कमी व घरेलू हालात खराब होना मानसिक अव्यवस्था का प्रमुख कारण है। कृषि प्रधान प्रदेश होने के कारण बच्चों को घर जाकर खेतों में काम करना पड़ता है।
जुताई, सिंचाई, फसल कटाई, स्प्रे छिड़काव से लेकर मंडी तक फसल पहुंचाने में विद्यार्थियों की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका रहती है। यहां उन पर अतिरिक्त बोझ उठाना पड़ता है। ऐसे में बच्चों के कंधों पर भारी बस्ता उनकी दिनचर्या को प्रभावित करता है तथा तनाव में वृद्धि करता है, वहीं बच्चों के शारीरिक विकास पर असर पड़ता है। एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार पांच से 12 वर्ष आयुवर्ग के 82 फीसदी से अधिक बच्चे अपनी पीठ पर क्षमता से भारी बैग ढोते हैं, जिसके कारण बच्चों में कमर दर्द जैसी समस्याएं पैदा हो रही हैं। एसोचैम सर्वेक्षण के अनुसार दस साल से कम उम्र के लगभग 58 फीसदी बच्चे कमर दर्द का शिकार हैं, जो बाद में गंभीर दर्द एवं कूबड़पन का कारण बन सकता है। विशेषज्ञों की राय में यह बच्चों में स्थायी विकलांगता पैदा कर सकता है। सीधे-सीधे कहा जाए तो भारी बस्ता बच्चों में मानसिक व शारीरिक अस्थिरता पैदा कर रहा है। बच्चों के भारी बस्तों पर शिक्षाविदों ने चिंता जरूर व्यक्त की है। 1977 में पहली बार ईश्वरभाई पटेल समिति ने बस्ते का बोझ कम करने की सिफारिश की थी। 1984 में ‘राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद’ की कार्य समिति ने भी सिफारिश की। 1990 में नई शिक्षा नीति की समीक्षा में भी यह विषय विचाराधीन था। 1992 में यशपाल समिति ने भी ‘बिन बोझ की शिक्षा’ की वकालत की थी, परंतु यह चर्चा कागजों में ही सिमट कर रह गई और इसे धरातल पर नहीं उतारा जा सका। संचार एवं प्रौद्योगिकी के प्रयोग से स्कूली बस्ते का बोझ कम हो जाता है। कम्प्यूटर शिक्षा प्राइमरी स्तर से दी जानी चाहिए। ‘ई-बस्ता’ एक अच्छा विकल्प है। सभी किताबें डिजिटल रूप से बदलनी होंगी, ताकि बच्चा इन्हें लैपटॉप या टेबलेट पर भी देख सके तथा पढ़ सके।
ई-बस्ता एक प्लेटफार्म है, जो कि प्रकाशक, स्कूल और विद्यार्थी साथ लाता है। प्रकाशक अपनी पुस्तकें ऑनलाइन अपलोड कर सकते हैं। अध्यापक आवश्यकतानुसार कुछ किताबों को एक जगह एकत्र कर ई-बस्ता बना सकते हैं। विद्यार्थी अध्यापकों की मदद से इन ई-बस्तों को डाउनलोड करके पढ़ सकते हैं। ‘ई-बस्ता’ प्रचलित बस्ते से हल्का होगा और कहीं भी ले जाकर पढ़ा जा सकेगा। चित्र, ध्वनि, वीडियो इस बस्ते को विद्यार्थी के लिए मनोरंजन, रुचिकर व शिक्षाप्रद भी बना सकेगा। सरकार द्वारा ‘स्वयम्’ नाम का ऑनलाइन प्लेटफार्म भी स्कूली विद्यार्थियों के लिए लाभकारी रहेगा। आवश्यकता है कि यह प्लेटफार्म प्रयोगशाला की चारदीवारी में ही न सिमटा रहे, अपितु सभी अध्यापकों व विद्यार्थियों की इसमें उपस्थिति आवश्यक बनाई जाएं। आईटी को अधिक प्रभावशाली बनाने की आवश्यकता है। यह प्लेटफार्म प्रत्येक स्कूल में प्रदान किया जाए। आईटी में कम्प्यूटर प्रोजेक्टर के प्रयोग से बच्चे चित्रों, वीडियो, फिल्मों को देखकर सरलता व आनंद से सीखेंगे। अध्यापक भी जटिल विषय सुगमता से समझा सकेंगे। इससे एक ओर जहां विद्यालयों में बच्चों की उपस्थिति बढ़ेगी, वहीं दूसरी ओर ‘डिजिटल इंडिया’ का स्वप्न साकार होगा।
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