कथकली नृत्य

By: Apr 26th, 2017 12:07 am

CEREERकेरल कई परंपरागत नृत्य तथा नृत्य- नाटक शैलियों का घर है । इनमें सबसे विशिष्ट है- कथकली नृत्य। आज कथकली एक प्रचलित नृत्य रूप है । इसे तुलनात्मक रूप से हाल ही के समय में उद्भव हुआ माना जाता है। हालांकि यह एक कला है, जो प्राचीन काल में दक्षिणी प्रदेशों में प्रचलित बहुत से सामाजिक और धार्मिक रंगमंचीय कला रूपों से उत्पन्न हुई है । एक दंतकथा के अनुसार जब कालीकट के जमोरिन ने अपने कृष्णानाट्टम कार्यक्रम करने वाले समूह को त्रावनकोर भेजने से मना कर दिया, तो कोट्टाराक्कारा का राजा इतना क्रुद्ध हो गया कि उसे रामानाट्टम की रचना करने की प्रेरणा हो आई। केरल के मंदिरों के शिल्पों और लगभग 16वीं शताब्दी के मट्टानचेरी मंदिर के भित्ति चित्रों में वर्गाकार तथा आयताकार मौलिक मुद्राओं को प्रदर्शित करते नृत्य के दृश्य देखे जा सकते हैं, जो कथकली की विशेषताओं को प्रदर्शित करते हैं । शरीर की मुद्राओं और नृत्य कला संबंधी नमूनों के लिए कथकली नृत्य शैली केरल की प्राचीन युद्ध संबंधी कलाओं की ऋणी है । एक स्त्री पात्र के मूल खड़े होने की स्थिति, एक पुरुष पात्र के खड़े होने की मूल स्थिति  कथकली नृत्य, संगीत और अभिनय का मिश्रण है और इसमें अधिकतर भारतीय महाकाव्यों से ली गई कथाओं का नाटकीकरण किया जाता है। यह शैलीबद्ध कला रूप है, इसमें अभिनय के चार पहलू- अंगिका, अहार्य, वाचिका, सात्विका और नृत्त, नृत्य तथा नाट्य पहलुओं का उत्कृष्ट सम्मश्रण है । नर्तक अपने भावों को विधिबद्ध हस्तमुद्राओं और चेहरे के भावों से अभिव्यक्त करता है और इसके पश्चात (पद्म) पद्यात्मक भाग होता है, जिन्हें गाया जाता है । कथकली नृत्य शैली अपनी मूलपाठ-विषयक स्वीकृति बलराम भरतम् और हस्तलक्षणा दीपिका से प्राप्त करती है । कथकली साहित्य के विशाल भंडार में मलयालम भाषा के बहुत से लेखकों ने अपना योगदान दिया है । श्री कृष्ण के साथ राधा, वल्लाथड़ी का शृंगार कथकली नृत्य का संगीत केरल के परंपरागत सोपान संगीत का अनुसरण करता है । सोपान संगीत के अंतर्गत मंदिर के मुख्य गर्भ गृह (मुख्य कक्ष) की ओर जाने वाली सीढियों की पंक्तियों पर अष्टपादियों को अनुष्ठानिक गान होता है। कथकली नृत्य संगीत में कर्नाटक रागों का भी प्रयोग होता है।


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