कश्मीर पर बातचीत किससे ?

By: Apr 26th, 2017 12:01 am

जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात की और पत्थरबाजों के आकाओं, अलगाववादियों से बातचीत शुरू करने का आग्रह किया। महबूबा ने बुनियादी तौर पर ‘वाजपेयी नीति’ को मानक माना है। वह चाहती हैं कि कश्मीरियत, इनसानियत, जम्हूरियत की वाजपेयी नीति के आलोक में बातचीत की जाए। सवाल है कि कश्मीर में कौन बात करेगा और किस दायरे में, क्योंकि अलगाववादी भारत के संविधान को ही नहीं मानते? बातचीत किस बिंदु पर की जाए? क्या अलगाववादियों और पत्थरबाजों की ‘आजादी’ की मांग पर बातचीत की जाए? क्या पाकिस्तान की भाषा बोलने वाले पाकपरस्त आतंकी चेहरों से बातचीत की जाए? क्या हुर्रियत कान्फ्रेंस के नेता राज्य की पीडीपी-भाजपा सरकार से बातचीत करने को तैयार हैं? पत्थरबाजी को कश्मीर में उद्योग-धंधा बनाने वालों के साथ बातचीत की जाए? इन सवालों के संदर्भ में देश के ‘सुपर कॉप’ केपीएस गिल की टिप्पणी याद आती है। पंजाब से खालिस्तानी आतंकवाद की जड़ खत्म करने वाले गिल का मानना है कि बुरे से बुरे वक्त में पंजाब के 90 फीसदी से ज्यादा सिख और पंजाबी भारत के साथ, भारत के पक्ष में रहे हैं, लेकिन अच्छे से अच्छे वक्त में भी 90 फीसदी कश्मीरियों ने हिंदोस्तान को अपना देश ही नहीं माना। यही बुनियादी फर्क है कि पंजाब में खालिस्तान नहीं बन सका और कश्मीर का आतंकवाद खत्म होने की बात तो छोडि़ए, सरकार और सेना तक के काबू में नहीं आ पा रहा है। गिल साहब की मान्यता पर यकीन करें, तो कश्मीर में किससे बात करें? कौन अमन-चैन की गारंटी देगा, ताकि उससे बातचीत की जाए? दरअसल यह ऐसा वक्त है, जब राज्य की पीडीपी-भाजपा सरकार की विश्वसनीयता ‘जीरो’ है। लोग तो मुख्यमंत्री महबूबा की वफादारी पर ही शक जताने लगे हैं। महबूबा ने बातचीत की आड़ में अपनी कुर्सी का वक्त तीन-चार महीने और बढ़ा लिया है। तय है कि प्रधानमंत्री मोदी ने मुख्यमंत्री से जरूर पूछा होगा कि कश्मीर को 80,000 करोड़ रुपए का ‘विशेष पैकेज’ देने के बावजूद छात्रों और नौजवानों के हाथों में पत्थर क्यों है? कश्मीर में आम वस्तु की तरह पत्थर क्यों बिकते हैं? चूंकि कांग्रेस समेत सभी छोटे-बड़े दल और नेता जम्मू-कश्मीर में गवर्नर शासन की मांग कर रहे हैं और मौजूदा सरकार से बातचीत को कोई भी सहमत नहीं है, तो महबूबा ही स्पष्ट करें कि वह किससे बातचीत करेंगी? अलगाववादियों से प्रधानमंत्री या गृह मंत्री तो बात नहीं करेंगे। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अप्रैल, 2003 में जब कश्मीरियत, इनसानियत, जम्हूरियत का फार्मूला दिया था, तब उन्होंने महबूबा को मंच पर बुलाने से साफ इनकार कर दिया था। जो शक वाजपेयी जी को था, शायद वही शक प्रधानमंत्री मोदी का भी हो! सवाल गंभीर है कि जब कश्मीर स्थित 15 कॉर्प्स के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल जेएस संधु को भी बयान देना पड़ा है कि कश्मीर के हालात बेहद नाजुक हैं। तो कमोबेश केंद्र सरकार को मंथन करना चाहिए कि हालात से कैसे निपटें। वाजपेयी और मोदी के दौर में कई भिन्नताएं हैं। अब घाटी में 300 व्हाट््स ऐप गु्रप सक्रिय थे और हरेक ग्रुप में 250 सदस्य थे। यानी करीब 75,000 नौजवानों को पत्थरबाजी के लिए उकसाया जा रहा था। फिलहाल 90 फीसदी ग्रुप बंद करा दिए गए हैं। अक्तूबर, 2016 से मार्च, 2017 के बीच पत्थरबाजी की 411 घटनाएं और 155 आतंकी वारदातें हुईं। क्या यह हिंसक और पाकपरस्त माहौल प्रधानमंत्री वाजपेयी के दौर में था? मोदी सरकार के दौरान तक पत्थरबाजी की कुल 13,000 घटनाएं हो चुकी हैं। इस माहौल को कैसे बदला जाएगा और बातचीत कैसे संभव होगी? यह बेहद पेचीदा सवाल है। नेशनल कान्फ्रेंस नेता फारुक अब्दुल्ला का मानना है कि पाकिस्तान से बातचीत किए बिना कोई हल नहीं है। क्या अब पाक के साथ भी बातचीत की जाएगी? अब्दुल्ला परिवार जब सत्ता में होता है, तो फारुक ही कहते हैं कि अलगाववादी तो ऐसे काले कौवे हैं, जिन पर कोई भी पेंट कर लें, उनका रंग काला ही रहेगा। आज फारुक पत्थरबाजों के साथ हैं और उनकी लड़ाई को ‘वतन की लड़ाई’ करार दे रहे हैं। क्या ऐसे माहौल में किसी भी पक्ष से बातचीत संभव हो सकती है? दरअसल आज कश्मीर के हालात बेहद नाजुक हैं, भविष्य अंधेरे में लगता है। वहां के 14,376 स्कूलों में 15 लाख से अधिक छात्र पढ़ते हैं। सोचिए, यदि हरेक हाथ में पत्थर आ गया, तो कश्मीर का क्या होगा? लिहाजा कोई न कोई कारगर प्रयास जरूरी है। यदि कुछ नेता बातचीत करने और अमन-चैन का यकीन दिलाने पर सहमत हैं, तो बातचीत जरूर की जाए।


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