कहानियों में प्रतिपादित विषय

By: Apr 17th, 2017 12:05 am

वही कहानी सफल मानी जाती है, जो पाठक को शुरू से लेकर अंत तक बांधे रखती है। पाठक को कहानी से बांधने का गुर हर किसी के पास नहीं होता। एक सफल कहानीकार कहानी के संदर्भ को हकीकत के धरातल पर उतारकर उसमें रंग भरता है। रोचकता कहानी में नहीं होती है, कहानी में रोचकता भरने का काम कहानीकार करता है।  कहानियां इतिहास की संदेशवाहक होती हैं। इतिहास में क्या-क्या घटा, इन कहानियों से हम उससे रू-ब-रू होते हैं। वरिष्ठ कहानीकार और आलोचक डा. सुशील कुमार फुल्ल ने अपने अतिथि संपादकीय की अंतिम किस्त में कहानी पर शोध और आलोचना के स्तर की चर्चा की है…         

-फीचर संपादक

हिमाचल की हिंदी कहानी राष्ट्रीय स्तर पर अपनी आंचलिकता के कारण समय-समय पर चर्चित रही है। सातवें-आठवें दशक में बहुत सी ऐसी कहानियां प्रकाशित हुईं, जिनमें हिमाचल के दुर्गम क्षेत्रों, जनजातीय परंपराओं, प्राकृतिक आपदाओं से त्रस्त पात्रों, जीवन की अनेक कठिनाइयों आदि का मधुर चित्रण हुआ है। धर्मवीर भारती की तो यह मान्यता ही थी कि यदि हिमाचल का कहानीकार बंबइया जीवन पर कहानी लिखेगा, तो वह कैसे पाठक को प्रभावित करेगा, लेकिन यह भी सच है कि कुछ कहानीकार पहाड़ की अपेक्षा मैदान की कपोल कल्पित कहानियां लिखते रहे और कुछ ने पहाड़ी जीवन को चित्रित किया। हंसराज भारती ने लाहौर और पाकिस्तानी कहानियां लिखकर आतंक की दुनिया का चित्रण किया, परंतु यह अनुभव पर आधारित कहानियां थीं, इसलिए प्रभावित करती हैं। कृष्णकुमार नूतन पर फिल्मी दुनिया का रंग हावी था, सो उन्होंने शहरी जीवन की कहानियां लिखीं। स्वाभाविक है कि उनमें पहाड़ की तड़प नहीं। इसी प्रकार आज के समय में सुदर्शन भाटिया भी वैसी ही कहानियां लिख कर अपना वर्चस्व बनाना चाहते हैं। अरुण भारती ने भेडि़या जैसी व्यंग्यपरक परंतु जीवंत कहानियां लिखी हैं। लोक विश्वासों, लोक परंपराओं, रीति-रिवाजों को लेकर भी अच्छी कहानियां लिखीं गईं… जैसे एक कथा परिवेश की सभी कहानियां… हिमाचल का एक पूरा परिदृश्य प्रस्तुत करती हैं। त्रिलोक मेहरा की चाय बागानों के मालिकों द्वारा नारी के शोषण की कहानियां परंपराओं की वीभत्स स्थिति से परिचय करवाती हैं। केशव की छोटा टेलीफोन बड़ा टेलीफोन  व्यवस्था पर करारी चोट करता है। कारगिल युद्ध के नायकों को लेकर भी मार्मिक कहानियां लिखी गई हैं यथा ‘जलजला’ पुत्र की शहादत पर मां-बाप का हिल जाना। संपन्नता होते हुए भी आत्महत्या कर लेने को रेखांकित करती एक ऐसी ही कहानी है ‘मुक्तिद्वार’। रिश्वत को रेखांकित करती कहानी ‘पटवारी का भूत’। अंधविश्वासों को रेखांकित करती किशोरी लाल वैद्य की कहानी ‘नवमी की दहलीज’।अंधविश्वासों या लोक परंपराओं की अनर्गलता को रेखांकित करती मुरारी शर्मा की बाणमूठ में संकलित कहानियां। भले ही उनमें बिखराव है या वे ज्यादा खिंच जाती हैं, फिर भी एक परिदृश्य को रेखांकित करने में वे सक्षम हैं। लगता है सत्तर-अस्सी का दशक फिर आ गया है कि हम ढूंढ-ढूंढकर अंधविश्वासों या लोक परंपरा की विलक्षणताओं पर कहानियां लिखने लगे हैं। मुंशी प्रेमचंद ने सही कहा है कि लेखक का काम तो दीपक की तरह जलते रहना है, उसे महत्त्वाकांक्षाएं नहीं पालनी चाहिएं। यह अंश प्रेमचंद की कहानी ‘लेखक’ से उद्धृत है। अभिप्रायः यह कि घर-परिवार, राजनीति, समाज, संस्कृति से संबद्ध अनेक विषयों को कहानी लेखकों ने उठाया है तथा कहीं-कहीं वैचारिक स्तर पर समाधान का उल्लेख भी किया है। अर्नेस्ट हेमिंग्वे का मत था कि कहानी का अंत खुला छोड़ देना चाहिए, क्योंकि कहे की अपेक्षा अनकहा, स्पष्ट की अपेक्षा अस्पष्ट अधिक प्रभावशाली होता है। हिमाचल के हिंदी कहानीकारों ने हर रंग रूप की कलात्मक कहानियां लिखी हैं, जिन्होंने साहित्य को समृद्ध किया है।  ओम भारद्वाज, सुरेश शांडिल्य, पवन चौहान, सुमन शेखर, उषा दीपा मेहता आदि लेखकों ने समसामायिक समस्याओं को लेकर भी कुछ अच्छी कहानियां लिखी हैं। हिमाचल के हिंदी कहानीकारों की यह समस्या है कि वे कोल्हू के बैल की तरह एक ही वृत्त चक्र में घूमते रहते हैं। कहानी की नवीनता, मौलिकता एवं पठनीयता बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि वे समकालीन परिदृश्य से बराबर परिचित रहें। ‘बाणमूठ’ का कहानीकार यदि विषयवस्तु की दृष्टि से एक ही प्रकार की थीम पर अटका रहे, तो कब तक पाठकों को बांध सकेगा। यदि सुदर्शन भाटिया परंपरागत की ही कहानियां लिखेंगे तो वह समकालीन बोध से कब जुड़ेंगे? यह तो प्रशंसनीय है कि उन्होंने हिमाचल में सबसे ज्यादा पुस्तकें लिखी हैं, लेकिन वह कहानी विधा से इतर हैं। हिमाचली कहानी की पाठ्यक्रमों में उपस्थिति हिंदी के पाठ्यक्रमों की गति भी न्यारी है। सन् 1959 में भी अधिकांश विश्वविद्यालयों में गोदान पढ़ा-पढ़ाया जाता था, आज भी वही उपन्यास हावी है। गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ एक बार पाठ्यक्रम में चली गई और उस पर यह टैग लग गया कि यह प्रेम पर कर्त्तव्य के विजय की कहानी है, तो बराबर यही कहानी सब जगह पाठ्यक्रम में है, जबकि बदल-बदल कर पाठ्यक्रम में कहानियां जानी चाहिएं। दक्षिण के विश्वविद्यालयों में दो-तीन हिमाचली हिंदी कहानीकारों की कहानियां पाठ्यक्रम में प्रविष्ट हुई हैं, लेकिन हिमाचल के महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम में उनकी उपस्थिति नगण्य है। हिमाचल के महाविद्यालयों के लिए पाठ्यक्रम का निर्धारण विश्वविद्यालय का बोर्ड करता है। गत कुछेक वर्षों की पुस्तकों का सर्वेक्षण करें, तो पता चलता है कि हिंदी की सभी विभिन्न पुस्तकों का संपादन एवं सामग्री का चयन हिंदी विभाग के प्रोफेसर्ज ही करते हैं। तो स्पष्ट है कि वे क्यों व्यर्थ में हिमाचल के हिंदी कहानीकारों की रचनाओं को पाठ्य सामग्री में डालें। वे कहानीकार तो फिर गुलेरी की तरह पाठ्यक्रम में बने ही रहेंगे। कई बार मन में प्रश्न उठता है कि यदि गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर में डा. अजय शर्मा के दो-दो, तीन-तीन उपन्यास पाठ्यक्रम में लग सकते हैं, तो हिमाचल के उन कथाकारों की रचनाएं या उपन्यास पाठ्यक्रम में क्यों नहीं लगते, जिन्हें प्रदेश के सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान चंद्रधर शर्मा गुलेरी पुरस्कार मिल चुका है? उपर्युक्त प्रसंग की चर्चा इसलिए कि पाठ्यक्रमों में हिमाचल के हिंदी कहानीकारों की उपस्थिति उपेक्षा से बढ़कर कुछ नहीं। यह भी रोचक तथ्य है कि हिमाचल की हिन्दी कहानी के पाठक प्रदेश में कम देश में अधिक हैं, क्योंकि हिमाचल के हिंदी कहानीकारों की पुस्तकें हिमाचल में उपलब्ध नहीं होतीं, बल्कि दिल्ली से मंगवानी पड़ती हैं। स्थानीय पाठक हिमाचल से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं में या देश के दूसरे भागों से आने वाली पत्र-पत्रिकाओं में रचना पढ़कर संतुष्ट हो जाते हैं। हां, हर लेखक अपनी कहानी को पढ़कर मुग्ध हो जाता है, क्योंकि उसे लगता है कि उसने ‘कफन’ से भी बढि़या कहानी लिखी है।

कहानी पर शोथ और आलोचना का स्तर

हिमाचल के हिंदी कहानीकारों पर हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय एवं पंजाब विश्वविद्यालय में छिटपुट काम हुआ है, लेकिन कोई ठोस या गंभीर शोध हुआ हो, ऐसा मेरे ज्ञान में नहीं है। वास्तव में स्थानीय विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में कार्यरत विद्वान प्रोफेसरों ने स्थानीयता से ऊपर उठकर प्रतिष्ठित एवं स्थापित हिंदी लेखकों पर केंद्रित शोध अधिक करवाया है, जिससे शोधकर्ताओं व गुरुजनों को यश प्राप्त हुआ है। उदाहरणार्थ अभी हिमाचल के एक शोध छात्र ने मराठी भाषी हिंदी कहानीकार मालती जोशी की कहानियों पर पीएचडी उपाधि अर्जित की है। हिमाचल के किसी एक कहानीकार पर शोध हुआ हो, अजूबा ही माना जाएगा।  हिमाचल के हिंदी कहानीकार तीखी आलोचना के अभ्यस्त नहीं है। वैसे यह भी सत्य है कि नए कहानीकारों को पनपने का समय देना चाहिए… उनके प्रति अपेक्षाकृत उदारता अपेक्षित रहती है, परंतु मेरी धारणा है कि रचना जैसा बोलती है, उस पर वैसी ही टिप्पणी होनी चाहिए। अंततः समय की शिला पर रचना ही अपना अस्तित्व बनाएगी। संभव है कुछ कहानीकारों के नाम प्रस्तुत लेख में छूट गए हों, क्षमता याचना, अन्यथा न लें। फिर कभी उनका उल्लेख निश्चित होगा।

— डा. सुशील कुमार फुल्ल, पुष्पांजलि, राजपुर (पालमपुर) 176061


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