‘कुछ तो है जो रह-रह कर दिल में खटकता है’

By: Apr 10th, 2017 12:05 am

हंसराज भारती

मैं वर्ष 1987 में ही हिमाचल प्रदेश से सीधे संबद्ध हुआ। मेरी जन्मभूमि तो थी, पर उस वक्त तक कर्मभूमि नहीं। यहां के साहित्यिक परिवेश से उस समय अधिक परिचित नहीं था। अपनी बिखरी जिंदगी को जैसे-जैसे व्यवस्थित करने के बाद यहां के अदबी माहौल की ओर रू-ब-रू हुआ। इन तीन दशकों के अंतराल में इस छोटे से पहाड़ी प्रदेश में साहित्य सृजन में, इससे पूर्व के तीन दशकों यानी प्रदेश के गठन के मुकाबले कहीं अधिक विस्तार, सुधार और निखार आया। उस समय के शुरुआती दौर में हिंदी की प्रतिष्ठित और लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओं में हिमाचली लेखकों की रचनाएं यदा-कदा ही प्रकाशित होती थीं। उन पर कोई विशेष चर्चा तो एक स्वप्न के समान थी, जबकि इसके मुकाबले उत्तराखंड के रचनाकार पूरी तरह हिंदी साहित्य पटल पर अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करवा रहे थे। हालांकि उत्तराखंड उस समय उत्तर प्रदेश का हिस्सा था। परंतु पूरी तरह हिमाचल की तरह पहाड़ी भू क्षेत्र था। एक जैसा भौगोलिक परिवेश होने पर भी दोनों के योगदान में भारी अंतर है। क्यों? मैं निरंतर खुद से ही प्रश्न करता था। फिर धीरे-धीरे हिमाचली रचनाकार भी राष्ट्रीय फलक पर अपनी हाजिरी भरने लगे। इससे पूर्व दो-चार नाम अंगुलियों पर गिने जा सकते थे, परंतु लोहिया, सुशील कुमार फुल्ल की कहानियां धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदोस्तान में पुरस्कृत हुई थीं। एक दो नाम और थे। परंतु पिछली सदी के अंतिम दशक में हिमाचल के कई कुछ और लेखकों ने राष्ट्रीय धारा की पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर अच्छी कहानियां लिखीं, जो चर्चित हुईं, उनका नोटिस भी लिया गया। हंस जैसी हिंदी कहानी की पत्रिका में ये लेखक प्रकाशित व चर्चित हुई। हिमाचली लेखन का नोटिस लिया जाने लगा। फिर भी कहानीकारों की गिनती बमुश्किल आठ-दस तक ही सीमित है, परंतु जैसे हिमाचल के कहानीकारों को अब तक जो शून्य स्पेस हासिल था, उसमें निरंतर बढ़ोतरी होती रही। इस दरमियान प्रदेश से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिकाओं ने अपने-अपने ढंग से कहानी पर अपना विकास क्रम जारी रखा। सरकारी तंत्र भी आधी-अधूरी और पक्षपात पूर्ण, पूर्वाग्रह व मठाधीश परंपरा के तहत अपने मसीहा होने का फटा ढोल पीटता रहा। आज भी पीट रहा है। इसकी भूमिका हमेशा से विवादों के घेरे में रही है, पर इनकी बला से। इस सदी के पहले दशक में जहां हिमाचल प्रदेश में कहानी लेखन को लेकर कई आयोजन परिचर्चाएं, संवाद, विशेषांक प्रकाशन आदि का क्रम चलता रहा, वहीं पर यहां के कहानी लेखन में विषयों के विस्तार के अतिरिक्त भाषा और शिल्प संवेदना के दृष्टिकोण से भी सुधार और निखार परिलक्षित होता है। पर इन चार-पांच वर्षों में एक ठहराव सा नजर आ रहा है। नया युवा लेखन उस तरह भविष्य की संभावनाओं से लबरेज नजर नहीं आ रहा है। बहरहाल, इन तीस वर्षों के साहित्यिक माहौल में रहते, जीते हुए मैंने जो अनुभव किया, प्रत्यक्ष भोगा, देखा, सुना और पढ़ा, वह काफी त्रासद  सा है। यहां के अधिकांश रचनाकार एक अलग ही संकुचित संकीर्ण, पूर्वाग्रहग्रस्त और अपने-अपने दड़बों में दबे रहने की भावना से पीडि़त नजर आए। यहां एक खतरनाक किस्म की चुप्पी मौजूद है जो आपकी सृजनात्मक ऊर्जा व अस्मिता के लिए चुनौती है। किसी अच्छी रचना के लिए हल्ला शेरी देने की बजाय उपेक्षित और नकारात्मक वृत्ति अधिक है। लेखकों के बीच सार्थक, स्वस्थ संवाद परंपरा का अभाव सा है। एक-दूसरे की रचनाएं सामान्यतः या कहें न पढ़ने की परंपरा बड़ी आम-फहम सी लगी। उचित समीक्षा का अभाव खलता है। कहानी से अधिक कहानीकारों पर चर्चा होती है। इसलिए कहानियों का मूल्यांकन कम मात्रा में हुआ है शायद। उचित मूल्यांकन के बिना किसी रचना और रचनाकार का पक्ष और विपक्ष सामने नहीं आ पाता, जबकि आज ऐसे मूल्यांकन की आवश्यकता है जो हिमाचल को इन दशकों की कहानियों का यथोचित समीक्षात्मक मूल्यांकन प्रस्तुत करे। कुछ प्रयास अवश्य हुए है, परंतु वे पर्याप्त नहीं। एक समारोह में जब मैंने निर्मल वर्मा को श्रद्धांजलि देने की बात कही तो उस संस्था के अध्यक्ष बोले, पहले यह बताओ वो किस स्कूल में टीचर थे और भी बड़े किस्से हैं। मेरी कहानी भाषा विभाग से पुरस्कृत हुई, वर्ष 2003 में एक भी तथाकथित बड़ों का एक शब्द तक नहीं सुना। भला हो पाठकों का जिनके हौसले ने मुझ से कई और की कलम को जिंदा रखा है। बहुत लेखक हैं। रचनाएं अच्छी लिख रहे हैं पर अपनी ही रचना को श्रेष्ठ मानते हैं। तभी एक महान संपादक ने कहा था, वो पत्र तो कूड़ा छाप रहा है। हमने कहा आप उसमें  धारावाहिक छाप रहे हैं, वो भी कूड़ा है। वे चुप हो गए। बस इस चुप्पी से असहजता होती है। विद्रोह भी जन्मता है। फिर भी भविष्य के प्रति आशावान हूं। एक लाजवाब कहानी या कहानीकार के इंतजार में। कोई तो लिखे, कोई तो सामने आए। हंसराज भारती एक विस्थापित कहानीकार हैं, जो पंजाब में आठवें-नवें दशक में व्याप्त आतंक से पीडि़त हो अपने पैतृक गांव लौटे। एक सहमा हुआ परिपक्व कहानीकार, अतिथि संपादक


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